भारत की ‘सिलिकन घाटी’ की चमक-दमक की ख़ातिर उजड़ा मेहनतकशों का आशियाना
सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग (आई टी इण्डस्ट्री) का गढ़ होने की वजह से बंगलूरू को भारत की ‘सिलिकन घाटी’ कहा जाता है।पिछले दो दशकों के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग की वजह बंगलूरू की तस्वीर बदल गई है। ऐतिहासिक रूप से अपनी हरियाली और प्राकृतिक छटा के लिए मशहूर यह शहर अब फ्लाई ओवर, शॉपिंग मॉल, होटल, अपार्टमेण्ट आदि से पटे हुए कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुका है। हालाँकि सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग में काम करने वाली आबादी देश की पूरी श्रमिक आबादी का एक बेहद छोटा हिस्सा है, फ़िर भी चूँकि यह आबादी बाज़ार में उपलब्ध ऐशो-आराम के तमाम साजो समान को खरीदने की कुव्वत रखती है, इसलिए बंगलूरू शहर का पूरा विकास इस छोटी सी आबादी की ज़रूरतों को केन्द्र में रखकर किया जा रहा है। तमाम विज्ञापनों के ज़रिये इस आबादी को अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसी जीवन शैली के सपने दिखाये जाते हैं। वातानुकूलित घरों और कार्यालयों में रहने वाले तथा वातानुकूलित गाड़ियों और शॉपिंग मॉलों में विचरण करने वाली इस आबादी को यह आभास तक नहीं होता कि उनके सपनों की दुनिया का निर्माण करने वाली बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी न सिर्फ़ इन सपनों से वंचित होती जा रही है बल्कि उसकी रही सही दुनिया भी दिन-ब-दिन उजड़ती जा रही है। मुम्बई के गोलीबार और कोलकता के नोनदंगा प्रकरण की तर्ज़ पर बंगलूरू में भी 19-20 जनवरी को इजीपुरा नामक मज़दूर बस्ती को प्रशासन और रियल स्टेट माफिया की मिलीभगत से उजाड़ दिया गया और देखते ही देखते मेहनतकशों के 1500 परिवारों के लगभग 8000 लोग सड़क पर आ गये।
इजीपुरा मज़दूर बस्ती बंगलूरू के कोरमंगला इलाके के क़रीब स्थित है। बंगलूरू के सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों की बहुत बड़ी तादाद कोरमंगला में रहती है। इस इलाके में पिछले दो दशकों के दौरान सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों को ध्यान में रखते हुए अपार्टमेंट, शापिंग मॉल, होटलों और फ्लाई ओवर आदि के रूप में अभूतपूर्व विकास हुआ जिसमें बंगलूरू शहर के बिल्डर माफ़िया ने सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों और कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाले अन्य मध्यवर्गीय लोगों के सपनों का आशियाना बनाने की हसरत को माल में तब्दील कर अकूत मुनाफ़ा पीटा और स्थानीय नेताओं और प्रशासन के साथ इस मुनाफ़े की बंदरबाँट की। बंगलूरू शहर के केन्द्रीय हिस्से में तो पहले से ही कोई जगह नहीं बची थी, पिछले दो दशकों के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के जबर्दस्त विकास की वजह से कोरमंगला जैसे शहर के परिधिगत हिस्सों में भी जगह की किल्लत होने लगी। जैसा कि दुनिया भर में पूँजीवादी शहरी विकास की प्रक्रिया के दौरान होता आया है, बंगलूरू में भी इस क़िस्म के विकास की गाज़ ग़रीब और कमज़ोर मेहनतकश वर्ग पर ही गिरी।
एक अर्से से बंगलूरू के बिल्डर माफ़िया की निगाहें इजीपुरा की मज़दूर बस्ती पर पड़ी थीं। यह मज़दूर बस्ती 1984 में शहरी ग़रीबों के लिए आवास योजना के तहत बंगलोर महानगर पालिका द्वारा बसायी गयी थी। इसमें घरेलू नौकर, सिक्योरिटी गार्ड, ठेला, रेहड़ी और खोमचा लगाने वाली, ड्राइवर इत्यादि जैसे काम करने वाली मेहनतकश आबादी रहती है। आरम्भ में एक कमरे के घरों वाली तिमंजिला इमारतें बनायी गई थीं जिनमें शौचालय, बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की हमेशा किल्लत रहती थी। इस किल्लत के बावजूद इनमें रहने वाले लगभग 1500 परिवारों के लिए सिर के ऊपर छत होना एक बहुत बड़ी सहूलियत थी। घटिया सामग्री से बने होने की वजह से 2005 के आते-आते इनमें से कई इमारतें ढहने लगी। मौके का फ़ायदा उठाते हुए बंगलोर महानगर पालिका ने सारी इमारतें तोड़ दीं और उनमें रहने वाले मज़दूर टिन और बाँस के अस्थायी घरों में रहने लगे। उस समय सरकार ने इन लोगों को भरोसा दिलाया था कि तोड़ी गयी इमारतों की जगह नयी इमारतें बनाकर उनका पुनर्वास किया जायेगा।
सरकार ने पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के जुमले को उछालते हुए इजीपुरा की जमीन को एक निजी बिल्डर को सुपुर्द कर दिया। उदय गरुड़ाचार नाम का यह बिल्डर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का सदस्य है और कर्नाटक के पूर्व डीजीपी का पुत्र है। बंगलूरू में उसके कई शापिंग मॉल और अपार्टमेंटों की एक लम्बी श्रृंखला है। अपनी पहुँच का इस्तेमाल करते हुए इस बिल्डर ने 22 एकड़ की कुल जमीन में से 17 एकड़ की जमीन पर एक भव्य शापिंग मॉल बनाने की योजना बनायी। विस्थापित लोगों को फुसलाने के लिए उसने शेष 5 एकड़ की जमीन पर उनके लिए घर बनाने की बात कही। लेकिन यह एक चाल थी क्योंकि वहाँ रहने वालों के लिए कानूनी रूप से यह सिद्ध करना एक टेढ़ी खीर थी कि वे वहाँ पहले रहते थे। मामला अदालत तक गया और जैसा कि अमूमन देखने में आता है अदालत ने बिल्डर का पक्ष लिया। इसके बाद बिल्डर ने शासन-प्रशासन में अपनी पहुँच का इस्तेमाल करते हुए 19-20 जनवरी को बस्ती में भारी पुलिस बल और बुलडोजर भेजकर 1500 परिवारों के लगभग 8000 लोगों को उनके अस्थायी घरों से भी उजाड़ दिया। इसके पहले इस बस्ती में पानी और बिजली की सप्लाई भी काट दी गयी। जब लोगों ने इस सरासर अन्याय का प्रतिरोध किया तो पुलिस ने स्वामी भक्ति का मुजायरा करते हुए इस प्रतिरोध का बर्बर दमन किया। इनमें से अधिकांश लोग तो अन्य इलाकों में बिखर गये, परन्तु कुछ लोग अभी भी अपने परिवार और साजो समान सहित वहीं पर पड़े हैं क्योंकि उन्हें और कहीं जाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है।
इजीपुरा जैसी घटना बर्बर भले ही प्रतीत हो परन्तु यह अपने आप में कोई अपवाद हरगिज़ नहीं है। क्या यह सही नहीं है कि हिन्दुस्तान के हर शहर में मेहनतकश आबादी गाय-गोरू की तरह अमानवीय हालात में रहती है? यही नहीं ऐसे अमानवीय हालात में भी एक जगह बहुत दिन तक टिकने से पहले ही उन्हें उजाड़ कर दूसरी अमानवीय जगह पटक दिया जाता है। जानवरों से भी बदतर यह ज़िन्दग़ी तब तक क़ायम रहेगी जब तक समाज पूँजी के नियन्त्रण में रहेगा। इजीपुरा की बर्बर घटना एक बार फिर हमें मुनाफ़े़ ही अन्धी हवस पर टिकी मौजूदा व्यवस्था को उखाड़ फ़ेंकने की ज़रूरत पर शिद्दत से सोचने पर मजबूर करती है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2013
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