अफ़ज़ल गुरू को फाँसी: बुर्जुआ “राष्ट्र” के सामूहिक अन्तःकरण की तुष्टि के लिए न्याय को तिलांजलि
शिवानी
गत 9 फरवरी को सुबह अफ़ज़ल गुरू को आखि़रकार दिल्ली की तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी। 13 दिसम्बर 2001 को संसद भवन पर हुए हमले के मामले में बतौर षड्यन्त्रकारी उसे “दोषी” पाया गया था। अफ़ज़ल गुरू की फाँसी कई सवालों को जन्म देती है, और 9 फरवरी के बाद से ही इस मुद्दे पर बहस जारी है-क्या वाकई अफ़ज़ल संसद भवन पर हमले की कार्रवाई में किसी भी रूप में शामिल था? क्या उसका मुक़दमा बुर्जुआ न्याय के सिद्धान्तों की कसौटी पर भी खरा उतरता है? कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने उसे फाँसी देने का वक़्त अभी ही क्यों चुना? फाँसी की सूचना को आख़िरी वक़्त तक गोपनीय क्यों रखा गया? ये सभी मुद्दे तो उठे ही, साथ ही ये प्रश्न भी उठे कि क्या मृत्युदण्ड का प्रावधान होना चाहिए? क्या इसे पूरी तरह से समाप्त नहीं कर दिया जाना चाहिए? और इसी तरह के कुछ अन्य प्रश्न। ऐसे लोग जिन्होंने छद्म बुर्जुआ राष्ट्रवाद की बयार में बहकर अपनी नैसर्गिक न्यायप्रियता और विवेक को नहीं खोया है, और जिस “राष्ट्र” के सामूहिक अन्तःकरण की तुष्टि के लिए अफ़ज़ल को फाँसी दी गयी उस “राष्ट्र” से ख़ुद को नहीं जोड़ते उन्हें ये सभी प्रश्न निश्चित तौर पर परेशान करेंगे।
अफ़ज़ल गुरू को 13 दिसम्बर 2001 को संसद भवन पर हुए हमले के मामले में दोषी क़रार दिया गया था। इस हमले में 9 लोग मारे गये थे। हमला करने वाले पाँचों आतंकवादी भी मारे गये थे। अफ़ज़ल इस हमले के दौरान मौजूद नहीं था। उसे हमले के कुछ दिनों के भीतर ही कश्मीर से पकड़कर दिल्ली लाया गया। अभियोजन पक्ष की दलील थी कि इस हमले के पीछे का मास्टरमाइण्ड वही था। ट्रायल कोर्ट और फिर उच्चतम न्यायालय ने उसे दोषी पाया और फाँसी की सज़ा सुनायी। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में उसे मुख्य आरोपी नहीं, बल्कि षड्यन्त्रकारी ही माना। इस फैसले के ख़िलाफ़ 2006 में अफ़ज़ल की पत्नी ने दया याचिका भी दायर की थी। जहाँ एक ओर पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल ने इस याचिका पर कोई फैसला नहीं दिया वहीं प्रणब मुखर्जी ने 3 फरवरी 2013 को इस याचिका को ख़ारिज कर दिया जिसके बाद 9 फरवरी को अफ़ज़ल को फाँसी दे दी गयी।
सरसरी निगाह से देखें तो दिसम्बर 2001 से फरवरी 2013 तक इस मामले से जुड़ा घटनाक्रम यही रहा है। लेकिन एकबारगी अन्धराष्ट्रभक्ति से पैदा हुए अपने पूर्वाग्रहों से हटकर सोचा जाये तो शुरू से अन्त तक यह पूरा मुक़दमा ही विसंगतियों से भरा लगता है। न्यायिक त्रुटियाँ, गढ़े गये साक्ष्य, और भारतीय राज्य की हर मशीनरी का कपटी चरित्र इस मामले की प्रमुख आभिलाक्षणिकताएँ बना रहा है। अफ़ज़ल गुरु का एक समय में जम्मू एण्ड कश्मीर लिबरेशन फ्रण्ट (जेकेएलएफ) से जुड़े रहना और बाद में आत्मसमर्पण कर देना एक ऐसा कारण था जिससे उसे इस षड्यंत्र में फँसाना आसान था। उच्चतम न्यायालय ने इसी सन्दर्भ में अपनी टिप्पणी देते हुए उसे समाज के लिए ख़तरा बताया। जहाँ तक स्वयं अफ़ज़ल गुरू के बयान का सवाल है, तो उसका आरोप यह था कि जम्मू-कश्मीर की स्पेशल टास्क फोर्स के एक अधिकारी ने ही उसे मोहम्मद से मिलवाया था, जो बाद में संसद पर हमले में मारा गया। अफ़ज़ल को इस बात की जानकारी नहीं थी कि उससे दिल्ली में गाड़ी ख़रीदने और घर ढूँढ़ने की मदद क्यों ली जा रही है। अदालत ने इस आरोप को गैरज़रूरी समझते हुए दिल्ली पुलिस की विशेष सेल के सामने दिये गये उसके इक़बालिया बयान को ही पूरे मामले में उसकी भूमिका की पुष्टि करने का आधार बनाया। ख़ुद उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि अफ़ज़ल का इक़बाले-जुर्म कार्यविधिक रक्षा उपायों का उल्लंघन है और इसे मान्य साक्ष्य के रूप में नहीं लिया जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद दोषसिद्ध करने के लिए इसे ही आधार बनाया गया था। इसके अलावा, जाँच और मुक़दमे की पूरी प्रक्रिया के दौरान अफ़ज़ल गुरू को सही वकील न मुहैया कराया जाना इस पूरे मामले की सबसे बड़ी विसंगति थी। अदालत द्वारा नियुक्त किया गया वकील नीरज बंसल अफ़ज़ल का मुक़दमा लड़ने को ही तैयार नहीं था। अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किये गये गवाहों के आरोपों का खण्डन करने के लिए उसने जिरह तक नहीं की। कुल 80 गवाहों में से केवल 22 को ही जवाबतलब किया गया। यह है बुर्जुआ न्यायिक व्यवस्था की असलियत और क़ानून के समक्ष समानता के दावों का असली चेहरा! और इन सभी न्यायिक विसंगतियों की श्रंखला में चार चाँद लगाते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा मृत्यु-दण्ड को अनुमोदित करने का यह कारण दिया गया-‘इस घटना ने पूरे “राष्ट्र” को झकझोर कर रख दिया है और सिर्फ़ मृत्यु दण्ड ही समाज के सामूहिक अन्तःकरण की तुष्टि कर सकता है।’ देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा दिये गये इस तर्क का क्या क़ानूनी आधार है, यह समझ से परे है। स्पष्ट है कि अफ़ज़ल गुरू को पहले आरोपी सिद्ध करके, “राष्ट्र” के शत्रु के रूप में प्रचारित करके और फिर फाँसी देकर बुर्जुआ राष्ट्रवाद के विमर्श को संजीवनी प्रदान करने की ही सारी मशक्कत है।
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हलकों में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान अफ़ज़ल को फाँसी दिये जाने पर काफ़ी आश्चर्य ज़ाहिर किया जा रहा है। इस तरह के विस्मय का क्या भौतिक आधार है, यह समझ में नहीं आता। कांग्रेस का साम्प्रदायिक सौहार्द के मामलों में वैसे भी ट्रैक रिकॉर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं है। ऐसे तमाम मसलों पर वह भाजपा पर बीस ही पड़ती रही है। लेकिन फिर भी इस बार अफ़ज़ल गुरू और उससे पहले अजमल कसाब को फाँसी देने के पीछे तात्कालिक राजनीतिक समीकरण काम कर रहे थे। 2014 के आम चुनावों के मद्देनज़र भाजपा एक बार फिर से अपने कट्टर हिन्दुत्ववादी एजेण्डे पर वापस लौट रही है। कुम्भ मेले में राजनाथ सिंह की डुबकी और सन्तों के महासम्मेलन में राम मन्दिर बनाने के संकल्प को दुहराया जाना और साथ ही मोदी को प्रधानमन्त्री के उम्मीदवार के तौर पर अनौपचारिक तौर पर पेश करने के साथ ही भाजपा ने अपने मंसूबे साफ़ कर दिये हैं। इसी बीच ‘हिन्दू आतंकवाद’ को भाजपा से जोड़ने के शिन्दे के बयान ने कांग्रेस के लिए थोड़ी मुश्किल खड़ी कर दी। ऐसे में, भाजपा एक बार फिर से हिन्दू राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर अपने पक्ष में जनता की राय बनाने के प्रयासों में लग गयी। कांग्रेस को भी यह सिद्ध करना था कि वह “उदार” के साथ “कठोर” भी हो सकती है। और प्रणब बाबू ने एक के बाद एक दया याचिकाओं को ख़ारिज करके बता दिया, कि कांग्रेस “राष्ट्र” की सुरक्षा को लेकर कोई भी समझौता नहीं करना चाहती है। पहले नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने में और फिर बुर्जुआ राष्ट्रवाद का ज़्यादा मुखर प्रतिनिधि बनकर कांग्रेस ने भाजपा के दोनों मुख्य मुद्दे हड़प लिये। अब जबकि इस बात के कुछ संकेत मिलने लगे हैं कि अगले चुनावों में नरेन्द्र मोदी को भाजपा अपना उम्मीदवार बना सकती है, तो कांग्रेस भी इस बात को समझ रही है कि ऐसी सूरत में मुसलमानों के वोट मजबूरन उसके पक्ष में ही आयेंगे। और ऐसे में कांग्रेस फिलहाल अपने हिन्दू वोट बैंक को सुदृढ़ करना चाहती है। स्पष्ट है कि अचानक, बिना मीडिया को बताये तिहाड़ में अफ़ज़ल को फाँसी दिये जाने का फैसला एक राजनीतिक फैसला था, जो कि कांग्रेस ने आने वाले चुनावों के लिए अपने राजनीतिक बायोडेटा को मज़बूत बनाने के लिए लिया था।
पहले कसाब की फाँसी और उसके बाद अफ़ज़ल गुरू की फाँसी ने बुद्विजीवियों में इस बहस को भी शुरू कर दिया कि फाँसी की सज़ा होनी चाहिए या नहीं। वास्तव में, यह बहस 16 दिसम्बर को दिल्ली सामूहिक बलात्कार और हत्या के मसले के बाद से ही जारी है। कुछ लोगों का मानना है कि फाँसी की सज़ा न सिर्फ़ मानवीय गरिमा के ख़िलाफ़ है, बल्कि सभ्य समाज की अवधारणा के विपरीत खड़ी होती है। इन लोगों का मानना है कि हर मानव जीवन कीमती होता है और अपराध-सम्बन्धी न्याय प्रणाली का मकसद सुधार करना होना चाहिए, बदला लेना नहीं। लेकिन इस पूरे तर्क में यह बात साफ़ है कि हर मानव जीवन कीमती है। लेकिन जिस व्यक्ति ने मानव होने की शर्तें ही खो दी हों, और वह सभ्य समाज के लिए एक पाशविक ख़तरा हो, उसके बारे में भी क्या यह बात कही जा सकती है? 16 दिसम्बर को दिल्ली में चलती बस में एक पैरामेडिकल छात्र के साथ जिस दरिन्दगी और जघन्यता के साथ अपराध हुआ, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है। उस अपराध को अंजाम देने वाले लोग असुधारणीय हैं और हर सभ्य मानव समाज के लिए ख़तरा हैं। ऐसे लोगों के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान हो सकता है। हमारा मानना है कि इस प्रश्न पर किसी निरपेक्षतावादी बुर्जुआ मानवतावादी दृष्टिकोण से विचार नहीं किया जा सकता है।
यहाँ एक और बात ध्यान देने की है। तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुर्जुआ मानवतावादियों आदि के अलावा मृत्युदण्ड का निरपेक्ष तौर पर विरोध करने वालों में तमाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन भी शामिल थे! यह एक चौंकाने वाली बात थी, क्योंकि मृत्युदण्ड के प्रश्न पर यह अवस्थिति कम-से-कम लेनिन की तो नहीं थी। इस पर हम आगे आयेंगे। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि किसी समाजवादी व्यवस्था में भी ऐसे अमानवीय कृत्यों और साथ ही सर्वहारा राज्य के शत्रुओं में ‘दुर्लभ में भी दुर्लभतम’ मामलों में मृत्युदण्ड का प्रावधान हो सकता है। यहाँ सवाल सुधार या प्रतिशोध का है ही नहीं। मृत्युदण्ड का इस क़िस्म का निरपेक्षतावादी, बुर्जुआ मानवतावादी विरोध वर्ग विश्लेषण से ऊपर उठकर किया जाने वाला विरोध है और इस प्रकार का वर्ग-निरपेक्ष अराजकतावादी विरोध किसी मुकाम पर नहीं पहुँच सकता। 1918 की क्रान्ति के बाद समाजवादी रूस में भी मृत्युदण्ड को लेकर बोल्शेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों/मेंशेविकों के बीच और साथ ही स्वयं बोल्शेविकों में भी आपसी बहसें हुईथीं। लेनिन इस मसले पर कहते हैं: “जब हम गोलियों का इस्तेमाल करते हैं (मृत्युदण्ड देने के लिए) तो वे (मेंशेविक) अचानक तोलस्तोयपंथी बन जाते हैं और हमारी कठोरता पर घड़ियाली आँसू बहाते हैं। वे लगता है यह भूल गये हैं कि तमाम गुप्त सन्धियों को अपनी जेबों में छिपाकर किस तरह मज़दूरों के क़त्ले-आम में उन्होंने केरेंस्की को मदद पहुँचायी थी।” लेनिन का मत साफ़ है। वर्ग युद्ध में इस तरह की वारदातों से नहीं बचा जा सकता, न सिर्फ़ युद्ध के मोर्चों पर बल्कि मृत्युदण्ड के मामलों में भी। लेकिन इस सैद्धान्तिक अवस्थिति का यह अर्थ कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि मृत्युदण्ड के प्रति कम्युनिस्टों में कोई अन्धभक्ति है। इसका सिर्फ़ इतना अर्थ है कि सघन वर्ग युद्धों के दौरान दुर्लभ से भी दुर्लभतम मामलों में मृत्युदण्ड दिया जा सकता है, और कम्युनिस्ट इसका निरपेक्ष मानवतावादी विरोध नहीं करते हैं। बोल्शेविकों के व्यवहार से भी यह बात सिद्ध होती है। गृहयुद्ध और पार्टी के भीतर के आपातकाल को छोड़कर सोवियत रूस में मृत्युदण्ड आम तौर पर दुर्लभ था। तमाम मामलों में जिनमें क्रान्तिकारी ट्रिब्यूनलों ने मृत्युदण्ड दिया भी था, उनमें दण्ड को घटाकर कुछ वर्षों की क़ैद में तब्दील कर दिया गया था। इतिहास बताता है कि सोवियत संघ इस मामले में बुर्जुआ जनवादी देशों में सबसे उदार देशों के मुकाबले भी पीछे ही था। हाँ, जो हिस्ट्री चैनल, डिस्कवरी चैनल और नेशनल ज्योग्राफ़िक के कार्यक्रमों को ऐतिहासिक स्रोत मानते हैं, उन्हें हम सहमत नहीं कर सकते।
यहाँ हम एक बार फिर यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि अफ़ज़ल गुरू को फाँसी देना कतई ग़लत था। क्योंकि जितने साक्ष्यों के आधार पर और जिन तर्कों की बिना पर अदालत इस फ़ैसले पर पहुँची कि उसे फाँसी दी जानी चाहिए, उतने साक्ष्यों के आधार पर तो नरेन्द्र मोदी, जगदीश टाईटलर, अमित शाह सरीखे लोगों का भी यही अंजाम होना चाहिए था, और बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस राज्य और व्यवस्था वर्ग पक्षधरता को ज़ाहिर करने के लिए इतना भर ही काफ़ी है। अफ़ज़ल गुरू की फाँसी बुर्जुआ चुनावी राजनीति के सरोकारों के तहत लिया गया एक राजनीतिक फ़ैसला है। बुर्जुआ राज्यसत्ता का पतनशील चरित्र अब इस हद तक गिर चुका है, कि वह अपने चुनावी फायदों के लिए फाँसी की राजनीति कर रही है, ताकि फ़ासीवादी तरीके से भारतीय मध्यवर्गीय जनमानस, या “राष्ट्रीय” जनमानस, को अपने पक्ष में तैयार किया जा सके। इसके ज़रिये एक तीर से कई निशाने लगाये जा रहे हैं। जिस समय देश भर में आम मेहनतकश जनता में महँगाई, ग़रीबी, भ्रष्टाचार आदि के ख़िलाफ़ और भारतीय शासक वर्गों के ख़िलाफ़ गुस्सा भड़क रहा है, उस समय अन्धराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिक फ़ासीवाद और देशभक्ति के मसलों को उठाकर असली मुद्दों को ही विस्थापित कर दिया जाये-यही भारतीय शासक वर्ग की रणनीति है। यही काम भाजपा राम मन्दिर और हिन्दुत्व का मसला भड़काकर अपने तरीके से कर रही है, और कांग्रेस फाँसी की राजनीति करते हुए अपने तरीके से कर रही है। अफ़ज़ल गुरू की फाँसी इसी बात की एक बानगी थी।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2013
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