Table of Contents
मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा, जिसे शर्म आती है ख़ुद को मज़दूर कहने में!
नितिन, दिल्ली
समूचे भारत में व्याप्त कूपमण्डूकता व पिछड़ी संस्कृति की वजह से, जिस घर में बाप-दादों व पुरखों ने कभी स्कूल का मुँह तक न देखा हो। वहाँ अगर खानदान में किसी ने दसवीं कक्षा पास कर ली हो, तो पूरे कुनबे और यहाँ तक की दूर-दराज की रिश्तेदारियों में भी उसकी इज्जत बढ़ जाती है और उसके नबावी ठाठ हो जाते हैं। मैंने जब दसवीं कक्षा पास की, तो मेरी माँ ने बड़े गर्व के साथ कहा ‘बेटा तुम्हीं मेरे प्यारे बेटे हो, पूरे खानदान में सिर्फ़ तुमने ही आज दसवीं पास की है। हम लोग तो नहीं पढ़ पाये, मगर तुम्हें जरूर पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनायेंगे।’ और उसके एक ही साल बाद इन सारे अरमानों पर पानी फिर गया। आर्थिक तंगी इतनी ज़्यादा हो गयी कि आज मेरा पूरा परिवार जिंदगी बसर करने के लिए दिल्ली में मज़दूरी कर रहा है। खैर, बात बिखर रही है। जब तक माँ-बाप के पास पूँजी रहती है, तब तक वो पूरी ताक़त झोंककर पढ़ाते हैं। लेकिन जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो मजबूरी में कहना पड़ता है कि ‘बेटा अब कुछ काम-धन्धा ढूँढ लो।’ लेकिन अब तक जो नवाब साहब थे, अब वो काम कैसे करें! काम करने जायें उनके दुश्मन! ऐेसे में, पढ़े-लिखे मज़दूरों के एक बहुत बड़े हिस्से को यह कहने में शर्म लगती है कि वो ‘मज़दूर’ हैं। वो गाँव में किसी के खेत में काम करने नहीं जाते। किसी का घर बनाने नहीं जाते। और यहाँ तक अपने खेत और अपने घर में भी काम नहीं करते। नौजवानों की यही पीढ़ी दिल्ली-बम्बई जैसे महानगरों का रुख करती है। यहाँ पर भी किसी फ़ैक्टरी में काम करने में इन्हें अपनी बेइज़्ज़ती महसूस होती है, और वे तर्क देते हैं कि ‘जब हमारे बाप-दादों ने किसी की नौकरी नहीं की, तो हम क्यों करें?!’ एक कहावत भी है – ‘चाहे सर पर रखनी पड़े टोकरी, मगर नहीं करेंगे नौकरी!’ मतलब, नौकर नहीं बनेंगे, भले ही फेरी लगानी पड़े।
ऐसे पढ़े-लिखे नौजवानों का यही हाल होता है, और ये आबादी बड़ी ही जल्दी मल्टी-लेवल कम्पनियों के जाल में फँस जाती है। वे जल्द ही एम-वे, मोदी केयर, ऐलोवेरा, ड्यूसॉफ़्ट, युनाइटेड इण्डिया, सहारा इण्डिया, आर.सी.एम., वेस्टीज, परफेक्ट मार्केटिंग सोल्यूशन जैसी सैकड़ों कम्पनियों में से किसी की पढ़ाई-पट्टी में फँसकर अपनी ज़िन्दगी को नर्क की तरफ धकेलने लगते है। और अपनी ज़िन्दगी के तीन-चार साल बर्बाद करने के बाद पता लगता है कि ये सब ढकोसला है। इन बने-बनाए बेवकूफों की जी तोड़ मेहनत के दम पर कम्पनी का नाम होता है और उसके प्रोडक्ट्स का प्रचार फ्री में हो जाता है जिससे कम्पनी को अरबों रुपये का फायदा होता है। मज़दूर अपनी नादानी के चलते मारा जाता है।
इसलिए रास्ता तो सिर्फ़ एक है कि आज मज़दूर वर्ग को अपने ऊपर गर्व होना चाहिए कि हम मज़दूर हैं, किसी के गुलाम नहीं। दुनिया को हम बनाते हैं। पूरी दुनिया को हम चलाते हैं। पूरी दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें हमारा हाथ न लगा हो। मतलब यह है कि हम ही दुनिया के मालिक हैं। हर मज़दूर को यह बात कड़वे सच की तरह समझनी चाहिए और अपनी दुनिया को वापस पाने के लिए हमेशा दिल में तड़प होनी चाहिए क्योंकि हमारी दुनिया पर किसी और का कब्जा है।
मुझे पता है
अब तुम पर ही है निर्भर
तुम्हारे कन्धों पर ही है,
बोझ, जिसे तुम ही ढो सकते हो।
बदल सकते हो तुम,
हाँ, हाँ, तुम ही,
इस अन्धरे को,
प्रकाशमान और नेत्रेत्सव
दुनिया में।
अब समझना होगा तुम्हें,
तुम पीछे नहीं हट सकते,
तुम ही सबसे पीछे हो।
तुम्हें आगे बढ़ता देख
उनकी धुकधुकी बढ़ जाती है,
इसलिए धुत्त करके रखते हैं तुम्हें
भ्रम के नशे में,
वो जानते हैं, जानते हैं वो
समझते हैं और
सबसे अधिक डरते हैं,
वो डरते हैं लाल रंग से,
वो दिखावा करते हैं
न डरने का,
फिर भी डरते हैं वो
तुम्हारी एकता से।
तुम्हें निकलना होगा,
इस धुँधलेपन से, और गिराना होगा,
इस इमारत को
जिसकी नींव में दीमक लगी है,
क्योंकि तुमने ही बनायी है,
सिर्फ़ तुम ही बना सकते हो,
दुबारा।
मुझे पता है,
मुझे पता है तुम बनाओगे,
दुबारा, गिराने के बाद
दीमक लगी इमारत को
और तुम बनाओगे, फिर से,
इस गलीज़, गन्ध मारते समाज को,
नयी नींव के साथ, एक बार फिर।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2013
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन