हम हैं ख़ान के मज़दूर
मुसाब इक़बाल
हम हैं ख़ान के मज़दूर
हमारा इस्तेहसाल इस्तेमार की बुनियाद है!
हमारी तज़लील बादशाहों का ताज है
हर दौर में हम, हर ज़माने में हम
ज़िल्लत हो मस्केनात के तीन खाते रहे
जान जोखिम में डालकर अपनी
तिजोरी गोरों की हर दम भरते रहे
सबह-ए-आज़ादी आयी जब, मुस्कुराये हम
यह सोचकर गोरे आकाओं से मिली है निजात
ज़िन्दगी सुख से होगी बसर अब
लेकिन हम थे बेखबर कि, हमलोग
हैं फक़त ख़ान के मज़दूर
नहीं हक़ हमारा आज़ादी पर है
नहीं हक़ हमारा तरक्क़ी पर है
ख़ून थूकते थे हम हर जश्न में
ख़ून जलाकर सियाही क़बूलते थे हम
खून और सियाही में लिपटे थे हम
ख़ून और सियाही में लिपटे हैं हम!
ज़मीन की तहों से लाये हैं हीरे
ज़मीन की तहों से खींचे खनज
घुट घुट के ख़ानों में हँसते रहे
मुस्कुराये तो आँसू टपकते रहे
ज़मीन की सतह पर आता रहा इंक़लाब
ज़मीन तहों में हम मरते रहे, जीते रहे
शुमाल ओ जुनूब के हर मुल्क में हम
ज़मीन में दब दब के खामोश
होते रहे जान बहक़, लाशों पर अपनी कभी
कोई आँसू बहाने वाला नहीं सतह ए ज़मीन पर हम
एक अजनबी हैं फक़त ज़मीन के वासियों के लिये!
हम हैं खान के मज़दूर
हमारा इस्तेहसाल इस्तेमार की बुनियाद है!
इस्तेहसाल — हासिल, तज़लील — अपमान
शुमाल ओ जुनूब — पूरब और पश्चिम
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