गिनी में तख़्तापलट : निरंकुश सरकारों और सैन्य तानाशाहों के बीच लम्बे समय से पिस रही है अफ़्रीकी जनता
– सार्थक
पश्चिमी अफ़्रीका के देश गिनी में एक बार फिर तख़्तापलट हो गया है। 5 सितम्बर को ‘गिनी विशेष बल’ ने राष्ट्रपति अल्फ़ा कोण्डे को हिरासत में लेते हुए यह ऐलान किया कि देश की हुकूमत अब इनके हाथों में है और अब संविधान रद्द रहेगा। कर्नल मामाडी डौम्बौया, जिसके नेतृत्व में यह तख़्तापलट हुआ है, ने ख़ुद को गिनी का नया राष्ट्रपति घोषित कर दिया है। पिछले एक साल में पश्चिमी अफ़्रीका में यह चौथा सैन्य तख़्तापलट है। सिर्फ़ पश्चिमी अफ़्रीका ही नहीं बल्कि पूरा अफ़्रीकी महाद्वीप ही अपने उत्तर-औपनिवेशिक काल में भयंकर गृहयुद्धों, सैन्य तख़्तापलट और तानाशाह सत्ताओं से जूझता रहा है। 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से समूचे अफ़्रीकी महाद्वीप में दो सौ से ज़्यादा तख़्तापलट की कोशिशें हो चुकी हैं, जिनमें से सौ से ज़्यादा कोशिशें सफल भी रही हैं। गिनी में हुए तख़्तापलट को हम इसी जारी सिलसिले की एक कड़ी के तौर पर देख सकते हैं। हम कह सकते हैं कि गिनी में हुआ यह तख़्तापलट कोई अपवाद या आकस्मिक घटना नहीं बल्कि उत्तर-औपनिवेशिक अफ़्रीकी देशों की एक सामान्य परिघटना है। गिनी में जिन तात्कालिक परिस्थितियों में यह तख़्तापलट हुआ उसकी एक संक्षिप्त चर्चा करना यहाँ ज़रूरी है। साथ ही इसे गिनी के राजनीतिक इतिहास से जोड़ कर देखने की भी आवश्यकता है। इससे हमें गिनी और ज़्यादातर अफ़्रीकी देशों में चल रही राजनीतिक अस्थिरता और तख़्तापलटों के इतिहास को समझने की एक बेहतर पृष्ठभूमि मिलेगी।
अहमद सेकू तुरे के नेतृत्व में गिनी ने 1958 में फ़्रांसीसी साम्राज्य से आज़ादी हासिल की और तुरे आज़ाद गिनी के प्रथम राष्ट्रपति बने। पूँजीवादी विकास के लिए गिनी के समक्ष भी पूँजी और तकनॉलोजी की ज़रूरत की समस्या सामने थी। इसे पूरा करने के लिए तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के ज़्यादातर नव-स्वतंत्र देशों की तरह ही गिनी की भी सोवियत संघ और अमेरिका पर निर्भरता बनी लेकिन इनके बीच की अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का फ़ायदा उठाते हुए दोनों ही महाशक्तियों से मोलभाव करते हुए गिनी पूँजीवादी विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा। लेकिन 1978 तक सेकू तुरे का सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ से विलगाव हो गया और वह अमरीकी-फ़्रांसीसी ख़ेमे की गोद में जा बैठा। इस दौरान ही विश्व पूँजीवाद का आर्थिक संकट गहराने लगा जिसके काले बादल गिनी की अर्थव्यवस्था पर भी मँडराने लगे। इस गहराते आर्थिक संकट ने देश में सामाजिक-राजनीतिक असन्तोष को बढ़ावा दिया। सेकू तुरे का राज धीरे-धीरे एक निरंकुश राज में तब्दील होता जा रहा था और देश में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को बर्बरता से कुचला जा रहा था। 1950-60 के दशकों में अफ़्रीकी मुक्ति संघर्षों के एक सम्मानित नायक रहे सेकू तुरे का शासन 1980 के दशक के शुरू होने तक जनता के बीच एक अप्रिय हुकूमत में बदल जाता है।
इसी जन असन्तोष का फ़ायदा उठाकर 1984 में लानसाना कोन्ते ने पहला तख़्तापलट किया। यह ठीक सेकू तुरे की मृत्यु के एक दिन बाद हुआ। तख़्तापलट के बाद कोन्ते गिनी के दूसरे राष्ट्रपति बनते हैं। कोन्ते की सैन्य जुण्टा ने तख़्तापलट के बाद सेकू तुरे के निरंकुश शासन और मानवाधिकार उल्लंघन की जमकर निन्दा करनी शुरू की। तुरे के द्वारा बन्दी बनाये गये राजनीतिक क़ैदियों को रिहा कर दिया और देश में लोकतांत्रिक सुधार लाने का वायदा किया। लेकिन इन वायदों का प्रगतिशील मुखौटा लम्बे समय तक कोन्ते के असली चेहरे को छुपा नहीं सका और जल्द ही उसकी सैन्य निरंकुशता बेनक़ाब हो गयी। संविधान में संशोधन, चुनावों में धाँधली और रिगिंग और जनता का बर्बर दमन कर 2008 तक कोन्ते राष्ट्रपति बना रहा। 2008 में कोन्ते की मृत्यु के छह घण्टे के भीतर ही सेना प्रमुख दिआरा कामारा के नेतृत्व में सेना ने दूसरे तख़्तापलट की घोषणा कर दी। कामारा ने ख़ुद को नये सैन्य जुण्टा का अध्यक्ष घोषित किया और दो साल के अन्दर चुनाव करवाने व जनवादी सरकार के हाथों में देश की सत्ता सौंपने का वायदा किया। मगर जल्द ही गिनी की आम जनता को यह समझ आ गया कि कोन्ते की तरह किये वायदों के समान ही कामारा के वायदे भी सफ़ेद झूठ हैं। कामारा ने 2010 के चुनावों में धाँधली और रिगिंग कर सत्ता में बने रहने का निश्चय कर लिया था। 28 सितम्बर 2009 को गिनी में ‘28 सितम्बर स्टेडियम’ में कामारा के इस्तीफ़े की माँग करते हुए राजधानी कोनाक्री में हज़ारो-हज़ार लोगों का जन सैलाब उमड़ पड़ा। प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षा बलों ने जिस बर्बर तरीक़े से हमला किया और उनका नरसंहार किया उसे विश्व में उत्तर-औपनिवेशिक काल के बर्बरतम नरसंहारों में गिना जाता है। सुरक्षा बलों की अन्धाधुन्ध फ़ायरिंग के सामने देखते ही देखते हज़ारों लोगों के शवों का ढेर लग गया। महिलाओं को सुरक्षा बलों ने विशेष निशाना बनाया, बन्दूक़ की नोक पर सैकड़ों महिलाओं का बलात्कार किया गया और फिर उन्हें बेरहमी से मार दिया गया। वैसे संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की माने तो क़त्लेआम में मात्र 157 लोगों की ही मृत्यु हुई है लेकिन वहाँ के लोगों और कई स्वतंत्र मानवाधिकार संस्थानों और पत्रिकाओं के अनुसार मरने वालों की संख्या कई हज़ार में है। इतना ही नहीं इस घटना के बाद सैन्य बलों का दमन कुछ दिन और चला। सत्ता में बैठे लोगों को अहसास होने लगा कि जनता का ग़ुस्सा एक बार फिर फूट पड़ेगा जो सिर्फ़ सैन्य जुण्टा के लिए ही ख़तरनाक नहीं होगा बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ख़तरा उत्पन्न कर देगा। इसलिए कामारा को सुरक्षित विदेश भेज दिया गया और देश में आम चुनाव करवा दिये गये।
2010 के चुनाव में अल्फ़ा कोण्डे चौथा राष्ट्रपति चुना गया। चुनाव प्रचार के दौरान और चुने जाने के बाद अल्फ़ा कोण्डे ने भी उन्हीं वायदों का दुहराव किया जैसे पहले के तानाशाह करते आये थे और उन्हीं की तरह ही कोण्डे ने भी जनता की उम्मीदों-आकाँक्षाओं को रौंदना शुरू कर दिया। कोण्डे ने बाहें फैलाकर विदेशी पूँजी निवेश का स्वागत किया। गिनी एक खनिज पदार्थ सम्पन्न देश है, ‘बॉक्साइट’ का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। इसके अलावा देश में लोहे, हीरे, सोने, यूरेनियम आदि के विशाल खदान हैं जिनमें से कईयों में खनन अभी शुरू तक नहीं हुए हैं। सेकू तुरे के समय से ही विदेशी कम्पनियों ने और कुछ निजी तथा सरकारी कम्पनियों ने खनिज पदार्थों का खनन शुरू कर दिया था लेकिन प्राकृतिक सम्पदा के अन्धाधुन्ध दोहन ने अल्फ़ा कोण्डे के शासन में तेज़ गति प्राप्त कर ली। कोण्डे ने दुनिया की सबसे बड़ी माइनिंग कम्पनियों का गिनी में खुले हाथों से स्वागत किया। ये कम्पनियाँ खनिज पदार्थों के दोहन के साथ वहाँ के मज़दूरों का भी भयंकर शोषण कर रही हैं। देशी-विदेशी पूँजीपति वर्ग के आशीर्वाद से ही अल्फ़ा कोण्डे ने 2010 और 2015 के चुनावों में धोखाधड़ी करके जीत हासिल की। गिनी के संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति बनने की अनुमति नहीं है। लेकिन 2019 में अल्फ़ा कोण्डे ने फिर जनमत-संग्रह में धाँधली करके संविधान ही बदल दिया। इस घटना के बाद देशभर में जन आक्रोश सड़कों पर उमड़ पड़ा। इस जनान्दोलन का कोण्डे ने बर्बर दमन किया जिसमें कइयों की मौत हुई लेकिन सरकारी सूत्रों के अनुसार मात्र सौ लोगों की मौत हुई। लम्बे समय से ग़रीबी, भुखमरी, अशिक्षा और क्रूर शोषण-अत्याचार झेल रही जनता के ग़ुस्से पर इस घटना ने ईंधन का काम किया। पिछले दो सालों से जनता कोण्डे के ख़िलाफ बार-बार सड़कों पर उतरती रही है। इस जन आक्रोश का फ़ायदा उठा कर मामाडी डौम्बौया की अगुवाई में सेना ने यह तीसरी बार तख़्तापलट किया है।
मामाडी डौम्बौया भी अपने पूर्ववर्ती सैन्य तानाशाहों का अनुसरण करते हुए जनता से विकास के बड़े-बड़े वायदों के साथ चुनवों का भी वायदा कर रहा है। दस साल से अल्फ़ा कोण्डे की निरंकुश सत्ता को झेल रही गिनी की आम जनता को इस तख़्तापलट से कुछ राहत की उम्मीद है। लेकिन गिनी के इतिहास से यह साफ़ है कि अतीत के सैन्य जुण्टाओं की तरह मामाडी डौम्बौया के लोकतांत्रीकरण और आर्थिक विकास के सारे दावे भी ढकोसले ही होंगे। डौम्बौया ने घोषणा कर दी है कि उसकी जुण्टा देशी-विदेशी पूँजी के हित की पूरी रक्षा करेगी। मज़दूर वर्ग के हितों और पूँजीपति वर्ग के हितों की एक साथ रक्षा करने की घोषणा मज़दूर-मेहनतकश वर्ग को दिया गया एक छलावा है। स्पष्ट है कि यह जुण्टा भी सेकू तुरे, कोन्ते, कमारा और अल्फ़ा कोण्डे की तरह ही पूँजीपतियों की सेवा करेगी और मज़दूर-मेहनतकश आबादी की ग़रीबी, बदहाली और शोषण बदस्तूर जारी रहेंगे। असल में ज़्यादा सम्भावना इस बात की है कि मामाडी डौम्बौया की जुण्टा उन सबसे ज़्यादा निरंकुश साबित होगी। विश्व पूँजीवादी संकट के तीव्रतर होने के साथ तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में ज़्यादा निरंकुश सरकारें और ज़्यादा बर्बर सैन्य जुण्टाएँ सत्ता में क़ाबिज़ होंगी। अपने मुनाफ़े की गिरती दर को बढ़ाकर संकट से मुक्ति पाने की उम्मीद में पूँजीपति वर्ग इन निरंकुश सरकारों और सैन्य जुण्टाओं को पूरा समर्थन देगी। गिनी के दो पड़ोसी मुल्क – चाड और माली में इसी साल तख़्तापलट हुआ। फ़्रांस और बाक़ी साम्राज्यवादी देशों ने प्रतिरोध में कुछ ज़बानी जमाख़र्चभर किया और फिर बाद में सैन्य जुण्टाओं के साथ सामान्य रिश्ते क़ायम कर लिये। गिनी की नयी जुण्टा के ख़िलाफ़ भी फ़्रांस, चीन, रूस, अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों का कोई विरोध नहीं दिख रहा है। स्पष्ट है कि कुछ दिनों में इसे भी मान्यता दे दें। यह समझा जा सकता है क्योंकि इस प्रकार की सैन्य तानाशाहियाँ आम तौर पर साम्राज्यवादी देशों की पूँजी को अपने देश की प्राकृतिक सम्पदा और श्रमशक्ति का जमकर दोहन करने का अवसर देती हैं।
यहाँ हमें यह भी याद रखना होगा कि अपनी आज़ादी के बाद राजनीतिक उथल-पुथल के जिस दौर से गिनी गुज़रा है उस दौर से अफ़्रीका के ज़्यादातर देश गुज़रे हैं। गिनी की तरह ही अफ़्रीका के ज़्यादातर देश निरंकुश सरकारों और सैन्य जुण्टाओं के बीच पेण्डुलम की तरह झूलते रहते हैं। अफ़्रीका में खनिज पदार्थों और प्राकृतिक संसाधनों का अकूत भण्डार होने की वजह से साम्राज्यवादी ताक़तों की आर्थिक हितों के लिए वहाँ मौजूदगी रही है। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटने के लिए साम्राज्यवादी ताक़तें पिछले लम्बे समय से अफ़्रीका में कई नृशंस तानाशाहों को समर्थन देती रही हैं और आगे भी देती रहेंगी।
हम इतना ही कह सकते हैं कि गिनी और अफ़्रीका के ज़्यादातर देशों के मज़दूर और मेहनतकश लम्बे समय से जिस तानाशाही का सामना कर रहे हैं और बार-बार इन तानाशाहों से उम्मीद लगाते हैं वह इसलिए क्योंकि वहाँ मज़दूर-मेहनतकश वर्ग का अपना कोई मज़बूत स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष उभरता नहीं दिख रहा है। इन तानाशाहों से उम्मीद लगाने की जगह वहाँ की मेहनतकश जनता को अपने स्वतंत्र राजनीतिक नेतृत्व और आन्दोलन को विकसित करने के प्रयास करने होंगे।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021
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