फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र की एक आरम्भिक रिपोर्ट
– सार्थक, लता
आज़ादी के बाद 1949 से फ़रीदाबाद को एक औद्योगिक शहर की तरह विकसित करने का काम किया गया। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय शरणाथिर्यों को यहाँ बसाया गया था। उस दौर से ही यहाँ छोटे उद्योग-धन्धे विकसित हो रहे थे। जल्द ही यहाँ बड़े उद्योगों की भी स्थापना हुई और 1950 के दशक से इसका औद्योगीकरण और तीव्र विकास आरम्भ हुआ। मुग़ल सल्तनत के काल से ही फ़रीदाबाद दिल्ली व आगरा के बीच एक छोटा शहर हुआ करता था। आज की बात की जाये तो फ़रीदाबाद देश के बड़े औद्योगिक शहरों में नौवें स्थान पर है। फ़रीदाबाद में 8000 के क़रीब छोटी-बड़ी पंजीकृत कम्पनियाँ हैं। यहाँ मुख्य रूप से भारी मशीन, हल्की मशीन, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, आयरन प्रोसेसिंग, रबड़, टेक्सटाइल, केमिकल व पैकेजिंग उद्योग हैं। बड़ी कम्पनियों में यहाँ जेसीबी, लखानी, एस्कॉर्ट, ऐस, गुडइयर, ओरियण्ट आदि हैं। उद्योगों का एक बड़ा हिस्सा बड़ी ऑटोमोबाइल कम्पनियों की वेण्डर कम्पनियों का है। ये वेण्डर कम्पनियाँ मारुति, होण्डा, बजाज, ह्युण्डाई, टाटा, आइशर जैसे बड़ी कम्पनियों के छोटे-बड़े पुर्जे़ सप्लाई करती हैं।
मज़दूरी की हालत
कोरोना के दो लॉकडाउन के दौरान जिस तरह छँटनी और तालाबन्दी की मार ने मज़दूरी को प्रभावित किया है उससे फ़रीदाबाद भी किसी भी रूप में अछूता नहीं है। यहाँ अधिकतर कम्पनियों ने मज़दूरों की संख्या आधी या उससे भी कम कर दी है। मज़दूरी घटा दी गयी है और काम के घण्टे बढ़ गये हैं। अक्सर बड़ी औद्योगिक इकाइयों में उजरत की स्थिति छोटी इकाइयों की तुलना में थोड़ी बेहतर होती है। फ़रीदाबाद औद्योगिक शहर के बीचों-बीच स्थित सेक्टर 6, सेक्टर 24, सेक्टर 25, सेक्टर 58, 59 आदि में कम्पनियाँ अपेक्षाकृत बड़ी हैं। यहाँ ज़्यादातर कम्पनियों में डेढ़ सौ से ज़्यादा मज़दूर काम करते हैं। इनमें से जेसीबी, एस्कॉर्ट्स, ऐस, गुड ईयर, ओरियण्ट, शिवालिक, लखानी जैसे कुछ बड़ी कम्पनियाँ भी हैं जहाँ हज़ार से ऊपर मज़दूर काम करते हैं। औसतन इस कम्पनियों में हेल्परों को आठ से साढ़े नौ हज़ार, ऑपरेटरों को दस से बारह हज़ार और टेक्नीशियनों को चौदह से सोलह हज़ार तनख़्वाह मिलती है। छोटी कम्पनियाँ मज़दूरी भी कम देती हैं और काम के घण्टे भी अधिक रखती हैं। सरूरपुर, नंगला, गाज़ीपुर मुख्य फ़रीदाबार शहर से 10 से 12 किलोमीटर की दूरी पर हैं। इन इलाक़ों में छोटी कम्पनियाँ हैं। यहाँ औसत एक फ़ैक्टरी में 30 से 40 मज़दूर काम करते हैं। इन कम्पनियों में मज़दूरी कम होती है और काम के घण्टे अधिक। इन कम्पनियों में प्रति माह हेल्परों को छः से आठ हज़ार और ऑपरेटरों को आठ से दस हज़ार तक ही मिलते हैं। फ़रीदाबाद मुख्य शहर से सात-आठ किलोमीटर दूर दिल्ली मथुरा हाइवे पर स्थित पृथला अभी औद्योगिक क्षेत्र की तरह विकसित हो रहा है। हालाँकि यहाँ बड़ी कम्पनियों की बड़ी इकाइयाँ हैं इसके बावजूद मज़दूरी कम है। इनमें हेल्परों को औसतन 7 से 8 हज़ार और ऑपरेटरों को 9 से 10 हज़ार रुपये मिलते हैं। जब बात आती है औरतों की तो हर जगह पुरुषों की तुलना में मज़दूरी कम और काम की परिस्थितियाँ ज़्यादा दुरूह हैं। सरूरपुर, नंगला, गाज़ीपुर में महिला मज़दूरों को मात्र छः से सात हज़ार ही मिलता है। नंगला व गाज़ीपुर के मज़दूरों का कहना है कि कई कम्पनियाँ ऐसी भी हैं जो दो-दो महीने तक वेतन नहीं देती हैं। पृथला के मज़दूरों का कहना है कि “उन्हें एक ग्रेड पीछे दिया जाता है”, यानी अर्धकुशल मज़दूर को अकुशल मज़दूर की मज़दूरी दी जाती है और कुशल मज़दूर को अर्धकुशल मज़दूर की मज़दूरी मिलती है।
यहाँ की कई कम्पनियों में तीन तरीक़े का पेमेण्ट सिस्टम काम करता है। कुछ मज़दूरों को ‘पीस रेट’ पर रखा जाता है, कुछ को दिहाड़ी पर और कुछ महीने का वेतन पाते हैं। मज़दूरों की यह तीन श्रेणियाँ अस्थायी मज़दूरी के अन्तर्गत आती हैं। इन तीनों में ‘पीस रेट’ और दिहाड़ी पर काम करने वालों का शोषण सबसे भयंकर होता है और साथ ही काम छूटने की तलवार इन पर लगातार लटकती रहती है। महीने में कुछ दिन काम मिलते हैं कुछ दिन नहीं। कभी-कभी तो आधे दिन में ही काम से बाहर कर दिये जाते हैं। ठेकाकरण व कैज़ुअलाइज़ेशन के इस रक्तपिपासु रूप से पूँजीपति वर्ग बेहद प्रभावी तरीक़े से बिना किसी सुरक्षा का भार उठाये मज़दूर का क़तरा-क़तरा निचोड़ता है। इस तरह अलग-अलग श्रेणियों में बाँट कर उसके मोलभाव की शक्ति कमज़ोर करता है। यह सब उसके वर्ग के तौर पर संगठित होने की प्रक्रिया में अड़चन पैदा करता है।
बोनस और ओवरटाइम का जो क़ानूनी अधिकार मज़दूरों ने किसी ज़माने में लड़ कर लिया था वे अधिकार काग़ज़ पर ही रह गये हैं (चार लेबर कोड के ज़रिए मोदी सरकार उन्हें काग़ज़ से भी मिटाने के लिए आतुर है)। दो-तीन कम्पनियों को छोड़ कर किसी भी कम्पनी के मज़दूर को न ही बोनस मिलता है और न ही डबल रेट पर ओवरटाइम। कई कम्पनियाँ ऐसी हैं जो छः महीने के बाद पुराने मज़दूरों को निकाल कर नये मज़दूरों को रख लेती हैं ताकि उन्हें स्थाई न बनाना पड़े और पीएफ़ जैसी सुविधाएँ न देनी पड़ें।
सिंगल रेट से मिलने वाले ओवरटाइम में भी भयंकर धाँधली होती है। ठेकेदार मज़दूरों के खाते में महीने में दो-तीन घण्टे ओवरटाइम कम दिखाते रहते हैं और अपनी जेब गर्म कर लेते हैं। यह धाँधली खुले तौर पर होती है।
काम की स्थिति
देश के सभी असंगठित औद्योगिक क्षेत्रों की तरह ही फ़रीदाबाद में भी मज़दूर भयंकर असुरक्षित स्थिति में काम करते हैं। ज़्यादातर कम्पनियाँ मज़दूरों को जूते, दस्ताने, मास्क या हेलमेट नहीं देतीं। जिन कम्पनियों ने जूता पहनना अनिवार्य रखा है ऐसी कम्पनियाँ भी मज़दूरों को जूते नहीं देतीं। कुछ कम्पनियों-कारख़ानों के अन्दर दुर्घटना की स्थिति में चिकित्सीय देखरेख व अन्य उचित क़दम उठाने की थोड़ी-बहुत व्यवस्था होती है। बाक़ी कम्पनियों के बारे में यही कहा जा सकता है कि जो जूते तक न दे उनसे एम्बुलेंस की क्या ही उम्मीद की जाये। आये दिन कम्पनियों में किसी न किसी दुर्घटना की चपेट में मज़दूर आते रहते हैं। फ़रीदाबाद और पलवल के बीच स्थित पृथला में काम की स्थिति और भी बदतर है। पृथला की फ़ैक्टरियों में दुर्घटनाएँ एक आम बात है। मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाते हैं और कम्पनी उन्हें अस्पताल तक ले जाने तक का इन्तज़ाम नहीं करती। कटे हाथ या कटी उंगली लेकर मज़दूर इन्तज़ार में रहते हैं कि कोई उन्हें अस्पताल पहुँचा देगा। दुर्घटना के बाद कम्पनी प्रबन्धन मुआवज़ा और इलाज के बारे में ज़ुबानी जमा ख़र्च कर मुद्दे को दबा देता है। इलाज का ख़र्च मज़दूरों को ख़ुद ही उठाना पड़ता है। मज़दूर जब काम पर वापस लौटता है तो ठेकेदार और प्रबन्धन काम देने से साफ़ इन्कार कर देते हैं। अगर भूले-भटके रख भी लेते हैं तो काम के दौरान इस क़दर प्रताड़ित करते हैं कि तंग आकर मज़दूर ख़ुद ही नौकरी छोड़ दे। दुर्घटनाओं की गम्भीरता और बढ़ती संख्या साफ़ दिखलाती है कि फ़ैक्टरियों के अन्दर सुरक्षा की कितनी बदइन्तज़ामी है। ‘कारोबार में सहूलियत’ के नाम पर सीधे-सीधे मुनाफ़े की वेदी पर मज़दूरों की बलि चढ़ायी जा रही है।
अब कई कम्पनियाँ फ़रीदाबाद शहर से बाहर जा रही हैं। प्रशासन और सरकार का कहना है कि फ़रीदाबाद ‘स्मार्ट सिटी’ बनने जा रहा है इसलिए कम्पनियों को यहाँ से दूसरी जगह भेजा जा रहा है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि कम्पनियाँ ख़ुद फ़रीदाबाद के बाहर जाना चाहती हैं। कम्पनियों के शहर की सीमा की ओर पलायन की एक अहम वजह है – ऐसी जगह की तलाश जहाँ नियम-क़ानूनों की परवाह किये बगै़र ताबड़-तोड़ मुनाफ़ा कमाया जा सके। वहीं दूसरी वजह है फ़रीदाबाद के मज़दूरों के संघर्ष का इतिहास। हालाँकि आज फ़रीदाबाद में मज़दूर आन्दोलन एक विपर्यय की स्थिति से गुज़र रहा है लेकिन बीते सालों में फ़रीदाबाद जुझारू मज़दूर आन्दोलनों का साक्षी रहा है। आज भी उन संघर्षों से हासिल कई अधिकार हैं जो छिन तो रहे हैं लेकिन जिन्हें एक झटके में समाप्त करना सम्भव नहीं है। इसके अलावा उस दौर को जीने वाले मज़दूरों की यादों में बीते वर्षों के संघर्षों की कामयाबी और नाकामयाबी की बातें ताज़ा हैं। यह पीढ़ी अपनी युवा पीढ़ी को इस इतिहास से अवगत कराती है। लेकिन पृथला, नंगला, डबुआ जैसे नये बसे औद्योगिक इलाक़ों में मज़दूरों की सामूहिक स्मृति में मज़दूर आन्दोलन की कोई याद या कोई मिसाल नहीं है। यह मज़दूर आबादी संघर्ष से प्राप्त अधिकारों और संघर्ष के इतिहास से पूरी तरह कटी हुई आबादी है।
कुछ भयंकर दुर्घटनाएँ जिनके ख़बर बनने से पहले सबूत तक मिटा दिये गये
कम्पनियाँ चाहे बड़ी हों या छोटी, सुरक्षा इन्तज़ाम में भारी लापरवाही की क़ीमत फ़रीदाबाद के मज़दूरों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। मज़दूरों का कहना है कि 2009 में सेक्टर 24 में बनी लखानी फ़ुटवेयर्स की एक फ़ैक्टरी में एक भीषण आग लगी जिसमें लगभग 700 मज़दूर जल कर मर गये। मगर अख़बारों और न्यूज़ चैनलों ने बात को दबाते हुए बस नौ लोगों के मरने की पुष्टि की। इस तरह की दुर्घटनाओं की रिपोर्टिंग के समय पूँजीवादी हितों की सेवा करने वाले सारे अख़बार और न्यूज़ चैनल “निष्पक्ष पत्रकारिता” का चोगा उतारकर मज़दूरों की लाशों पर व्यापार करते हैं। 700 मज़दूरों को मौत की घाट सुलाने वाले लखानी के मालिक को पुलिस, जेल और कोर्ट किसी का भी सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन इसी मालिक के कहने पर पुलिस ने मरे मज़दूरों के परिजनों पर लाठी चलवायी। मज़दूरों का कहना है कि इसी तरह 2012 में शिवालिक प्रिण्ट्स लिमिटेड में एक बॉयलर फटने से कई मज़दूर जल कर मर गये। मगर शिवालिक ने इस पूरे मुद्दे को इस तरह दबाया कि आज तक इसकी कोई चर्चा किसी ऑनलाइन प्लेटफ़ार्म पर भी नहीं मिलती है। इसी से मज़दूरों को यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि पुलिस, प्रशासन से लेकिर सभी नेता और जज पूँजीपतियों की सेवा में लगे हैं। अपने पैसे से ये अख़बार और न्यूज़ चैनल ख़रीदते हैं जो वही दिखाते और बताते हैं जो पूँजीपतियों के हित में होता है।
छुट्टियों की बात करें तो मुख्य फ़रीदाबाद में स्थित बड़ी कम्पनियाँ तो सरकारी छुट्टियों में छुट्टी दे दिया करती हैं मगर सरूरपुर, नंगला, गाज़ीपुर की छोटी कम्पनियाँ और पृथला की कम्पनियाँ सरकारी छुट्टियों में भी मज़दूरों को काम करने के लिए मजबूर करती हैं। कोई मज़दूर अगर बिना बोले छुट्टी करता है तो तीन-चार दिन तक उसे काम पर लेते ही नहीं हैं। कम वेतन, न बोनस, न ओवरटाइम, ठेकेदारों की धाँधली, सुरक्षा इन्तज़ामों की अनदेखी के अलावा काम की सघनता को बढ़ा कर मुनाफ़े को बढ़ाया जाता है। हेलमेट बनाने वाली स्टड, मोटर बनाने वाली पीआईसीएल और इम्पीरियल ऑटो में काम कर चुके सागर बताते हैं कि उनके पुराने कार्यस्थलों में प्रबन्धन ने जानबूझकर असेम्बली लाइन को ज़्यादा तेज़ कर दिया था ताकि काम की सघनता बढ़ जाये। यानी उतने ही समय में ज़्यादा काम। सागर जैसे हज़ारों मज़दूरों को रात में भी बारह घण्टे खड़े होकर असेम्बली लाइन पर काम करना होता है। कम्पनी में बस आधे घण्टे का लंच ब्रेक और दस मिनट का चाय ब्रेक होता है। मज़दूरों को अपना सारा काम इसी दौरान भागते हुए करना पड़ता है और वापस असेम्बली लाइन पर ब्रेक ख़त्म होने तक लौटना होता है। लेट होने पर सुपरवाइज़र और ठेकेदार की डाँट सुननी पड़ती है और मज़दूरी कट जाने का भी ख़तरा होता है। साथ ही मज़दूरों को और ज़्यादा बाँटने के लिए कम्पनियाँ एक ठेकेदार नहीं बल्कि सात-आठ ठेकेदारों को नियुक्त करती हैं। ठेकेदार स्थानीय मज़दूरों को कम नियुक्त करते हैं क्योंकि लोकल मज़दूरों के पास प्रवासी मज़दूरों की तुलना में ज़्यादा मोलभाव की शक्ति होती है और वे अन्यायपूर्ण आदेशों का बहुत हद तक विरोध भी करते हैं।
जेसीबी, एस्कॉर्ट्स आदि कुछ बड़ी कम्पनियों को छोड़ दिया जाये तो फ़रीदाबाद में किसी भी कम्पनी में कोई यूनियन नहीं है। जिन बड़ी कम्पनियों में यूनियनें हैं वे यूनियनें सिर्फ़ प्रबन्धन के हित साधने का ही काम करती हैं। यूनियन चुनावों में केवल स्थाई मज़दूरों को ही मतदान करने का हक़ देती हैं। इससे ठेका मज़दूरों की एक बड़ी आबादी अपने प्रतिनिधि चुनने के जनवादी हक़ से वंचित रह जाती है। मज़दूरों से बातचीत के दौरान सभी ने यह माना कि पुरानी फ़ैक्टरी-आधारित यूनियनें आज फ़ैक्टरियों के छोटे होते आकार और तेज़ी से समाप्त होते श्रम क़ानूनों की स्थिति में निष्प्रभावी-सी हो गयी हैं। आज के दौर में इलाक़ाई और पेशा-आधारित नये तरीक़े की यूनियन बनाने की ज़रूरत को मज़दूरों ने स्वीकार किया। साथ ही पुराने मज़दूरों में संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की समझौतापरस्ती और मौक़ापरस्ती से भी काफ़ी असन्तोष है।
रिहायश की स्थिति
फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र में संजय कॉलोनी, सुभाष कॉलोनी, राजीव कॉलोनी, भगत सिंह कॉलोनी, सिही गाँव आदि मज़दूरों के रिहायशी इलाक़े हैं। इन इलाक़ों में छोटे-छोटे कमरों में दो, तीन या चार मज़दूर साथ रहते हैं। कई मज़दूर अपने पूरे परिवार के साथ इन छोटे-छोटे सीलन-भरे अँधेरे कमरों में रहते हैं। कम्पनी में कमरतोड़ श्रम कर लौटने के बाद उन्हीं बिना खिड़की, बिना हवा वाले बन्द कमरों में मज़दूर खाना भी पकाते हैं। इन छोटे माचिस के डिब्बे जैसे कमरों में न सूरज की रोशनी आती है और न हवा। कम वॉट के बल्ब में मज़दूर खाना पकाता-खाता है, छुट्टी के दिन मोबाइल पर कुछ देखकर अपना मनोरंजन कर लेता है। उसी ढिबरी-सी रोशनी में उसके बच्चे पढ़ाई भी करते हैं। अक्सर एक मंज़िल पर 10 से 15 कमरे बने होते हैं और इतने कमरों पर एक या दो सामूहिक शौचालय और स्नानघर। कमरों के बाहर लाइन से पानी भर कर बाल्टियाँ रखी होती हैं क्योंकि पानी निर्धारित सीमित समय के लिए ही आता है। इन मकानों के कमरों का किराया दो से ढाई हज़ार रुपये होता है। मकानमालिक अपनी मर्ज़ी के अनुसार आठ-नौ-दस रुपये प्रति यूनिट बिजली का बिल लेता है। मज़दूरों को नहाने-धोने के पानी के लिए भी सौ-दो सौ रुपये देने पड़ते हैं और पीने का पानी ख़रीदना होता है।
घर का किराया, बिजली और पानी का पैसा देने के बाद मज़दूरी का बड़ा हिस्सा खाने-पीने के सामान और गैस सिलिण्डर में जाता है। कई मकानमालिक मकान में ही किराने की दुकान खोल लेते हैं और किरायेदारों को वहाँ से ही समान लेने के लिए मजबूर करते हैं। मज़दूरों के रिहायशी इलाक़ों की सँकरी गलियों में थोड़ी-सी बारिश होने के बाद कई दिनों तक पानी जमा रहता है। इन इलाक़ों में नगर निगम की तरफ़ से साफ़-सफ़ाई भी नहीं होती है। मज़दूर इलाक़ों के साथ नगर निगम का सौतेला व्यवहार सिर्फ़ साफ़-सफ़ाई ही नहीं बल्कि हर पहलू में दिखता है। किसी मध्य वर्ग के रिहायशी इलाक़े में अच्छी, साफ़-सुथरी सड़कें होती हैं, रास्तों के किनारे पेड़ और जगह-जगह पार्क दिखते हैं तो वहीं दूसरी ओर मज़दूर इलाक़ों में गन्दी और धूल और कीचड़ से भरी सड़कें जिसके दोनों ओर गन्दी नालियाँ बज-बजा रही होती हैं। गन्दगी और जमा हुए पानी की वजह से ही फ़रीदाबाद में डेंगू अभी तेज़ी से बढ़ रहा है जिसकी मार भी सबसे ज़्यादा मज़दूर-मेहनतकश आबादी पर ही पड़ रही है। सरकारी अस्पतालों में टेस्टिंग किट ख़त्म हो गयी हैं और लोगों को मजबूरन प्राइवेट अस्पतालों में कई गुना ज़्यादा पैसे पर टेस्ट कराना पड़ रहा है। इसके अलावा अस्पतालों में ख़ून की भी भारी कमी है और मरीज़ों के परिवारों को दिल्ली से प्लेटलेट्स बढ़ाने के लिए ख़ून का इन्तज़ाम करना पड़ रहा है।
2020 में स्वच्छ सर्वेक्षण के अनुसार फ़रीदाबाद देश के दस सबसे गन्दे शहरों में शामिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार फ़रीदाबाद की हवा सुरक्षित स्तर से पच्चीस गुना ज़्यादा दूषित है। इस रिपोर्ट के अनुसार फ़रीदाबाद दुनिया का दूसरा सबसे प्रदूषित शहर बन गया है। फ़रीदाबाद की मेहनतकश जनता न केवल अपने कार्यस्थल पर जानलेवा गैस और रसायनों से घिरी होती है बल्कि फ़ैक्टरी के बाहर भी उसे धूल, ज़हरीली हवा और गन्दा पानी ही मिलता है।
हम कह सकते हैं कि देश के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों की तरह ही फ़रीदाबाद भी सरकार और पूँजीपति वर्ग के गठजोड़ से मज़दूरों को मुनाफ़े की चक्की में झोंक देता है। फ़ैक्टरी के बाहर जीने के लिए घोर अमानवीय स्थिति बनाता है ताकि उनके अन्दर कुछ बेहतर, रचनात्मक सोचने की न तो ऊर्जा बचे न उमंग। और वे मशीन में काम करते हुए बस एक मशीन बनकर रह जायें।
नोट : फ़रीदाबाद के सम्बन्ध में यह एक आरम्भिक रिपोर्ट है। यह रिपोर्ट इलाक़े में सर्वे और मज़दूरों से बातचीत के आधार पर तैयार की गयी है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2021
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