अम्बेडकरनगर की जर्जर चिकित्सा व्यवस्था हर साल बनती है सैकड़ों मौतों की वजह

आज़ादी के सात दशक से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। इन वर्षों में तमाम चुनावबाज़ पार्टियाँ सत्ता में आ चुकी हैं और सभी ने अपनी और अपने आक़ाओं – बड़े-बड़े अमीरज़ादों की तिजोरियाँ भरने का काम किया है। हर बार नये-नये नारों और वायदों के बीच हमारी असली समस्याओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार, मज़दूरी आदि को ग़ायब कर दिया जाता है और जाति-धर्म का खेल खेला जाता है। केन्द्र और राज्य की सत्ता में बैठी फ़ासीवादी भाजपा कभी राष्ट्रवाद का जुमला उछालकर तो कभी रामराज्य के नाम पर वोट वैंक की राजनीति करती है। लेकिन देश बनता है देश में रहने वाले लोगों से। और इसमें भी आम मेहनतकश अवाम 80 फ़ीसदी से भी ज्‍़यादा है, जो कि देश की समूची सम्‍पदा का उत्‍पादन करती है, कल-कारख़ानों से लेकर खेतों-खलिहानों और खानों-खदानों तक में अपना हाड़ गलाती है। आज हमारे देश की मेहनत-मज़दूरी करने वाली आबादी को भोजन, शिक्षा स्वास्थ्य, आवास जैसी बुनियादी चीज़ें मुहैया नहीं हैं। देशभर में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति की सच्चाई कोरोना महामारी के दौर में सामने आ गयी। देशभर में आबादी की तुलना में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर हैं।

अम्बेडकरनगर की बदहाल सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था

उत्तर प्रदेश के अम्बेडकरनगर ज़िले में स्वास्थ्य सुविधाएँ केवल काग़ज़ों पर हैं और हाकिमों के दावों तक ही सिमटी हुई हैं। ज़िले की लगभग 30 लाख की आबादी पर केवल 1 ज़िला अस्पताल व 1 महिला अस्पताल है। औसतन सवा तीन लाख लोगों पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है और एक लाख की आबादी पर केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। सरकारी मानकों के हिसाब से भी चला जाये तो हर एक लाख की जनसंख्या पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर 30 हज़ार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होना चाहिए। सरकारी चिकित्सा तंत्र की बदहाली का आलम यह है कि जि़ले के 28 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में से 15 ऐसे हैं जहाँ एक भी चिकित्सक नहीं है! ये सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र फ़ार्मासिस्टों के भरोसे संचालित हो रहे हैं। एक तरफ़ तो ज़‍िले में अस्पतालों की संख्या ही बहुत कम है। ऊपर से जो हैं भी, उनमें से अधिकांश में 50 प्रतिशत से ज्‍़यादा डॉक्टरों के पद ख़ाली पड़े हैं। वीटी सीएचसी में डॉक्टरों के 6 स्वीकृत पदों के मुक़ाबले केवल 3 डॉक्टर हैं। वहीं कटहेरी में 8 डॉक्टरों की जगह केवल एक डॉक्टर की तैनाती है। भियाव और जहाँगीरगंज में आधे से ज़्यादा डॉक्टरों के पद ख़ाली पड़े हैं। जलालपुर का महिला अस्पताल समाजवादी पार्टी के कार्यकाल में निर्मित किया गया और वोट बटोरने के लिए बिना किसी मेडिकल स्टाफ़ के ही अस्पताल का संचालन शुरू कर दिया गया।
स्वास्थ्य सुविधाओं में आमूलचूल परिवर्तन करने और सभी को बेहतर स्वास्थ्य मुहैया कराने का जुमला उछालकर 2017 में योगी सरकार सत्तासीन हुई लेकिन इन पाँच सालों में एक भी मेडिकल स्टाफ़ की भरती नहीं की गयी। तहसील क्षेत्र आलापुर के 472 गाँवों के लिए रामनगर और जहाँगीरगंज में केवल दो सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और कमालपुर पिकार, कम्हरियाघाट, नारियाँव, लखनी पट्टी, मकरही एवं माडरमऊ में कुल 6 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। मतलब 236 गाँवों पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और 79 गाँवों पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। पीएचसी को छोड़िए, ज़िले में बने सीएचसी भी केवल रेफ़र करने का काग़ज़ तैयार करने के काम आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुताबिक़ हर 300 की आबादी पर एक नर्स होनी चाहिए लेकिन देश में लगभग 700 पर एक नर्स है और ज़िले में लगभग 50,000 की आबादी पर एक नर्स है। ज़्यादातर लोग इलाज के लिए आस-पास के झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर हैं। इसकी वजह से लोग आये दिन छोटी-छोटी बीमारियों से मरते रहते हैं। इन सरकारी अस्पतालों में न तो जाँच के उपकरण हैं और न ही लोगों के लिए ठीक से दवाओं की व्यवस्था है। ईसीजी, अल्ट्रासाउण्ड, सीटी स्कैन की बात तो छोड़ दीजिए, ख़ून की जाँच और एक्स-रे की सुविधा भी इन अस्पतालों में नहीं है। लोगों को छोटी-छोटी बीमारियों के इलाज और जाँच के लिए अक़बरपुर और आज़मगढ़ में खुले प्राइवेट अस्पतालों और पैथोलॉजी में जाना पड़ता है। पूरे इलाक़े में बच्चों के लिए कोई अस्पताल नहीं होने की वजह से 5 वर्ष से कम उम्र के हर 1000 बच्चों में से 81 बच्चों की मौत हो जाती है, जबकि पूरे देश में यह आँकड़ा प्रति 1000 में लगभग 4 का है। 1991 में निजीकरण की नीतियों के लागू होने के इन तीन दशकों के दौरान गाँवों से लेकर क़स्बों और शहरों तक प्राइवेट अस्पतालों का एक विराट तंत्र खड़ा हुआ है जिसका एकमात्र मक़सद लोगों की बीमारियों से फ़ायदा उठाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटना है। इस दौर में अस्पतालों के साथ ही प्राइवेट क्लीनिक, पैथोलॉजी, फ़ार्मेसी आदि का भी एक ताना-बाना खड़ा हुआ है जो ग़रीबों को चूस-चूसकर फल-फूल रहा है। बहुत-से लोगों को अपने परिजनों को बचाने के लिए गाँव के धनी किसानों, सूदख़ोरों से क़र्ज़ लेना पड़ता है और वे लोग आजीवन इनके क़र्ज़ के तले पिसते रहते हैं। ज़मीन, जानवर, गहने या ज़रूरी सामानों को बेचकर भी क़र्ज़ से मुक्ति नहीं मिलती है।

पूँजीवादी सरकारों का आम मेहनतकश जनता के लिए चिकित्सा सुविधाओं के प्रति उपेक्षा का रवैया

कोरोना महामारी के दौरान लाखों लोगों की जान सिर्फ़ इसलिए चली गयी क्योंकि उन्हें समय पर आक्सीजन, दवाएँ और इलाज नहीं मिल पाये। आज़ादी के बाद से ही विभिन्न चुनावी मदारियों ने वर्तमान समय तक आते-आते सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को इस क़दर मुनाफ़े की भेंट चढ़ाया और बर्बाद किया है कि कोरोना महामारी से पहले भी लोगों को सरकारी ढाँचे के अन्दर ढंग की चिकित्सा सुविधा मिल पाना मुश्किल था, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान लचर स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था के कारण जिस क़दर लाखों लोगों की जानें गयीं, वह भयावह था।
आज़ादी के ठीक पहले बनी भोरे कमेटी ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की एक विस्तृत योजना तैयार की थी, जिसमें पूरी आबादी को नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करने का प्रावधान था। परन्तु आज़ादी के बाद इस कमेटी की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। इतना ही नहीं संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा था, परन्तु संविधान सभा का बहुमत इसके ख़िलाफ़ था! इसीलिए संविधान में स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार के अध्याय में नहीं बल्कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों वाले अध्याय में रखा गया, जो कि जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है क्‍योंकि इन नीति-निर्देशक सिद्धान्‍तों को लागू करने के लिए सरकार की कोई जवाबदेही जनता के प्रति नहीं होती। इन दो घटनाओं से समझा जा सकता है कि आज़ादी के बाद से ही जन स्वास्थ्य के प्रति देशी हुक्मरानों का रवैया कितना उपेक्षापूर्ण रहा है। 2014 के बाद सत्ता में आयी फ़ासीवादी मोदी सरकार चिकित्सा बजट में लगातार कटौती करती जा रही है। पिछले 10 वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) का मात्र 1.1 से 1.15 प्रतिशत तक ख़र्च किया गया है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के मानक के मुताबिक़ प्रति 1000 व्यक्तियों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में 11,082 व्यक्तियों पर 1 डॉक्टर है। स्वास्थ्य सेवा सुलभ होने के मामले में भारत दुनिया के 195 देशों में 154वें पायदान पर है। यहाँ तक कि यह बांग्लादेश, नेपाल और घाना तक से पीछे है!
ऊपर दिये गये आँकड़ों को पढ़कर समझा जा सकता है कि देश और अम्बेडकरनगर ज़िले की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था की ज़िम्मेदार आज़ादी के बाद विभिन्न चुनावबाज़ पार्टियों की स्वास्थ्य नीति है जिसे पूँजीपति वर्ग के मामलों का प्रबन्‍धन करने वाली कमेटी यानी सरकार पूँजीपति वर्ग के हितों को ध्‍यान में रखकर बनाती है। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो आम मेहनतकश जनता के लिए स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं को सहज व सुलभ रूप से उपलब्‍ध बनाने का काम आज़ादी के बाद किसी भी पूँजीवादी पार्टी की सरकार ने नहीं किया है। और सर्वाधिक जनविरोधी और प्रतिक्रियावादी चरित्र रखने वाली मोदी सरकार द्वारा इसकी उपेक्षा और भी ज्‍़यादा आपराधिक है जैसा कि कोरोना महामारी के दौरान दिख भी गया है। आज़ादी के इन 74 सालों में हम सभी चुनावबाज़ पार्टियों को आज़माकर देख चुके हैं लेकिन, स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली दूर नहीं हुई। अब बेहतरी की एकमात्र उम्मीद इस सवाल पर व्यापक जनान्दोलन से ही की जा सकती है और इस मसले का फ़ैसलाकुन तरीक़े से हल मज़दूर राज में समाजवादी निर्माण के साथ ही हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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