तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के बदतर हालात
– आनन्द
बीते 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में अफ़रा-तफ़री का आलम है। अमेरिका द्वारा अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने के फ़ैसले के बाद यह तो तय था कि वहाँ की सत्ता पर देर-सबेर तालिबान का क़ब्ज़ा हो जायेगा, लेकिन यह इतना जल्दी हो जायेगा, इसका अनुमान किसी को भी नहीं था। यही वजह है कि तालिबान के क़ब्ज़े की ख़बर सुनते ही हज़ारों की संख्या में काबुलवासी बदहवासी में देश छोड़ने के लिए काबुल के एयरपोर्ट पर जमा होने लगे। काबुल एयरपोर्ट पर क़रीब 15 दिनों तक अफ़रा-तफ़री का माहौल रहा। इस दौरान वहाँ इस्लामिक स्टेट-ख़ुरासन के आतंकियों द्वारा आत्मघाती हमला भी किया गया जिसमें कम से कम 170 अफ़ग़ानी नागरिक मारे गये और अमेरिकी सेना ने जाते-जाते ड्रोन के ज़रिए एक रिहायशी इलाक़े पर हमला किया जिसमें बच्चों सहित दर्जन से भी ज़्यादा लोग मारे गये। 31 अगस्त तक अमेरिका और नाटो की सेना के पूरी तरह वापस लौटने के बाद से काबुल एयरपोर्ट पर तो शान्ति का आलम है, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान अभी भी एक मानवीय, आर्थिक और सामाजिक संकट से जूझ रहा है जो लम्बे समय तक जारी रहने वाला है।
तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा तो कर लिया लेकिन उसके पास इस चहुँओर संकट से निकलने की न तो कोई योजना है और न ही उसके पास ऐसी क्षमता है। तालिबान के भीतर मौजूद कई धड़ों के बीच चल रही झड़पों की वजह से भी भविष्य की कोई सुस्पष्ट दिशा नहीं नज़र आ रही है। अगर ये झगड़े निपट भी जाते, तो किसी धार्मिक कट्टरपन्थी सत्ता से शान्ति और स्थायित्व की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। उसके शासन का लगातार भयंकर दमन व उत्पीड़न से भरा होना और जनता के उसके प्रति प्रतिरोध से भरा होना लाज़िमी होगा। बहरहाल, इतना तो तय है कि अफ़ग़ानिस्तान में निकट भविष्य में अस्थिरता और अशान्ति कम होने की बजाय बढ़ने ही वाली है। इसका सबसे ज़्यादा असर वहाँ की आम मेहनतकश आबादी, औरतों और अल्पसंख्यकों की ज़िन्दगी पर होगा।
भीषण मानवीय संकट की दहलीज़ पर खड़ा अफ़ग़ानिस्तान
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े से पहले ही वहाँ भीषण खाद्य संकट और बड़े पैमाने पर विस्थापन की परिस्थिति थी। तालिबान के क़ब्ज़े ने इस परिस्थिति को और विकट कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता, सूखा और कोरोना महामारी के सामूहिक प्रभाव से क़रीब डेढ़ करोड़ लोग भुखमरी की कगार पर पहुँच चुके हैं। वहाँ के कई शहरों में बेहद ज़रूरी भोजन सामग्री की भी भारी क़िल्लत हो गयी है।
अस्पतालों में मरीज़ों के लिए बेड, डॉक्टर, नर्स और चिकित्सा सामग्रियों की भारी क़िल्लत हो गयी है। शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त के अनुसार इस साल की शुरुआत से लेकर अब तक अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब 6 लाख लोग विस्थापित हो चुके हैं जिनमें 80 फ़ीसदी महिलाएँ और बच्चे हैं। अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान, ईरान, ताजिकिस्तान और उज़बेकिस्तान की सीमाओं के पास भारी संख्या में अफ़ग़ान शरणार्थी इकट्ठा हो रहे हैं। देश के भीतर विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या भी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। काबुल से लाखों की संख्या में लोग देश छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन अभी भी हज़ारों लोग खुले आसमान के नीचे सोने को मजबूर हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले चार महीनों में क़रीब 5 लाख अफ़ग़ानी देश छोड़कर बाहर जा सकते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान में घोर आर्थिक संकट
तालिबान के सत्ता में पहुँचने से पहले ही अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था बदहाली की स्थिति में थी। वहाँ सरकारी बजट का 75 फ़ीसदी हिस्सा विदेशी सहायता से आता था। तालिबान के सत्ता में आने के बाद यह विदेशी सहायता भी अनिश्चितकाल तक स्थगित हो गयी है। अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के केन्द्रीय बैंक के क़रीब साढ़े नौ अरब डॉलर के मूल्य की परिसम्पत्तियों को ज़ब्त कर लिया है। इसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान के सामने अपने भारी आयात बिल के भुगतान का संकट खड़ा हो गया है। अमेरिका के दबाव में आकर विश्व-मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने भी अफ़ग़ानिस्तान को दी जाने वाली आपातकालीन सहायता पर रोक लगा दी है। यूरोपीय यूनियन ने भी क़रीब डेढ़ अरब डॉलर की सहायता पर फ़िलहाल रोक लगा दी है। इन वजहों से अफ़ग़ानिस्तान में एक भीषण आर्थिक संकट खड़ा हो गया है।
आर्थिक संकट का सबसे ज़्यादा नुक़सान अफ़ग़ानिस्तान की आम मेहनतकश आबादी को हो रहा है। ग़ौरतलब है कि अफ़ग़ानिस्तान दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है। वहाँ की क़रीब तीन-चौथाई आबादी ग़रीबी-रेखा के नीचे रहती है। बेरोज़गारों की विशाल फ़ौज के लिए तालिबान के शासन में करने के लिए कोई काम नहीं है। दाल, चावल, गेहूँ, तेल, रसोई गैस जैसी बेहद ज़रूरी चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं। लोगों के पास पैसे न होने की वजह से उन्हें अपने घर-गृहस्थी की चीज़ें बेचनी पड़ रही हैं। बैंक से पैसे निकालना बहुत मुश्किल हो गया है क्योंकि बैंकों के पास कैश नहीं बचा है। विदेशों में बसे अफ़ग़ानियों द्वारा भेजे जाने वाले रेमिटांस (आय प्रेषण) का भी देश में आना पूरी तरह से बन्द हो गया है क्योंकि वेस्टर्न या वेस्टर्न यूनियन मनी ट्रांसफ़र जैसी संस्थाओं ने अफ़ग़ानिस्तान में अपना काम ठप कर दिया है।
तालिबान की हुकूमत में औरतों की ज़िन्दगी
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद वहाँ की औरतों की ज़िन्दगी एक झटके में बीस साल पीछे चली गयी। तालिबान ने फ़रमान जारी कर दिया है कि अगली सूचना तक औरतें घरों से बाहर न निकलें क्योंकि तालिबान के लड़ाकों को औरतों के साथ कैसे पेश आयें इसका प्रशिक्षण नहीं मिला है! यह बात दीगर है कि अफ़ग़ानी औरतें तालिबानी फ़रमानों को धता बताते हुए अपने हक़ों के लिए सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रही हैं। इन प्रदर्शनों को तालिबान के लड़ाके बन्दूक़ों और कोड़ों के दम पर बर्बरतापूर्वक कुचल रहे हैं। तालिबान ने अभी औरतों को काम पर आने की इजाज़त भी नहीं दी है। स्कूलों में भी अभी लड़कियाँ नहीं जा रही हैं। विश्वविद्यालयों में उन्हें इस शर्त पर जाने की इजाज़त मिली है कि कक्षाओं में लड़कों और लड़कियों के बीच पर्दा रहेगा। संगीत और नृत्य पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा दी गयी है। महिला कल्याण मंत्रालय को ख़त्म करके उसकी जगह गुण और दोष मंत्रालय बनाया गया है। ग़ौरतलब है कि यह वही मंत्रालय था जो 1996 से 2001 के बीच पिछली तालिबानी हुकूमत के दौरान औरतों को अकेले बिना किसी मर्द के साथ घर से बाहर निकलने या बिना बुर्क़ा या हिजाब पहने बाहर निकलने पर सरेआम कोड़ों से मारने की सज़ा देता था। यही वह मंत्रालय था जो बेवफ़ाई के मामलों में औरतों को पत्थर से मार-मारकर मौत की सज़ा देता था।
तालिबान का कार्यवाहक मंत्रिमण्डल और भविष्य के संकेत
तालिबान के सत्ता में आने के बाद कई विश्लेषक यह दावा कर रहे थे कि यह तालिबान पहले जैसा नहीं रहा है और वह अब काफ़ी नरम पड़ चुका है। परन्तु सत्ता में आने के बाद जिस तरह से तालिबान ने औरतों को घरों में क़ैद रहने का फ़रमान जारी किया उससे यह दिखता है कि तालिबान में कुछ दिखावटी बदलावों के अलावा कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है। तालिबान ने अपनी सरकार को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए मानवाधिकारों, औरतों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा और समावेशी सरकार बनाने का वायदा किया था। लेकिन गत 7 सितम्बर को तालिबान ने एक कार्यवाहक मंत्रिमण्डल की घोषणा की उसमें एक भी ग़ैर-तालिबानी सदस्य नहीं शामिल है और न ही कोई माहिला शामिल है। इस कार्यवाहक मंत्रिमण्डल में सिराजुद्दीन हक्कानी जैसे ख़ूँख़्वार आतंकी को गृह मंत्रालय सौंपा गया है जिससे समझा जा सकता है कि तालिबान कितना नरम पड़ा है। ऐसी भी ख़बरें आयीं कि मंत्रिमण्डल की घोषणा से पहले तालिबान के भीतर धुर कट्टरपन्थी हक्कानी नेटवर्क और सापेक्षत: नरमपन्थी मुल्ला बरादर के गुटों के बीच झड़पें भी हुईं। अभी भी तालिबान के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की भावी दिशा को लेकर पूरी तरह से एक राय नहीं बन पायी है जिसकी वजह से अभी भी वहाँ कार्यवाहक मंत्रिमण्डल की घोषणा के बावजूद सरकार जैसी कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही है।
तालिबान न सिर्फ़ गुटबन्दी का शिकार है बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के जटिल समाज पर शासन करने की उसकी क्षमता पर भी एक बड़ा सवालिया निशान है। प्रशासनिक व तकनीकी हुनर रखने वाले लोग बड़ी संख्या में पलायन कर चुके हैं। यह भी ग़ौर करने की बात है कि पिछले दो दशकों के दौरान अफ़ग़ानी समाज में ज़बर्दस्त बदलाव हुए हैं जिनके मद्देनज़र तालिबान के लिए सत्ता चलाना आसान नहीं है। 2001 में अफ़ग़ानिस्तान की आबादी दो करोड़ से थोड़ी ज़्यादा थी जो आज बढ़कर 4 करोड़ के क़रीब जा पहुँची है। अफ़ग़ानिस्तान की 60 फ़ीसदी आबादी ने तालिबान का पिछला शासन नहीं देखा है जिस समय टेलीविज़न पर भी पाबन्दी थी। इण्टरनेट और सोशल मीडिया के दौर में पली-बढ़ी मौजूदा पीढ़ी को पिछले शासन की तरह क़ाबू करना तालिबान के लिए बेहद मुश्किल होगा। जैसाकि तालिबान के सत्ता में आने के पहले डेढ़ महीने के भीतर ही नज़र आ रहा है, इस बार उनके ख़िलाफ़ प्रतिरोध भी ज़्यादा हो रहा है क्योंकि वहाँ की नयी पीढ़ी को सीमित ही सही लेकिन जनवादी अधिकारों के साथ जीने की आदत है और वे तालिबान की इस्लामी अमीरात जैसी निरंकुश व्यवस्था को चुपचाप बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं।
इतना स्पष्ट है कि व्यापक जनसमुदायों के अलग-अलग हिस्से तालिबान के विरुद्ध अपना प्रतिरोध जारी रखेंगे और तालिबान की धार्मिक कट्टरपन्थी सत्ता उसे बर्बरता से कुचलने के क़दम उठायेगी। यह अफ़ग़ानी समाज में अन्तरविरोधों को जन्म देगा। लेकिन किसी क्रान्तिकारी शक्ति के अभाव में इन अन्तरविरोधों का कोई प्रगतिशील समाधान होने की सम्भावना फ़िलहाल नज़र नहीं आ रही है। लेकिन इतिहास हमेशा ही चौंकाता है और किसी विशिष्ट स्थिति में ऐसी कोई शक्ति खड़ी होने लगे, इसकी सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021
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