भारत में ट्रेड यूनियन अधिकार सम्बन्धी क़ानून: एक मज़दूर वर्गीय समीक्षा

– शिवानी

हमारे देश में कहने के लिए तो मज़दूरों के लिए दर्जनों केन्द्रीय और सैकड़ों राज्य श्रम क़ानून काग़ज़ों पर मौजूद हैं पर तमाम कारख़ानों-खेतों खलिहानों में काम करने वाले करोड़ों श्रमिक अपनी जीवन स्थितियों से जानते और समझते हैं कि इन क़ानूनों की वास्तविकता क्या है और हक़ीक़त में ये कितना लागू होते हैं। देश के असंगठित-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत मज़दूर आबादी तो वैसे भी इन तमाम क़ानूनों के दायरे में बिरले ही आती है। वहीं औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठित कामगारों-कर्मचारियों के तबक़े को भी इस क़ानूनी संरक्षण के दायरे से बाहर करने की क़वायदें तेज़ हो रही हैं। बावजूद इसके इन श्रम क़ानूनों के वास्तविक चरित्र की चर्चा कम ही होती है।
फ़िलहाल श्रम क़ानूनों का मसला इसलिए भी सुर्ख़ियों में बना हुआ है क्योंकि मोदी सरकार द्वारा मज़दूरों को प्राप्त श्रम क़ानून रूपी नाममात्र की इस राजकीय सुरक्षा और संरक्षण पर भी हमला बोला जा रहा है। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि आज की फ़ासीवादी मोदी सरकार व अन्य राज्य सरकारें जिस मज़दूर वर्ग-विरोधी मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं उसकी शुरुआत बहुत पहले ही कांग्रेस के समय से हो चुकी थी। विशेष तौर पर 1991 में नव उदारवादी नीतियों की औपचारिक शुरुआत के साथ ही पूँजीवादी राज्यसत्ता और तमाम सरकारों की श्रम सम्बन्धी नीतियों में एक निरन्तरता दिखलाई पड़ती है जिसने पूँजीपति वर्ग के “धन्धे और कारोबार में आसानी” के नाम पर श्रम के अनौपचारिकीकरण, ठेकाकरण, कैज़ुअलकरण आदि की प्रकिया को बड़े पैमाने पर संवेग प्रदान किया है।
साथ ही, जिस स्वरूप में ये श्रम क़ानून अपने मूल रूप में भी मौजूद थे, उस रूप में भी ये किसी भी पैमाने से मज़दूरों के असली हक़ों-अधिकारों की नुमाइन्दगी नहीं करते थे। हालाँकि इस तथ्य को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें और मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी कर चुकी संशोधनवादी यूनियनें कभी नहीं उठाती हैं मानो कि अपने मूल रूप में ये क़ानून बहुत आमूलगामी या कल्याणकारी रहे हों। परन्तु इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि आज सरकारों द्वारा श्रम क़ानूनों पर हो रहे हमलों का विरोध नहीं किया जाना चाहिए।
वास्तव में श्रम क़ानूनों के पूरे इतिहास और विकास क्रम को देखने पर पूँजीवादी राज्य का असली स्वरूप व चरित्र ही उद्घाटित होता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत ऊपर से ऐसा दिखता है कि राज्य पूँजी और श्रम के बीच के सम्बन्धों के बीच तालमेल या सन्तुलन स्थापित कर रहा है। लेकिन वस्तुतः पूँजीवादी राज्य, पूँजीपति वर्ग से अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता के बावजूद, अन्तिम तौर पर समूचे पूँजीपति वर्ग के क्रियाकलापों के प्रबन्धन का ही काम करता है, पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को रेखांकित और पुनरुत्पादित करता है और पूँजीपति वर्ग के दीर्घकालिक सामूहिक वर्ग हितों का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में मौजूद क़ानून व न्यायिक व्यवस्था को देखने पर आम तौर पर और तमाम श्रम क़ानूनों के विश्लेषण में विशिष्ट तौर पर यही बात बार-बार सत्यापित भी होती है।
भारत में श्रम व फ़ैक्टरी विधि निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता द्वारा उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध व बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में की गयी थी। भारत की उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी राज्यसत्ता ने मामूली बदलावों के साथ ही इन्हीं क़ानूनों को बरक़रार रखा क्योंकि ये भारतीय पूँजीपति वर्ग की आवश्यकताओं के भी अनुकूल था। यानी तमाम श्रम व फ़ैक्टरी अधिनियम जैसे कि कारख़ाना अधिनियम व इसके विभिन्न संशोधन (Factories Act), मज़दूरी संदाय अधिनियम 1936 (Payment of Wages Act, 1936), कर्मचारी प्रतिकर अधिनियम 1923 (Workmen’s Compensation Act, 1923), ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 (Trade Unions Act, 1926), व्यवसाय विवाद अधिनियम 1929 (Trade Disputes Act, 1929), जो आगे चलकर औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 (Industrial Disputes Act, 1947) बना, आदि का उद्भव औपनिवेशिक काल में देखा जा सकता है। फ़िलहाल इस लेख में हम श्रम विधि निर्माण में ट्रेड यूनियन सम्बन्धी अधिनियमों और क़ानूनी प्रावधानों पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।
ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 का मूलभूत उद्देश्य “उत्तरदायित्वपूर्ण यूनियनवाद” को बढ़ावा देना था, वहीं व्यवसाय विवाद अधिनियम का मक़सद विवाद के पक्षों (ज़ाहिरा तौर पर मुख्यतः मज़दूर यूनियनों) को समझौते और मध्यस्थता के लिए बाध्य करना था। जैसा कि हमने ऊपर भी इंगित किया यही व्यवसाय विवाद अधिनियम आगे चलकर औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के रूप में सामने आता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में भारतीय राज्यसत्ता को ये तमाम क़ानून विरासत में प्राप्त हुए। स्पष्टतः इन आधे-अधूरे लूले-लँगड़े श्रम क़ानूनों के निर्माण में भी मुख्य तौर पर जुझारू मज़दूर संगठनों व संघर्षों की भूमिका अग्रणी थी और राज्यसत्त्ता द्वारा ये ख़ैरात में नहीं दिये गये थे। ग़ौरतलब है कि उस दौर में इन मज़दूर संघर्षों का चरित्र राजनीतिक था और राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर भी मज़दूर आन्दोलन की उपस्थिति और दख़ल था। इसके अलावा, वैश्विक परिस्थितियाँ भी एक भूमिका अदा कर रही थीं जिसमें 1917 की रूस की अक्टूबर बोल्शेविक क्रान्ति और उसके आलोक में कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन की भूमिका उल्लेखनीय है।
हालाँकि श्रम क़ानूनों को बनाने के पीछे एक अन्य पहलू भी काम कर रहा था। वह था इन क़ानूनों के ज़रिए औद्योगिक विवादों में, यानी श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध में पूँजीवादी राज्य की हस्तक्षेपकारी भूमिका को रेखांकित और परिभाषित करना और साथ ही मज़दूर संघर्षों को इन क़ानूनों के द्वारा विनियमित करना और मज़दूर आन्दोलन के पूरे विमर्श को ही वैधता और क़ानून (legality) के दायरे में संकुचित करना।
आज़ादी के बाद त्वरित आर्थिक विकास और “औद्योगिक शान्ति” को बनाये रखने के लिए पूँजीपति नियोक्ताओं और यूनियनों (यानी पूँजी और श्रम) के बीच राज्य की मध्यस्थता को श्रम व फ़ैक्टरी संहिताओं के ज़रिए स्थापित किया गया मानो पूँजीवादी राज्य इन संघर्षरत वर्गों से इतर और उनके ऊपर बैठा हुआ कोई निष्पक्ष या तटस्थ निकाय हो। इसके तहत औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए श्रम और पूँजी के बीच राज्य एजेंसियों की मध्यस्थता को अनिवार्य शर्त बना दिया गया। यानी औद्योगिक विवादों में कहने के लिए एक “त्रिपक्षीय” व्यवस्था लागू की गयी।
यह तथाकथित “त्रिपक्षीयता” का सिद्धान्त वास्तव में एक आभासी या प्रतीतिगत यथार्थ है और भ्रामक है क्योंकि किसी भी वर्ग समाज में और विशेषकर पूँजीवाद के अन्तर्गत राज्य, अन्तिम तौर पर, सम्पत्तिधारी वर्गों के हितों की ही नुमाइन्दगी करता है और यह “त्रिपक्षीयता” अपने सारतत्व में द्विपक्षीय ही है जिसमें कि वास्तव में दो ही पक्ष हैं, यानी कि श्रम और पूँजी के अन्तरविरोधी और विपरीत ध्रुव हैं। विवाद-निपटारे की इस “त्रिपक्षीय” कार्य प्रणाली ने आम तौर पर और दीर्घकालिक तौर पर पूँजीपतियों और मालिकों के पक्ष में ही काम किया है।
आनुभविक तौर पर भी यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि इस “मध्यस्थता” के नाम पर गुड़गाँव-मानेसर के मारुति आन्दोलन से लेकर तमिलनाडु में स्टरलाइट आन्दोलन तक पूँजीवादी राज्यसत्ता ने पूँजीपतियों और मालिकों के ही हितों की हिफ़ाज़त की है। यह बात सच है कि कुछ मामलों में पूँजीपति, बिना राज्य की अनिवार्य मध्यस्थता के, स्वयं अपने और यूनियनों के बीच सामूहिक मोलभाव को ज़्यादा फ़ायदेमन्द समझे और किसी गतिरोध की स्थिति में ही राज्य के हस्तक्षेप को आमंत्रित करें, लेकिन भारत में पूँजीवादी विकास के विशिष्ट पथ के मद्देनज़र, जिसका मुख्य पहलू आरम्भिक दौर में राज्य द्वारा निर्दिष्ट संरक्षणवाद और औद्योगिकीकरण था, राज्य के हस्तक्षेप द्वारा अनिवार्य समझौतों की व्यवस्था समूचे पूँजीपति वर्ग के दीर्घकालिक सामूहिक वर्ग हितों की सेवा के लिए अधिक अनुकूल थी। यानी श्रम और पूँजी के बीच राज्य की मध्यस्थता द्वारा स्थापित क़रार पूँजी के हितों की ही रक्षा कर रहा था और आज भी करता है। राज्य की यह मध्यस्थता तमाम श्रम व फ़ैक्टरी अधिनियमों, श्रम विभाग, फ़ैक्टरी इंस्पेक्टोरेट आदि के ज़रिए अमल में लायी जाती रही है।
इसके अलावा, इन श्रम क़ानूनों के ज़रिए मज़दूर वर्ग को औपचारिक तौर पर तो यूनियन बनाने का अधिकार दिया गया लेकिन साथ ही इस बात के भी पर्याप्त प्रावधान किये गये कि पूँजीपति किसी भी फ़ैक्टरी या उपक्रम में मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करने वाली असली यूनियन को मान्यता ही न दे। संगठित मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद तमाम चुनावी पार्टियों से सम्बद्ध ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशनों की उपस्थिति और उनके बीच आपसी टकराव और बँटवारे को बहाना बनाकर प्रतिनिधि यूनियन के निर्धारण का प्रश्न राज्य द्वारा जानबूझकर अनसुलझा छोड़ा गया। जिसका अर्थ यह था कि मालिक वास्तविक यूनियन से वार्ता या समझौता करने को बाध्य नहीं थे और जेबी फ़र्ज़ी यूनियनों को खड़ा करके संघर्षों को ख़त्म करवा सकते थे। तमाम यूनियनों द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली के ज़रिए यूनियन प्रतिनिधित्व को तय करने की माँग को राज्य द्वारा हमेशा नज़रअन्दाज़ किया जाता रहा है।
इसके साथ ही इन श्रम क़ानूनों के तहत हड़ताल करने के अधिकार और सामूहिक मोलभाव के अधिकार को महज़ काग़ज़ी अधिकार बना दिया गया। क़ायदे से किसी भी पूँजीवादी लोकतांत्रिक देश में भी हड़ताल का अधिकार मूलभूत संवैधानिक अधिकार होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में तो हड़तालों को “ग़ैर-क़ानूनी” घोषित किये जाने का लम्बा काला इतिहास है। भारत के संविधान में एकत्र होने और संघ बनाने का अधिकार तो है लेकिन हड़ताल का अधिकार और मालिकों द्वारा यूनियन को मान्यता देने के अधिकार मूलभूत अधिकारों में शामिल नहीं हैं। यानी मज़दूरों से जुड़े सभी वास्तविक अधिकार औपचारिक हैं और असलियत में दन्त-नख विहीन हैं।
आज़ादी के तत्काल बाद पूँजीवादी विकास के पथ की आरम्भिक बाध्यताओं के चलते, जिसमें देश के मज़दूर वर्ग का सहयोग नवोदित पूँजीपति वर्ग के लिए आवश्यक और वांछनीय था, राज्य के हस्तक्षेप के ज़रिए कुछ हद तक पूँजीपतियों द्वारा यूनियनों की माँगे मानी गयी थीं लेकिन 1970 के दशक के मध्य से इस स्थिति में भारी परिवर्तन आया। इसी दौर में राज्य द्वारा “मज़दूरों की भागीदारी” और “पहलक़दमी” के नाम पर मज़दूरों को आन्दोलन में यूनियनों की नेतृत्वकारी भूमिका से अलग करने और काटने की कोशिशें की गयीं। ज़ाहिरा तौर पर, बिना अपने राजनीतिक नेतृत्व के मज़दूर वर्ग युद्ध में एक ऐसी सेना के समान है जिसके सेनापति को दुश्मन पक्ष ने ख़त्म कर दिया हो। इसके अलावा अन्य कई मज़दूर-विरोधी संशोधन भी ट्रेड यूनियन सम्बन्धी क़ानूनों में इस दौर में और उसके बाद भी किये जाते रहे।
हमने ऊपर भी चर्चा की थी कि ट्रेड यूनियन अधिनियम यूनियनों के पंजीकरण का प्रावधान तो करता है लेकिन यह क़ानून मालिकों को किसी यूनियन को मान्यता देने और उससे बातचीत या वार्ता करने के लिए बाध्य नहीं करता है। इसलिए सामूहिक मोलभाव और हड़ताल करने के अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार बनकर रह जाते हैं और मज़दूर प्रभावतः राज्य और पूँजीपतियों के रहमो-करम पर रहते हैं। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 भी मज़दूर वर्ग के इन बुनियादी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं करता है। लेकिन श्रम विभाग, फ़ैक्टरी इंस्पेक्टोरेट, जाँच न्यायालय, निर्माण समिति, परिवेदना निवारण, सुलह निकाय आदि संस्थाओं के ज़रिए “औद्योगिक शान्ति” को बनाये रखने के लिए वस्तुतः पूँजी के हितों को ही साधता है।
हम देख सकते हैं कि इन तमाम श्रम व औद्योगिक क़ानूनों का मक़सद एक दौर में संगठित क्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप और मध्यस्थता के ज़रिए श्रम और पूँजी के बीच “युद्ध विराम” या क़रार स्थापित करना था जिसमें ज़ाहिरा तौर पर पूँजी का हाथ ही ऊपर रहता था। हालाँकि 1970 के दशक के मध्य से ही यह स्थिति बदलती है जब पहले पूँजीपति वर्ग का आर्थिक संकट और बाद में पूँजीवादी राज्य का राजनीतिक संकट (आपातकाल के रूप में) उभरकर सामने आता है।1970 के दशक से शुरू हुई ये नीतियाँ उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के आगमन के साथ परवान चढ़ती हैं जिसमें राज्य खुलकर पूँजी के हितों की चाकरी करता हुआ नज़र आता है। हालाँकि इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि इस दौर से पहले पूँजीवादी राज्य ऐसा नहीं कर रहा था, फ़र्क़ बस इतना है कि राज्य द्वारा पूँजी के हित-साधन के तौर-तरीक़ों में बदलाव आये हैं।
मज़दूर वर्ग की विश्वासघाती और उसके हक़-हुक़ूक की सौदागर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों, विशेष तौर पर संशोधनवादी संसदीय वामपन्थी पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों की भूमिका पर भी यहाँ बात करना प्रासंगिक होगा। इन सामाजिक जनवादी ट्रेड यूनियनों का सबसे बड़ा पाप संगठित क्षेत्र के मज़दूर आन्दोलन का एक ख़ास क़िस्म का विराजनीतिकरण कर उसे जुझारू अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद की अन्धी गलियों में ले जाकर फँसाना तो है ही; साथ ही, क़ानूनवाद के ज़रिए मज़दूर आन्दोलन की धार को कुन्द करना भी है जिसने श्रम क़ानूनों में प्रदत्त प्रावधानों को ही संघर्ष का अन्तिम छोर बना दिया है।
आज फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में खुले तौर पर पूँजी परस्त बदलावों का विरोध भी ये संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें अतीत के किसी कल्पित स्वर्णिम युग के ‘नास्टैल्जिया’ की ज़मीन पर खड़े होकर करती हैं। जैसा कि हमने उपरोक्त चर्चा में देखा ऐसा कोई “स्वर्णिम युग” श्रम क़ानूनों के सन्दर्भ में भी भारत में किसी दौर में नहीं रहा था। भारतीय पूँजीवाद के विकास के हर दौर में ही श्रम व फ़ैक्टरी अधिनियम पूँजीपतियों और फ़ैक्टरी-कारख़ानों के मालिकों के हितों को ध्यान में रखकर ही बनाये गये थे और लागू किये गये थे। इसलिए इन “लाल” ट्रेड यूनियनों का इस अतीत को लेकर स्यापा वास्तव में अपनी मौक़ापरस्ती और आत्मसमर्पणवाद को ढाँपने का प्रयास है। संगठित मज़दूर आन्दोलन में यह इनके अर्थवादी और वर्ग सहयोगवादी कुकर्मों का ही नतीजा है कि आज भारत में फ़ासीवाद मज़दूर वर्ग के रहे-सहे अधिकार भी छीनने पर आमादा है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल से लेकर केरल तक ये संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ मज़दूर वर्ग को पूँजीपति वर्ग के साथ “सहयोग और सामंजस्य” की नसीहतें देती रही हैं! यही नहीं, औपचारिक क्षेत्र की संगठित मज़दूर आबादी को छोड़ दिया जाये तो इन संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों का आधार और ज़ोर असंगठित व अनौपचारिक मज़दूर वर्ग में काम करने और उसे संगठित करने पर कभी रहा ही नहीं और इन्होंने इस विशालकाय मज़दूर-मेहनतकश आबादी को पूँजीपतियों और मालिकों की दया पर छोड़ दिया है।
आज मज़दूर आन्दोलन श्रम क़ानूनों पर हो रहे हमलों का कारगर जवाब भी तभी दे सकता है जब वह ख़ुद को तमाम ग़ैर-राजनीतिक रुझानों जैसे कि अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, क़ानूनवाद के मकड़जाल से मुक्त कर सके। यही वे कारण हैं जिनकी वजह से अतीत में भी मज़दूर आन्दोलन, चन्द-एक तात्कालिक जीतों के अपवादों को छोड़कर, पीछे की तरफ़ धकेला गया था। आज भी श्रम व फ़ैक्टरी अधिनियमों में हो रहे बदलावों के ख़िलाफ़ संघर्ष का क्षितिज क़ानूनों में दर्ज प्रावधानों से निर्धारित नहीं होना चाहिए। मज़दूर आन्दोलन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का मुक़ाबला भी सार्थक तरीक़े से तभी किया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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