कोरोना काल में भी बदस्तूर जारी है औरतों के ख़िलाफ़ दरिन्दगी
क्यों थम नहीं रहे हैं ये जघन्य अपराध? इनकी जड़ क्या है? समाधान क्या है?
– भार्गवी
कोरोना काल में लॉकडाउन की वजह से चोरी, लूटपाट जैसे कई क़िस्म के अपराधों में तो कुछ कमी आयी, लेकिन औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले विभिन्न क़िस्म के अपराधों में कमी आना तो दूर, उल्टे वे बढ़े ही हैं। इस साल जुलाई के महीने में राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा जारी की गयी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कोरोना महामारी के दौरान औरतों द्वारा आयोग में की गयी शिकायतों में पहले की तुलना में 25 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले साल के अधिकांश हिस्से में देशभर में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन था। उसके बावजूद 2020 में प्रति-दिन औसतन 77 बलात्कार के मामले दर्ज किये गये। हाल के महीनों में भी दिल्ली, मुम्बई, पुणे, हैदराबाद और गुण्टूर सहित देश के विभिन्न हिस्सों से औरतों और बच्चियों के साथ बर्बर बलात्कार और हत्याओं की ख़बरें आयीं जो भारतीय समाज की बढ़ती हुई सड़ाँध की ही निशानी है। ये बढ़ती दरिन्दगी यह दिखाती है कि घोर स्त्री-विरोधी आपराधिक सोच इस समाज के रेशे-रेशे में घुस चुकी है और केवल नैतिकता का पाठ पढ़ाकर या किसी सुधारवादी तरीक़े से इसपर क़ाबू नहीं पाया जा सकता है।
देशभर में औरतों के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराध तमाम नेताओं-मंत्रियों द्वारा औरतों के लिए सुरक्षित माहौल बनाने के वायदों की धज्जियाँ उड़ाते दिख रहे हैं। इन अपराधों पर क़ाबू पाने में अपनी नाकामी छिपाने और लोगों के ग़ुस्से पर ठण्डा पानी छिड़कने के लिए अब रहनुमाओं ने एक नया तरीक़ा खोजा है। जैसे ही बलात्कार के किसी मामले में जनता का आक्रोश बढ़ने लगता है तो तमाम नेता और मंत्री यह बयान देने लगते हैं कि बलात्कार के आरोपी को पुलिस एनकाउण्टर में मार दिया जाना चाहिए। दो साल पहले हैदराबाद में दिशा नाम की एक पशु-चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के मामले में भी कई नेता और मंत्री ऐसी ही माँग करते हुए पाये गये जिसके बाद आरोपियों को फ़र्ज़ी एनकाउण्टर में मार दिया गया। उसके बाद देशभर में तेलंगाना सरकार और पुलिस की ख़ूब वाहवाही हुई और लोगों का ग़ुस्सा ठण्डा हो गया।
लेकिन क्या उस एनकाउण्टर के बाद बलात्कार और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों पर लगाम लगी? जवाब है, बिल्कुल नहीं! उस घटना के बाद से अकेले तेलंगाना में ही 800 से ज़्यादा बलात्कार के मामले दर्ज किये गये हैं जबकि इस दौरान कई महीनों तक लॉकडाउन लगा था। अभी हाल ही में हैदराबाद के सैदाबाद मोहल्ले में एक छह साल की बच्ची के साथ हुए बर्बर बलात्कार और हत्या के मामले में भी जब लोगों का आक्रोश बढ़ने लगा तो राज्य के कई मंत्री, नेता और सेलिब्रिटी आरोपी को एनकाउण्टर में मारने की माँग करने लगे। कुछ ही दिनों बाद यह ख़बर आयी कि पुलिस जब आरोपी को पकड़ने के लिए उसका पीछा कर रही थी तब उसने चलती हुई ट्रेन के सामने कूदकर अपनी जान दे दी। जिन हालात में यह घटना घटी और जिस तरह से पुलिस एनकाउण्टर की माँग ज़ोर-शोर से की जा रही थी, उसको देखते हुए इस सम्भावना से क़तई इन्कार नहीं किया जा सकता है कि आरोपी ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उसे एनकाउण्टर में मारा गया हो। ग़ौरतलब है कि बलात्कार के आरोपियों को फ़र्ज़ी एनकाउण्टर में मारने की माँगें तब नहीं उठती हैं जब आरोपी किसी धनी और दबंग परिवार से आता है या जब उसका सम्बन्ध किसी राजनीतिक पार्टी से होता है। ऐसे मामलों में तो तमाम नेता-मंत्री और पुलिस-प्रशासन आरोपी को बचाने के लिए और उसे निर्दोष साबित करने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं, जैसाकि हाथरस, उन्नाव और कठुआ जैसे मामलों में देखने में आया।
लगातार बढ़ क्यों रहे हैं औरतों के ख़िलाफ़ बर्बर अपराध
भारतीय समाज में औरतों को मर्दों का ग़ुलाम समझने की मानसिकता हज़ारों सालों से चली आ रही है। इस समाज की नैसर्गिक गति से यहाँ आधुनिकता आ पाती इससे पहले ही यह समाज अंग्रेज़ों की ग़ुलामी का शिकार हो गया। अंग्रेज़ों ने औरतों की ग़ुलामी क़ायम रखने के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार राजे-रजवाड़ों और सामन्तों के साथ गठबन्धन बनाया जिसका एक नतीजा यह भी हुआ कि औरतों की ग़ुलामी बरक़रार रही। 1947 में अंग्रेज़ों के जाने के बाद यहाँ की सत्ता पर देशी पूँजीपति वर्ग क़ाबिज़ हो गया और उसने ग़ैर-क्रान्तिकारी रास्ते से ऊपर से नीतियों के ज़रिए भूमि सुधार किये जिसमें सामन्तों को पूरा मौक़ा दिया गया कि वे ख़ुद को मुनाफ़े पर जीने वाले पूँजीपति किसान और भूस्वामी के रूप में तब्दील कर लें। इस प्रकिया में पुराने सड़े-गले स्त्री-विरोधी और जातिवादी संस्कारों, मूल्यों और मान्यताओं के साथ समझौताहीन संघर्ष न होने से ये संस्कार, मूल्य और मान्यताएँ भारतीय समाज में बने रहे।
आज़ादी के बाद हुए पूँजीवादी विकास की वजह से औरतों को घर-गृहस्थी की घुटनभरी दुनिया से बाहर निकलकर काम करने के लिए बाहर जाने का मौक़ा तो मिला, लेकिन सड़कों से लेकर कारख़ानों तक क़दम-क़दम पर पुरुष-प्रधान पितृसत्तात्मक समाज के सड़े-गले संस्कारों-मूल्यों-मान्यताओं से लैस हैवानों से उनका पिण्ड नहीं छूट पाया। इसके ऊपर से पूँजीवाद की मुनाफ़ाख़ोर संस्कृति ने भी औरत के जिस्म को उपभोग करने वाले माल के रूप में समझने की मानसिकता को बढ़ावा दिया। ख़ास तौर पर पिछले तीन दशकों के दौरान नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद खाओ-पियो-ऐश करो की जो घृणित उपभोक्तावादी संस्कृति फली-फूली है उसने औरतों की ज़िन्दगी को और असुरक्षित बनाने का काम किया है। फ़िल्मों, टीवी सीरियलों और विज्ञापनों आदि के ज़रिए औरतों को महज़ भोग-विलास की सामग्री समझने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति भी तेज़ी से फैली है। इस प्रकार पुराने सामन्ती मूल्य-मान्यताओं और आधुनिक पूँजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति के मेल से पूरे समाज में औरत-विरोधी मानसिकता को फलने-फूलने का मौक़ा मिला है।
नवउदारवाद के तीन दशकों के दौरान शहरों और गाँवों में एक नवधनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है जिसके पास अचानक बहुत पैसा आ गया है और उसे लगता है कि वह अपने पैसे और राजनीतिक ताक़त के बूते कुछ भी कर सकता है। इस वर्ग की पैठ तमाम बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों में होने की वजह से उसे राजनीतिक ताक़त भी हासिल हुई है। इसलिए इस वर्ग से आने वाले बलात्कारियों को राजनीतिक प्रश्रय भी हासिल होता है। इसके अलावा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाले अलगाव और अमानवीकरण की वजह से मज़दूर वर्ग के बीच से भी एक लम्पट सर्वहारा वर्ग पैदा हुआ है जो मनुष्यता की शर्तों को ही खो चुका है। हाल के वर्षों में औरतों के साथ होने वाली दरिन्दगी को अंजाम देने में इस लम्पट वर्ग से आने वाले मनुष्यताविहीन लोगों की अच्छी-ख़ासी संख्या रही है। इसके अतिरिक्त नवउदारवादी दौर में ही परवान चढ़े फ़ासीवादी उभार ने भी पूरे समाज को ही औरत-विरोधी प्रतिक्रियावादी ताक़तों की गिरफ़्त में ला दिया है जिसका नतीजा औरतों और बच्चियों के ख़िलाफ़ विभिन्न क़िस्म के वीभत्स अपराधों में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आ रहा है।
भारतीय राज्यसत्ता की विभिन्न संस्थाओं में गहराई तक पैठी स्त्री-विरोधी सोच भी औरतों की समस्याओं को बढ़ाने का काम करती है। भारत की नौकरशाही और पुलिस तंत्र में औपनिवेशिक और सामन्ती दौर की विरासत आज भी चली आ रही है जिसकी वजह से औरतों को इन्साफ़ मिलना मुश्किल होता है। आये दिन तमाम नेता-मंत्री और अधिकारी औरतों पर हो रहे ज़ुल्मों के लिए ख़ुद औरतों को ही ज़िम्मेदार बताने वाले बयान बेशर्मी से देते रहते हैं जिसकी वजह से अपराधियों-बलात्कारियों का मन बढ़ता है।
कैसे रोका जाये औरतों के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों का सिलसिला?
चूँकि औरतों के ख़िलाफ़ हो रहे ज़ुल्मों के लिए मुख्य रूप से समाज का पूँजीवादी पितृसत्तात्मक ढाँचा ज़िम्मेदार है, इसलिए औरतों को इन ज़ुल्मों से पूरी तरह से छुटकारा और सच्ची मुक्ति तो इस ढाँचे को तोड़कर बराबरी व न्याय पर आधारित समाजवादी समाज बनाने के बाद ही हासिल हो पायेगी। इसलिए औरतों की मुक्ति की लड़ाई सीधे तौर पर पूँजीवाद के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की लड़ाई से जुड़ी है।
लेकिन इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि औरतों की मुक्ति की लड़ाई को पूँजीवाद से छुटकारा पाने तक टाल दिया जाना चाहिए। बल्कि ज़रूरत इस बात की है कि आज से ही घर-परिवार से लेकर कल-कारख़ानों और दफ़्तरों तक औरतों के साथ हो रहे तमाम क़िस्म के भेदभाव और ज़ुल्मो-सितम के ख़िलाफ़ समझौताहीन संघर्ष छेड़ा जाये। मेहनतकशों की बस्तियों और निम्नमध्यवर्गीय मोहल्लों में औरतों और नौजवानों के चौकसी दस्ते बनाने की ज़रूरत है जो तमाम लम्पट तत्वों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें और पुलिस प्रशासन पर दबाव डालकर औरतों को इन्साफ़ दिलाने का काम करें। तृणमूल स्तर पर ऐसा जनान्दोलन खड़ा करके ही वर्तमान पूँजीवादी ढाँचे के भीतर भी शासन-प्रशासन को ज़्यादा जनपक्षधर और जनोन्मुख बनाने के लिए दबाव डाला जा सकता है और औरतों के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों के मामलों में न्याय मिलने में देरी को कम किया जा सकता है।
हमें इस सोच का विरोध करना चाहिए कि औरतों के लिए दुश्मन पुरुष हैं। हमारी दुश्मन पूँजीवादी पुरुष श्रेष्ठतावादी व पितृसत्तात्मक सोच है। जो पुरुष स्वयं इस सोच के विरुद्ध संघर्ष करना चाहते हैं, वे इस लड़ाई का हिस्सा हैं। स्त्री मुक्ति स्त्रियों की ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि एक क्रान्तिकारी पितृसत्ता-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन की ज़िम्मेदारी है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021
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