नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष
जनता के हिस्से में बस दु:ख और तकलीफ़ें ही आयी हैं
– लता
देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था। फ़ासीवाद इजारेदार पूँजीवाद के संकट काल की ही एक राजनीतिक अभिव्यक्ति है लेकिन पूँजीवाद अपने हर काल में मज़दूर और आम मेहनतकश का शोषक ही होता है। आज बहुत लोग कांग्रेस के शासन काल को बेहद भावुक हो कर याद करते हैं। कभी नेहरू तो कभी इन्दिरा गाँधी या राजीव गाँधी की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करते रहते हैं। लेकिन क्या इस बात को नकारा जा सकता है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी देश की आम मेहनतकश जनता को एक इन्सानी ज़िन्दगी की बुनियादी चीज़ें भी मयस्सर नहीं हैं? इनकी उम्मीद पूँजीवाद के ब्लैक होल में समाती जा रही है। आज़ादी के 75 सालों में कुपोषण, भुखमरी, ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी की स्थिति को देखते हुए यह कहना बिल्कुल सही है कि देश को मिली आज़ादी एक पूँजीपति वर्ग और खाते-पीते मध्यवर्ग के लिए आज़ादी थी लेकिन आम जनता के लिए यह एक खण्डित आज़ादी थी। देश अंग्रेज़ों से तो आज़ाद हुआ लेकिन भारत की आम मेहनतकश आबादी के हिस्से में दु:ख, तंगी, भूख, बदहाली, बीमारी और बेरोज़गारी आयी। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी वे आज़ादी के जश्न से बाहर थे क्योंकि नेता जिसका आज़ादी उसकी। जनता की क्रान्तिकारी शक्ति को हर क़दम नियंत्रण में रखते हुए समझौते-दबाव-समझौते की नीति का पालन करते हुए कांग्रेस ने आज़ादी के संघर्ष का नेतृत्व किया। 1929-30 से आज़ादी मिलने तक विशेषकर मज़दूरों, किसानों, नौजवानों व सेना के संघर्ष, प्रतिरोध और विद्रोह देख कर अंग्रेज़ भी यह समझ गये थे कि आने वाले समय में यदि भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की रक्षा करनी है तो भारत के शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथों सौंपना ज़्यादा फ़ायदेमन्द होगा और देश का पूँजीपति वर्ग भी समझ गया था कि जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को निर्बन्ध होने से रोक कर किसी समझौते के रूप में सत्ता-हस्तान्तरण कर राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना ही उसके लिए भी बेहतर है। इस तरह देश आज़ाद हुआ, आलीशान अट्टालिकाओं में हो रहे जश्न के बाहर बैठी देश की आम मेहनतकश जनता फटेहाल हालत में संगीत, नाच-गाना और आतिशबाज़ी देख रही थी और उम्मीद लगाये थी कि एक दिन वह भी ख़ुशहाल होगी। आज़ादी के क़रीब चार दशक बाद जब नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई तो पूँजीवादी नेताओं और उनके चाकर बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू किया कि जब समृद्धि आयेगी तो रिस-रिस कर सब तक पहुँचेगी। लेकिन रिस-रिस कर तो बस दुख-तकलीफ़ आयी है। अमीरज़ादों की समृद्धि की आतिशबाज़ियों को देख सड़कों पर भीख माँग रहे बच्चे ताली बजा कर ख़ुश होते हैं। समृद्धि का अर्थ जनता के लिए बस इतना ही है।
आपने अक्सर लोगों को यह कहते सुना होगा कि अंग्रेज़ चले गये लेकिन अंग्रेज़ी छोड़ गये; अंग्रेज़ी के पीछे छूटने का मतलब सिर्फ़ भाषा से नहीं है इसका अर्थ यह भी है कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद अंग्रेज़ी नौकरशाही, सेना और पुलिस के औपनिवेशिक ढाँचे को ही अपना लिया गया क्योंकि वह भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए भी अपने हितों की सेवा के लिए उपयुक्त था। इसलिए लूट और दमन बदस्तूर जारी रहा, बस शासक वर्ग बदल गया। जब दमन का बना-बनाया तंत्र आज़ादी के साथ मुफ़्त मिल रहा था तो उसे बदलने की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं थी। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया एक्ट 1935’ के 321 धाराओं में से 250 को हू-ब-हू भारतीय संविधान में अपना लिया गया और आईपीसी तो अंग्रेज़ों के ज़माने से चली आ रही है जिनमें नयी धाराएँ जोड़ी गयी हैं लेकिन पुरानी सभी धाराएँ लगभग वैसी ही हैं। लिखित के साथ-साथ अलिखित हथकण्डे भी उन्हीं से सीखकर उसे ख़ूब माजा गया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पूँजीवादी सत्ता के लिए अचूक संजीवनी बूटी है। अंग्रेज़ों ने इसे स्वतंत्रता आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए इस्तेमाल किया और आज़ाद देश में सभी सरकारें इसे अपने-अपने ढंग से मज़दूरों-मेहनतकशों की एकता तोड़ने, उनके संघर्षों को कमज़ोर करने के लिए करती आयी हैं। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आज़ादी के दौरान क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने वालों, अंग्रेज़ों के तलवे चाटने वालों, उन्हें माफ़ीनामा लिखने वालों, आज़ादी की पूर्वसंध्या पर तिरंगा जलाने वालों और महात्मा गाँधी की हत्या करने वालों, आरएसएस और अन्य सहयोगी संगठनों पर कभी कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी जिससे इनको प्रभावी तौर से रोका जा सके। भारतीय पूँजीवाद को आरएसएस की आवश्यकता थी और इसलिए इसे ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की तरह अपने क़रीब बाँधे रखा। समय-समय पर ज़रूरत के अनुसार ज़ंजीर कस दी जाती रही या ढीली कर दी जाती रही। आज पूँजीवाद की ज़रूरत के अनुसार इस खूँखार कुत्ते को भारत के पूँजीपति वर्ग ने सत्ता ही सौंप दी है।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे भारत के पूँजीपति वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के बारे में। सत्ता हासिल करने के बाद भारत का पूँजीपति वर्ग इतना सशक्त नहीं था कि अपने बल-बूते पूँजीवाद के फलने-फूलने के लिए आवश्यक बुनियादी और अवसंरचनागत उद्योगों का ताना-बाना खड़ा कर सके। उसके पास आरम्भिक पूँजी और तकनोलॉजी की कमी थी। इन आवश्यकताओं को पूरा करने की दो राहें थीं; एक साम्राज्यवादी देशों पर पूर्ण-निर्भरता और दूसरा जनता की गाढ़ी कमाई की पाई-पाई का दोहन; इन दोनों में से यहाँ के पूँजीपति वर्ग ने दूसरा रास्ता अपनाया। लेकिन पूँजीपति वर्ग सीधे जनता का पैसा नहीं लूट सकता था और न ही राज्य उसे सीधे लूटकर पूँजीपतियों को थमा सकता था। इसलिए इन्होंने मिश्रित अर्थयव्यवस्था की नीति अपनायी। यानी सार्वजनिक क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र और निजी क्षेत्र। इसे नेहरू ने ‘समाजवादी नमूने के समाज के विकास’ का नाम दिया। जनता की गाढ़ी कमाई चूस कर देश का विकास आरम्भ हुआ और जनता के पैसे से बुनियादी और अवसंरचनागत उद्योगों को खड़ा किया गया। बुनियादी और अवसंरचनागत उद्योग जैसे इस्पात कारख़ाने, रेल, यातायात और परिवहन, बिजली, संचार आदि सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गये। इनमें पूँजी निवेश अधिक और मुनाफ़ा लम्बे कालक्रम में हासिल होना था। वहीं उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन निजी क्षेत्र को सौंपा गया जिसमें लागत सापेक्षिक रूप से कम और मुनाफ़ा जल्द हासिल होना था। इस योजना का आधार 1944 का बॉम्बे प्लान या टाटा-बिड़ला प्लान था। देश की मज़दूर-मेहनतकश आबादी की कमाई लूट कर देश में बुनियानी और अवसंरचनागत उद्योग खड़े किये गये ताकि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़ा कमाने का काम सुगम हो सके। मतलब ‘हर्रे लगे न फिटकरी रंग चोखा’। उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के शुरुआत से ही देश में कई बड़े बैंक थे जिनमें सबसे बड़ा बैंक ‘इम्पीरियल बैंक’ था। लेकिन दूर-दराज़ के इलाक़ों में भी सेविंग स्कीमें थीं जैसे पोस्ट ऑफ़िस सेविंग स्कीम जो 1882 में खोली गयी थी। जनता की मेहनत की कमाई तक पहुँच के लिए संस्थान पहले से मौजूद थे जिन पर 1948 के बाद नेहरू ने अधिक बल दिया जो कि पूँजी के संचय के लिए लाज़िमी भी था। 1969 में बैंकों के राष्ट्रीकरण ने निवेश के लिए पूँजी की उपलब्धता को बढ़ा दिया। कह सकते हैं कि मिश्रित अर्थव्यवस्था की आड़ में बेहद कुशलतापूर्वक कांग्रेस ने पूँजीपति वर्ग की सेवा की, उसके हितों को साधा और जनता की गाढ़ी कमाई को चूस कर पुल, सड़कें, संचार, परिवहन बनाया गया और जनता के बीच बढ़ रहे मोहभंग पर रस्मी सुधारवाद का नाटक कर पानी के छींटे भी डाले। सीपीआई, सीपीएम और नामधारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी इन नीतियों का समर्थन कर न केवल जनता की पीठ में छुरा घोंपा बल्कि उनकी राजनीतिक चेतना को भी कुन्द किया जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
नेहरूवियाई ‘समाजवाद’ के चोगे की सीवन जल्द ही उधड़ने लगी और 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही भारत की अर्थव्यवस्था में ठहराव आने लगा। 1970 का दशक मन्दी का दशक रहा। चार पंचवर्षीय योजनाओं और तीन वार्षिक योजनाओं के कुल पूँजी निवेश को देखें तो सार्वजनिक क्षेत्र में पूँजी निवेश का प्रतिशत अनुपात निजी क्षेत्र की तुलना में बढ़ता गया। लेकिन जल्द ही मिश्रित अर्थव्यवस्था या तथाकथित समाजवाद के अन्तरविरोध सामने आने लगे। 1960 के दशक में जो संकट आया था और जो 1970 के दशक में गहराया था, वह राजकीय इजारेदार पूँजीवाद के ढाँचे के भीतर पूँजी संचय का संकट था। बड़ा पूँजीपति वर्ग और साथ ही नवोदित मँझोला व छोटा पूँजीपति वर्ग ‘धन्धा करने की पूरी सहूलियत’ की माँग कर रहा था, जो कि नेहरूवियाई समाजवाद के ढाँचे में बाधित थी। हर प्रकार के सरकारी विनियमन व नियंत्रण से उसे छुटकारा चाहिए था, जिसे उसने स्वयं अपनी ही ज़रूरत से एक समय स्थापित किया था। इस संकट की ही अभिव्यक्तियाँ थीं उस दौर में बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, खाद्यान्न संकट, आदि। एक ओर मध्य वर्ग, निम्न पूँजीपति वर्ग और मेहनतकशों के सपने टूट रहे थे, वहीं दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के पालने में पला शिशु निजी पूँजीपति वर्ग अब बड़ा हो चला था और पालना उसके विकास को रोक रहा था। पूँजीवादी हितों की नुमाइन्दगी करने वाले बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों ने पूँजी पर राज्य के विनियमन यानी लाइसेंस, क़ीमतों पर नियंत्रण, आयात पर नियंत्रण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर रोक, एमआरटीपी नियंत्रण व सब्सिडी आदि पर सवाल उठाने शुरू कर दिये।
इस दौर में विश्व स्तर पर भी 1970 के दशक में नवउदारवाद के युग की शुरुआत होती है। अपना स्वर्णिम युग जीने के बाद 1960 के दशक के आख़िरी वर्षों में ही अमेरिकी व यूरोपीय पूँजीवाद पर संकट के बादल मण्डराने लगे थे और इसके साथ ही क्रमिक प्रक्रिया में पश्चिम में कल्याणकारी राज्य की नीतियों को समाप्त करना शुरू कर दिया। चूँकि अमेरिकी व आम तौर पर पश्चिमी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ मुनाफ़े की दर का संकट झेल रही थीं, इसलिए पहले उन्होंने अपने यहाँ वित्तीय विविनियमन किये, अमेरिका ने लचीली विनिमय दर स्थापित की, श्रम बाज़ार का भी कुछ उदारीकरण किया और फिर तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों के पूँजीपति वर्ग पर भी दबाव बनाया कि वे भी वित्तीय विविनियमन करें और श्रम बाज़ार को लचीला बनायें ताकि पश्चिमी साम्राज्यवादी पूँजी को इन देशों में और खुल कर सस्ते श्रम की लूट की छूट मिले। अपने कारणों से एशिया व अरब अफ़्रीका और साथ ही लातिन अमेरिका के तमाम पूँजीवादी देशों का शासक वर्ग भी उदारीकरण की आवश्यकता महसूस कर रहा था। विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोष ने तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों के आर्थिक संकट का लाभ उठाते हुए उन पर विदेशी पूँजी के लिए अपने दरवाज़े खोलने का दबाव बनाया यानी उन्हें विदेशी व्यापार और विदेशी निवेश पर लगी तमाम पाबन्दियों को हटाने के लिए मजबूर करने का प्रयास किया। कुछ देशों ने (जैसे कि लातिन अमेरिका के कुछ देश) इस प्रकार की नीतियों को ज्यों का त्यों लागू किया, जिन्हें ‘सैप’ यानी ‘स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट’ की नीति भी कहा जाता हैा इसके आरम्भिक प्रयोग लातिन अमेरिका के देशों में हुए और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपने से लेकर समूची अर्थव्यवस्था के नवउदारवादी पुनर्गठन के भयंकर परिणाम सामने आये।
भारत के सन्दर्भ में कहा जाये तो यहाँ के पूँजीपति वर्ग ने बेहद कुशलता से इन नीतियों को लातिन अमेरिका के विपरीत अपने हितों के अनुसार बदलकर और विलम्बित प्रक्रिया में लागू किया जिसके कारण भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था उस प्रकार साम्राज्यवाद पर निर्भर नहीं हुई और न ही वह उस प्रकार औंधे मुँह गिरी जिस प्रकार लातिन अमेरिका के कुछ देशों के साथ हुआ। नतीजतन, यहाँ उस प्रकार जनाक्रोश फूट कर सड़कों पर भी नहीं बहा जिस प्रकार लातिन अमेरिकी देशों में हुआ था। अक्सर यह बात कही जाती है कि भारतीय शासक वर्ग अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में नवउदारवादी नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर था। लेकिन ऐसा नहीं है और इसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं कि किस प्रकार मिश्रित अर्थव्यवस्था के विनियमन में निजी पूँजी का दम घुट रहा था और वह लाइसेंस, सब्सिडी, परमिट, श्रम क़ानूनों, क़ीमतों पर नियंत्रण, आयात पर नियंत्रण आदि से पीछा छुड़ाकर मुक्त बाज़ार में गोते लगाना चाहती थी। सिर्फ़ बाहरी परिस्थितियाँ ही नहीं बल्कि आन्तरिक परिस्थितियाँ भी नवउदारवाद के लिए दबाव बना रही थीं। आधिकारिक तौर पर जुलाई 1991 में नवउदारवाद की नीतियों की घोषणा से पहले ही 1980 के दशक में राजीव गाँधी नवउदारवाद के सबसे मुखर समर्थक बने और उनकी सरकार ने सीमित हद तक अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। 30 उद्योगों में लाइसेंस की आवश्यकता हटायी तथा और साथ ही कई परिवर्तन किये गये।
लेकिन पूरे ढोल-ताशे, तोरण और बन्दनवार के साथ, विकास के बड़े-बड़े वायदों और रोज़गार के स्वर्णिम अवसरों के सपने दिखा कर उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत 24 जुलाई 1991 को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव, वित्त मंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के समय में की गयी। यह दावा किया गया कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से देश में रोज़गार सृजन होगा। इन तीनों ने मिल कर ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ यानी धन-समृद्धि के ऊपर से रिस कर नीचे जाने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। ऊपर से नीचे का सच तो मेहनतकश लोग अपनी ज़िन्दगी से जानते ही हैं! नीचे से निचोड़कर सारा धन ऊपर की ओर ज़रूर चला जा रहा है और ऊपर से रिसकर केवल ग़रीबी, बेरोज़गारी और बर्बादी आम मेहनतकश जनता के हिस्से आ रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो देश में 1990 में जहाँ मात्र 2 अरबपति (डॉलर अरबपति) थे वहीं 2021 में 177 कैसे हो गये? ‘हुरुन ग्लोबल रिच लिस्ट’ (हुरुन द्वारा बनायी विश्व में अमीरों की सूची) के अनुसार पूरे विश्व में अरबपतियों की संख्या में तीसरा स्थान भारत का है। साथ ही वैश्विक भुखमरी सूचकांक में 107 देशों की सूची में भारत 94वें स्थान पर है। स्वास्थ्य की पहुँच के क्षेत्र में भारत का स्थान 189 देशों में 179वाँ है जो कि बंगलादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, और कई अफ़्रीकी देशों से भी नीचे है। 1995 से लेकर 2009 तक जीडीपी के औसत 6 से सात और कई बार 8 से ऊपर पहुँचने पर सीना चौड़ा कर विकास का दावा करने वाली सरकारें यह नहीं बतातीं कि यह विकास रोज़गारविहीन विकास था क्योंकि 1991 से लेकर 2018 तक बेरोज़गारी की दर 5 प्रतिशत से 6 प्रतिशत के बीच बनी हुई थी जो 2020 में 56 सालों में सबसे ज़्यादा यानी 8.9 प्रतिशत हो गयी। 2021 में तो यह 9.17 प्रतिशत हो गयी। ऐसे विकास की जनता के लिए क्या उपयोगिता जो रोज़गार के अवसर ही न सृजित करे। शेयर बाज़ार में उछाल, पूँजीपतियों की तेज़ रफ़्तार महँगी गाड़ियों, प्राइवेट जेट विमानों, आलीशान अट्टालिकाओं और विदेश यात्राओं की संख्या के आधार पर मापा गया विकास आम मेहनतकश आबादी की थाली में दो जून की रोटी तक नहीं पहुँचाता।
आम आबादी के लिए तो नवउदारवाद तंगी, बेरोज़गारी, कुपोषण और भुखमरी ही लेकर आया है। दिहाड़ी पर काम करने वाली 50 करोड़ आबादी 10 साल पहले वास्तव में जितना कमाती थी आज भी लगभग उतना ही कमाती है जबकि क़ीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। देश में 60 प्रतिशत आबादी कुपोषण का शिकार है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो द्वारा 2015-16 में शहरी आबादी में किये गये सर्वे के अनुसार औसत खानपान में प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, थियामिन, नियासिन आदि पोषक तत्वों की काफ़ी कमी है। यही है देश की मज़दूर मेहनतकश आबादी के लिए नवउदारवाद की स्वर्णिम सौगात।
नवउदारवाद और मज़दूर आन्दोलन
1950 के दशक के आरम्भ से ही संशोधनवाद के मार्ग पर निकल पड़ी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) नेहरू और कांग्रेस की नीतियों को समाजवाद की दिशा में क़दम मानती थी और राष्ट्रीकरण की रट लगाती थी। भाकपा के अनुसार आज़ादी के बाद कांग्रेस जनवादी कार्यभारों को पूरा कर रही थी इसलिए कम्युनिस्टों को इसका सहयोग करना चाहिए। अत: इन्होंने वर्ग सहयोग की लाइन दी। जब पार्टी की लाइन ही वर्ग सहायोगवाद की हो गयी तब समाजवाद के समर्थन और सर्वहारा वर्ग को क्रान्तिकारी चेतना और उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचय कराने की बात तो स्थगित हो गयी। 1964 में एक संशोधनवादी पार्टी के तौर पर ही भाकपा से अलग हुई माकपा सीधे तौर पर नेहरू की गोद में नहीं बैठी और उसने नेहरू को समझौतापरस्त बोलकर उसपर जनवादी कार्यभारों को पूरा करने के लिए सड़क और संसद में दबाव बनाने की बात की। लेकिन असल में वह भी एक संशोधनवादी पार्टी थी, न कि मज़दूर वर्ग की कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी। अपने गरमा-गरम भाषणों और चाय की प्याली में तूफ़ान उठाने के अलावा इन संसदमार्गी जड़वामनों ने बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना उन्नत बनाने के लिए कोई ठोस राजनीतिक कार्रवाई नहीं की और मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के गोल चक्कर में ही घुमाते रहे। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी का अन्तिम लक्ष्य होता है कि वह बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना करने की ऐतिहासिक मुहिम में मेहनतकश जनसमुदाय को नेतृत्व दे। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कम्युनिस्ट मज़दूरों और सभी क्रान्ति-पक्षधर वर्गों के जन-संगठन बनाते हुए, आर्थिक सुधारों-माँगों-रियायतों के लिए अर्थवादी नहीं बल्कि राजनीतिक रूप से लड़ते हुए जनता की जुझारू संगठनबद्धता को बढ़ाते हैं, रूढ़ियों से मुक्ति और वर्ग-चेतना को प्रखर बनाने के लिए सतत् सामाजिक आन्दोलन करते हैं और सांस्कृतिक कार्य करते हैं। लेकिन ऐसा करने की जगह मज़दूर वर्ग को ये संशोधनवादी पार्टियाँ सुधारवाद, पैबन्दसाज़ी, अर्थवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद और ट्रेड यूनियन की गलियों में घुमाती रहीं।
1950 के उत्तरार्द्ध से भाकपा एवं अपने जन्म के काल से ही माकपा और 1980 के दशक से भाकपा (माले) का इतिहास जब ऐसा रहा तब उनसे 1991 में नवउदारवाद के विरुद्ध जुझारू प्रतिरोध की उम्मीद बेकार थी और हुआ भी ऐसा ही। नवउदारवाद ने मज़दूरों का ख़ून बहा कर मिले श्रम क़ानूनों को तिलांजलि दे दी और ये संसदमार्गी संशोधनवादी पार्टियाँ महज़ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों और कर्मचारियों को लेकर नपुंसक क़िस्म के विरोध की रस्मअदायगी करती रहीं और 93 प्रतिशत असंगठित मज़दूर वर्ग को तो संगठित करने का इन्होंने कभी ढंग से प्रयास ही नहीं किया। आज सारे पुराने श्रम क़ानून लगभग समाप्तप्राय हैं और मज़दूर जानलेवा हदों तक असुरक्षा की स्थिति में काम करने को मजबूर हैं। मज़दूर वर्ग की जीवन व कार्यस्थिति भयंकर है। खेल और मनोरंजन की क्या बात करें जब मामूली बीमारियों के इलाज की भी सुविधा नहीं है। नये लेबर कोड वास्तव में मज़दूरों की पूँजीपतियों द्वारा बिना किसी रोक-रुकावट लूट को क़ानूनी बनाने के लिए ही लाये गये हैं। इसके अलावा केरल, अतीत में पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में संसदीय वामपन्थी पार्टियों की सरकारों ने स्वयं नवउदारवाद की नीतियों को पूरी निष्ठा से लागू किया है। वर्ग सहयोग की दिशा में बेहद संजीदगी से क़दम बढ़ाते हुए प्रथम यूपीए सरकार में शामिल होकर भारत में उदारीकरण-निजीकरण को सही तरीक़े से लागू करने का रास्ता साफ़ किया और इस दिशा में नयी-नयी नीतियों के जन्मदाता बने। 2005 में संसद में बैठकर इन्होंने सेज़ अधिनियम पास करवाया। सेज़ यानी स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन जिसके तहत ऐसे औद्योगिक क्षेत्र बनाये गये जहाँ किसी भी तरह का श्रम क़ानून लागू नहीं होता।
इस प्रकार इन संशोधनवादी पार्टियों ने मज़दूर वर्ग के साथ ऐतिहासिक ग़द्दारी की। झूठ, विश्वासघात और फरेब का इतना लम्बा काल झेल कर मेहनतकश आबादी के बड़े हिस्से का इनसे मोहभंग हो चुका है और इनका आधार अब मूलत: और मुख्यत: संगठित क्षेत्र के पक्के कर्मचारियों और एक हद तक कुछ राज्यों में छोटे व मँझोले व्यवसायियों और मँझोले व धनी किसानों-कुलकों में है। मज़दूर वर्ग के एक हिस्से में इन्हें लेकर कुछ भ्रम अभी भी हैं, लेकिन उन्हें निरन्तर क्रान्तिकारी प्रचार और संघर्षों के ज़रिए इन्हें बेनक़ाब करके ही तोड़ा जा सकता है। सच्चाई यह है कि वाह्य आवरण में आम मज़दूरों को कम्युनिस्ट दिखने वाली ये पार्टियाँ अपनी अर्न्तवस्तु में बुर्जुआ ही होती हैं। संशोधनवादी पार्टियों द्वारा मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को सुधारवाद, अर्थवाद और संशोधनवाद के पंककुण्ड में ले जाने का सबसे ज़्यादा फ़ायदा फ़ासीवादी शक्तियों को मिला जिन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था के संकट और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के अभाव में मज़दूर आन्दोलन के एक छोटे हिस्से में और व्यापक टुटपुँजिया आबादी में प्रतिक्रिया का आधार तैयार किया।
राम जन्मभूमि आन्दोलन, बाबरी मस्जिद ध्वंस, 1991 के संकट के बाद और 1995 तक उदारीकरण-निजीकरण के विनाशकारी परिणामों के बाद भारत में फ़ासीवादी आन्दोलन पहले से कहीं अधिक आक्रामक हो कर उभरा। एक करोड़ 42 लाख सदस्यों वाली एटक और 60 लाख से भी ज़्यादा की सदस्यता का दम्भ भरने वाला सीटू और बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सरकारें चलाने वाली माकपा और भाकपा इस आक्रामक फ़ासीवादी सैलाब के समय किनारे बैठ कर धार्मिक सौहार्द्र का कीर्तन करती रहीं और साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर कभी कांग्रेस तो कभी मुलायम सिंह यादव का पुछल्ला बनी रहीं। जब 2002 में जलते गुजरात के विरोध में सड़कों पर उतरने की और फ़ासीवादियों से निपटने की, मज़दूरों के लड़ाकू संगठन बनाने की और ख़ाकी चड्डीधारियों का मुँहतोड़ जवाब देने की ज़रूरत थी, तब भी इतनी बड़ी सदस्य संख्या लेकर इन संशोधनवादी पार्टियों को संसद के एसी सभागार फ़ासीवाद से लड़ने के ज़्यादा कारगर उपाय लगे। वास्तव में, ये मज़दूर वर्ग का कोई क्रान्तिकारी आह्वान करने की क्षमता खो चुके थे और अगर दहाड़ने के लिए भी मुँह खोलते हैं तो मुँह से म्यांऊँ ही निकल जाता है। इनका यह इतिहास दर्शाता है कि फ़ासीवाद को एक ‘अप्रतिरोध्य उभार’ बनाने में अगर किसी एक शक्ति की सबसे अधिक भूमिका है तो वह संशोधनवाद ही है।
पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों और राज्यसभा चुनावों के दौरान भाकपा-माकपा का बड़ा जनाधार खिसक कर भाजपा की ओर चला गया। इसे जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को अर्थवाद और संशोधनवाद से बधिया कर देने और उनकी राजनीतिक चेतना को कुन्द करने के परिणाम के तौर पर देखा जा सकता है। देश के अन्य हिस्सों में भी मज़दूर, निम्न-मध्यवर्ग और आम मेहनतकश वर्ग के बीच क्रान्तिकारी पार्टी और राजनीति की नामौजूदगी की वजह से बढ़ते आर्थिक असुरक्षा व संकट काल में फ़ासीवादी ताक़तों को अपने पैर पसारने का अवसर मिल जाता है।
नवउदारवाद के दौर में फ़ासीवाद का उभार
पूँजीवाद जिस असमाधेय संकट से गुज़र रहा है उससे निपटने के लिए दुनिया के तमाम देशों में पूँजीपति वर्ग सबसे प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपन्थी, मज़दूर-विरोधी और फ़ासीवादी सरकारों को चुन रहा है। भारत के सन्दर्भ में हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी मोदी सरकार सत्ता में आयी। यहाँ के पूँजीपति वर्ग को ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो लोहे के हाथों से उन नीतियों को लागू करे जो मुनाफ़े की राह में सभी परेशानियों को हटा दें और पूँजी के लिए खुले चारागाह का निर्माण करें। इसके लिए आदर्श प्रत्याशी मोदी और पार्टी भाजपा ही थे। इसलिए मोदी सरकार जब 2014 में सत्ता में आयी तो सबसे पहले श्रम क़ानूनों में बदलाव किया। आज यह बदलता-बदलता समाप्त प्राय हो गया है और उनकी जगह बस चार लेबर कोड रह गये हैं। ये कोड मज़दूरों को ग़ुलामों की स्थिति में ला देंगे। सारे सार्वजनिक संस्थान औने-पौने दामों में बेचे जा रहे हैं। पूँजीपतियों की सारी मुँहमाँगी मुरादें पूरी हो रही हैं इसलिए तो मुकेश अम्बानी विश्व में आठवाँ और एशिया में सबसे अमीर व्यक्ति बन गया है।
एक ओर जहाँ धन कुछ मुट्ठी भर आबादी के हाथों संकेन्द्रित हो रहा है वहीं भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के 30 वर्षों ने बड़े पैमाने पर छोटे पूँजीपति वर्ग को उजाड़ा, छोटे पैमाने के उत्पादकों, दुकानदारों, वेतनभोगियों और साथ ही ग्रामीण निम्न-पूँजीपति वर्ग को भी उजाड़ा है। बड़े पैमाने पर लोग सड़कों पर आ गये और जो सड़कों पर नहीं आये, उनके सिर पर भी लगातार छँटनी और तालाबन्दी, नौकरी से निकाल दिये जाने, ठेके पर कर दिये जाने की तलवार लटकती रहती है। कहने का अर्थ है निम्न-पूँजीपति वर्ग के सामने भविष्य की असुरक्षा और अनिश्चितता बेहद तेज़ रफ़्तार से बढ़ी है। भाजपा और आरएसएस ने इसी असुरक्षा और अनिश्चितता का फ़ायदा उठाया। इस अनिश्चितता और असुरक्षा से पैदा हुए ग़ुस्से, बौखलाहट, चिड़चिड़ाहट और निराशा को संघ परिवार ने अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों और शरणार्थियों की ओर मोड़ दिया। मुसलमानों, शरणार्थियों, ईसाइयों आदि को सभी संकट, परेशानियों और असुरक्षा की वजह बताते हुए इनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उन्माद पैदा किया गया। संघ परिवार का पैदा किया साम्प्रदायिक उन्माद तत्कालीन आर्थिक संकट की वजह से उभरा और फ़ासीवाद भारत में पहली बार 1980 के दशक में एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन बनकर उभरा। लेकिन विचारधारात्मक, संगठनात्मक और संस्थाबद्ध कामों की तैयारी संघ 1925 से ही कर रहा था। शाखाओं, सांस्कृतिक केन्द्रों, शिशु मन्दिरों में साम्प्रदायिक, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी ज़हर घोल-घोल कर पिलाया जाता रहा और आज इन संस्थाओं से निकले लोग नौकरशाही, पुलिस, सेना, न्यायपालिका, विश्वविद्यालयों से लेकर नुक्कड़-चौराहों पर संघ के विचारों के रक्षक और प्रचारक बने बैठे हैं। बहरहाल, आज कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है जो कि व्यापक मेहनतकश अवाम को क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जगा सके, गोलबन्द कर सके, संगठित कर सके और समझा सके कि उनके दु:खों, तकलीफ़ों और असुरक्षा की असल वजह पूँजीवाद है न कि कोई धर्म या समुदाय। आज ऐसी पार्टी का निर्माण करते हुए मज़दूर वर्ग के बीच व्याप्त सभी प्रकार के विजातीय विचारों से लड़ना होगा और उनकी राजनीतिक चेतना उन्नत करनी होगी। मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलानी होगी और उसके बीच व्याप्त रुढ़िवादी, अवैज्ञानिक, अतार्किक विचारों से सतत् संघर्ष करना होगा। केवल इसी के ज़रिए मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश अवाम फ़ासीवादियों को मुँहतोड़ जवाब दे सकती है।
अन्तत: 30 वर्षों के नवउदारवाद के काल ने देश में वर्गों का ध्रुवीकरण ख़तरनाक सीमा तक बढ़ा दिया है। करोड़ों-करोड़ बदहाल, निराश और बेघर आबादी के शीर्ष पर मुट्ठी भर आबादी आपराधिक अय्याशी का जीवन जी रही है और आने वाले समय में बढ़ती महँगाई, छँटनी-तालाबन्दी, बेरोज़गारी को देखते हुए यह ध्रुवीकरण और गहराने जा रहा है। आर्थिक संकट से पैदा असन्तोष को दबाने के लिए फ़ासीवाद के हमले भी और आक्रामक होंगे जिसके संकेत मिल रहे हैं। क्रान्तिकारी शक्तियों को सर्वहारा वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार-प्रसार के काम को युद्ध स्तर पर संगठित करना होगा और मज़दूर मेहनतकश वर्ग को इन राजनीतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना होगा।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन