मेहनतकश जनता के ख़ून-पसीने से खड़ी हुई सार्वजनिक परिसम्पत्तियों को पूँजीपतियों के हवाले करने में जुटी मोदी सरकार
– सम्पादकीय
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की फ़ासीवादी सरकार जनता को लूटने और पूँजीपतियों के हाथों लुटवाने के नित नये कार्यक्रम पेश कर रही है। नोटबन्दी हो या सार्वजनिक उपक्रमों की सरकारी हिस्सेदारी की बिक्री हो; बढ़ती महँगाई हो या श्रम क़ानूनों की बर्बादी हो, हर मामले में हम यह देख सकते हैं कि “अच्छे दिनों” का नारा देकर सत्ता में आयी भाजपा ने मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम मेहनतकश जनता के जीवन को नारकीय हालात में धकेल दिया है। देश की जनता ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण, अशिक्षा, जानलेवा महँगाई, बढ़ती बेरोज़गारी और इलाज के अभाव में अकाल मृत्यु तक का शिकार हो रही है लेकिन दूसरी ओर थैलीशाहों की तिजोरियाँ रुपयों-पैसों से उफनती जा रही हैं। नेताशाहों और अफ़सरशाहों के ऐशोआराम में कोई कमी-बेशी नहीं हो रही है लेकिन जनता के हलक़ से पहला और आख़िरी निवाला तक निकाल लेने के लिए सरकार प्रतिबद्ध दिखायी दे रही है।
1 फ़रवरी 2021 के अपने बजट भाषण में मोदी सरकार की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की थी कि सरकार अवरचनागत ढाँचे की पुरानी परियोजनाओं के लिए राष्ट्रीय मौद्रीकरण कार्यक्रम यानी ‘नेशनल मोनिटाइज़ेशन पाइपलाइन’ शुरू करेगी। सरकार के अनुसार इसके तहत आठ मंत्रालयों से जुड़ी परिसम्पत्तियों जैसे हाइवे सड़कों, रेलवे लाइनों, मोबाइल टावरों, तेल-गैस पाइप लाइनों, स्टेडियमों इत्यादि को लीज़ या किराये पर देने का रास्ता खोला जायेगा। हालात के अनुसार सरकार इन परिसम्पत्तियों को उपयोग, रखरखाव और वसूली हेतु भी दे सकती है तथा इन्हें निजी कम्पनियों की साझेदारी में भी चला सकती है। विगत 23 अगस्त को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने नीति आयोग के अधिकारियों और मौद्रीकरण किये जाने वाले मंत्रालयों-विभागों के सचिवों के साथ मिलकर एक संवाददाता सम्मलेन किया था। इस दौरान लच्छेदार शब्दावली में बार-बार यह कहा गया कि सरकार परिसम्पत्तियों बेच नहीं रही है बल्कि मात्र चार वर्ष के लिए लीज़ पर और किराये पर दे रही है। वित्तमंत्री और नीति आयोग के कठपुतली अधिकारियों का बार-बार कहना था कि सरकार प्राइवेट क्षेत्र के निजी निवेशकों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की पूर्ण परियोजनाओं को खोल देना चाहती है और उन परिसम्पत्तियों से पूरी क्षमता में कमाई करना चाहती है ताकि वह इस पैसे का इस्तेमाल अन्य विकास कार्यों में कर सके!
कुछ लोगों को यह बात काफ़ी समझदारी भरी लग सकती है लेकिन सरकारों की आर्थिक नीतियों के पिछले इतिहास को देखते हुए यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि यह मौद्रीकरण कार्यक्रम कुछ और नहीं बल्कि सरकारी परिसम्पत्तियों को पूँजीपतियों को लीज़ और किराये पर देने की कवायद का नाम है ताकि वे इन सम्पत्तियों पर मनमाना और मोटा मुनाफ़ा कूट सकें। कुल मिलाकर मौद्रीकरण सरकारी सम्पत्तियों को बेचने और उनका निजीकरण करने के रास्ते का ही मील का पत्थर साबित होने जा रहा है। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी 24 फ़रवरी 2021 को सार्वजानिक क्षेत्र की कम्पनियों पर आयोजित एक वेबिनार में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि सरकार का काम सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को सम्भालना नहीं है बल्कि कुछ विशिष्ट रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर उनकी सरकार तमाम मूल्यवान सम्पत्तियों को उचित क़ीमत के बदले निजी हाथों में सौंपने के लिए कटिबद्ध है। ये तमाम सरकारी उद्यम जनता के ख़ून-पसीने की कमाई के बूते खड़े किये गये थे लेकिन मोदी सरकार इनको औने-पौने दामों पर निजी पूँजीपतियों को सौंपने जा रही रही है और इसे जनहित में उठाया गया फ़ैसला क़रार दिया जा रहा है। फ़ासिस्ट मोदी सरकार खुले तौर पर यह घोषणा कर रही है कि वह पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धन कमेटी के अलावा कुछ नहीं है।
‘राष्ट्रीय मौद्रीकरण कार्यक्रम’ में क्या होगा?
राष्ट्रीय मौद्रीकरण कार्यक्रम के तहत सरकार ने वित्तवर्ष 2022 से 2025 के बीच आठ मंत्रालयों के तहत आने वाली सरकारी परिसम्पत्तियों को किराये पर देकर 6 लाख करोड़ रुपये हासिल करने का लक्ष्य रखा है। ये मंत्रालय या विभाग रेलवे, टेलीकॉम, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग, बिजली, नागरिक उड्डयन, युवा मामले और खेल, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस और पोर्ट्स शिपिंग एवं वाटरवेज (इसका नाम पहले जहाज़रानी मंत्रालय था) होंगे जिनसे जुड़ी सम्पत्तियों को निजी हाथों में सौंपा जायेगा। मोदी सरकार के अनुसार इन परिसम्पत्तियों का स्वामित्व सरकार के पास ही रहेगा लेकिन किराये या लीज़ पर देकर फ़िलहाल कमाई नहीं देने वाली या कम कमाई देने वाली सरकारी सम्पत्तियों से मुद्रा हासिल की जा सकेगी और इससे कमाये गये पैसे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए किया जा सकेगा! सरकार को जनता की भलाई की कितनी चिन्ता है यह बात हम कोरोना महामारी के पूरे दौर के बाद तो और भी भली-भांति जान गये हैं। जब हमने अपने परिजनों, मित्रों और क़रीबियों को मौत के मुँह में समाते देखा तब यह तथाकथित जनहितकारी सरकार न केवल हाथ पर हाथ धरे बैठी थी बल्कि अपनी जनद्रोही नीतियों के द्वारा हमें भी शमशानों और क़ब्रिस्तानों में पहुँचाने का बख़ूबी इन्तज़ाम करने में लगी थी। अब समझ लेते हैं कि मोदी सरकार की राष्ट्रीय मौद्रीकरण की योजना के पीछे जनता की भलाई की चिन्ता है, या मुनाफ़े के संकट से जूझ रहे भारतीय पूँजीपति वर्ग के हितों के सरोकार हैं।
भारतीय रेलवे को अपनी परिसम्पत्तियाँ किराये पर देकर (यानी बेचकर) सरकार को 1 लाख 52 हज़ार करोड़ रुपये देने का लक्ष्य दिया गया है। इसके तहत रेलवे के 400 रेलवे स्टेशन, 90 यात्री गाड़ियाँ, 256 सामान रख-रखाव के शेड, 4 पर्वतीय रेलवे, 15 रेलवे स्टेडियम, कोंकण रेलवे ट्रैक का 741 किलोमीटर, फ़्रेट कोरिडोर का 674 किलोमीटर, ट्रैक पर ओवरहेड इक्विपमेट का 1400 किलोमीटर इत्यादि को पूँजीपतियों के हाथों में सौंपा जायेगा। सीधी-सी बात है पूँजीपतियों को रेलवे के किराये और माल ढुलाई के भाड़े में बेतहाशा बढ़ोत्तरी करने की पूरी छूट मिल जायेगी। तथाकथित प्राइवेट पार्टनर जनता को दोनों हाथों से लूटेंगे और अकूत मुनाफ़ा कमायेंगे। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग को 1 लाख 60 हज़ार करोड़ की राशि हासिल करने का लक्ष्य दिया गया है। इसके तहत 26,000 किलोमीटर से अधिक हाइवे और सड़कों के रखरखाव की ज़िम्मेदारी निजी कम्पनियों को सौंपकर उन्हें इन पर कर यानी ‘टोल टैक्स’ वसूलने की छूट दी जायेगी। इसके अलावा तेल-गैस पाइपलाइन, 25 हवाई अड्डे, सरकारी गेस्टहाउस, पानी के जहाज़ और पोर्ट, बीएसएनएल के 14,917 मोबाइल टावर, 2 लाख 80 हज़ार किलोमीटर लम्बी फ़ाइबर लाइन निजी कम्पनियों को “किराये पर” दी जायेगी।
अब यह सोचने वाली बात है कि जो पूँजीपति चार साल के दौरान 6 लाख करोड़ रुपये मोदी सरकार को सौंपेंगे, क्या मोदी जी के द्वारा जनता का भला करने की मंशा ज़ाहिर करने के चलते उनका हृदय परिवर्तन हो चुका है? क्या पूँजीपति ख़ैरात बाँटने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं? नहीं! असल में रेलवे, सड़कों, तेल-गैस पाइपलाइनों और अन्य सरकारी सम्पत्तियों से पूँजीपति पहले अरबों-खरबों रुपये कमाया जाना सुनिश्चित करेंगे और उसके बाद ही वे मुनाफ़े के कुछ हिस्से को सरकार के हाथ में दे सकते हैं। और सरकार उस पैसे को फिर से पूँजीपतियों को कभी न चुकाया जाने वाला क़र्ज़ देने, नेताशाही की मोटी तनख़्वाहों, बड़े नौकरशाहों के ऐशोआराम में लुटा देगी। जिस जनता ने पेट पर पट्टी बाँधकर और फाँके करके सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा किया था उसे इनसे सुविधा मिलने की बजाय इनके द्वारा उसकी जेबों पर डाका डाला जायेगा। सरकार का कहना है कि सरकारी उपक्रम घाटे में चल रहे हैं और कौन पूँजीपति घाटे की चीज़ को लेना चाहेगा और वह भी मोटा पैसा ख़र्च करके? असल बात यह है कि बीपीसीएल, टेलिकॉम और रेलवे जैसे तमाम उद्यम घाटे में नहीं चल रहे हैं बल्कि सरकार इन्हें घाटे में दिखाकर बेचने के बहाने ढूँढ़ रही है। और असल बात तो यह है कि जिसे सरकार घाटा कह रही है वह असल में जनसुविधाओं में होने वाला व्यय है और पूँजीपरस्त सरकार नहीं चाहती कि जनता को एक पैसे की भी सहूलियत नसीब हो।
अब मौद्रीकरण की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?
यह तथाकथित मौद्रीकरण कुछ और नहीं बल्कि निजीकरण का ही दूसरा नाम है। वित्तमंत्री के जुमलों में उलझने के बजाय जुमलेबाज़ प्रधानमंत्री मोदी के सत्य वचनों पर ग़ौर करना चाहिए। मोदी जी सीधे तौर पर सार्वजनिक उपक्रमों को सम्भालने में सरकार की ज़िम्मेदारी को नकार रहे हैं। सरकार का काम महज़ पूँजीपतियों को जनता को लूटने का बेहतर माहौल बनाकर देना ही है। फ़ासीवादी मोदी सरकार इस काम को सबसे आक्रामक ढंग से और तेज़ी से कर रही है। इसी के लिए तो देश भर के बड़े पूँजीपतियों ने पिछले दो लोकसभा चुनावों में हज़ारों करोड़ रुपये चन्दे में भाजपा को दिये थे और मोदी को जिताया था। असल में “मौद्रीकरण” कांग्रेस सरकार द्वारा 24 जुलाई 1991 में घोषित तौर पर लागू की गयी उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का ही अगला क़दम भर है। तथाकथित उदारीकरण-निजीकरण की शुरुआत की ज़रूरत को हम थोड़ा अतीत में झाँक कर देख व समझ सकते हैं।
अंग्रेज़ों से हमें समझौते और सत्ता हस्तान्तरण के द्वारा आज़ादी प्राप्त हुई थी। उस समय एक बड़ा समाजवादी कैम्प और दुनिया के स्तर पर समाजवादी आन्दोलन पर अपने उरूज़ पर था। भारत में भी 1946 से 1950 का दौर जनता की जनवादी क्रान्ति की सम्भावनाओं से भरा दौर था जब देश में नौसेना विद्रोह, तेलंगाना किसान विद्रोह, तेभागा किसान विद्रोह और पुनप्रा वायलार किसान विद्रोह हुए थे और उसके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हड़तालों की एक लहर भी जारी थी। लेकिन अपनी विचारधारात्मक व राजनीतिक कमज़ोरियों के चलते भारत के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इन क्रान्तिकारी जनविद्रोहों को एक देशव्यापी क्रान्तिकारी आन्दोलन का स्वरूप नहीं दे सके। उसके पहले भी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी गम्भीर रणनीतिक और रणकौशलात्मक चूकों के कारण राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में लेने के कई मौक़े चूक चुकी थी। भारत के पूँजीपति वर्ग और उसकी पार्टी कांग्रेस ने इसका पूरा लाभ उठाया। कांग्रेस ने समझौता-दबाव-समझौता की नीति के तहत अन्त में सत्ता हथिया ली। भारत का पूँजीपति वर्ग अपने औपनिवेशिक अतीत के कारण कमज़ोर था और उसके पास देश के स्वतंत्र पूँजीवादी विकास हेतु आवश्यक पूँजी का भी अभाव था। इसीलिए तुरन्त मुनाफ़ा देने वाले क्षेत्रों को निजी हाथों में सौंप दिया गया तथा वे क्षेत्र जिनमें पहले बड़े पैमाने के निवेश की दरकार थी, जैसे कि भारी उद्योग, अवरचनागत उद्योग व बुनियादी कुंजीभूत उद्योग, उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के तौर पर सरकार ने अपने हाथों में रखा। सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा करने के लिए पूँजी और कहीं से नहीं बल्कि करों और विभिन्न शुल्कों के रूप में जनता से ही वसूलकर और साथ ही जनता की बचत को एकत्र करके जुटायी गयी। मेहनतकश आबादी के कमरतोड़ शोषण, सरकारी अनुग्रह, आर्थिक छूटों के बूते जैसे-जैसे भारत का पूँजीपति वर्ग अपेक्षाकृत ताक़तवर होता गया वैसे-वैसे उसे तश्तरी में सजाकर औने-पौने दामों पर सरकारी उद्यम सौंपे जाने लगे। 1980 के दशक में ही राजीव गाँधी के समय से इंस्पेक्टर राज और कोटा राज को ख़त्म करने के नाम पर निजी पूँजीपतियों को छूट दी जाने लगी थी और 24 जुलाई 1991 को घोषित तौर पर उदारीकरण-निजीकरण की लुटेरी नीतियों की शुरुआत कर दी गयी।
कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इन नीतियों को जिस रफ़्तार से लागू किया था, आज भाजपा की फ़ासीवादी मोदी सरकार उन नीतियों को कहीं ज़्यादा रफ़्तार से और ज़्यादा दमनकारी तरीक़े से लागू कर रही है। 2009-10 से ही आर्थिक संकट के कारण यह पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी भी है। इस काम को कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा ज़्यादा बेहतर तरीक़े से अंजाम दे सकती है और इसीलिए पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने एकमत होकर भाजपा को सत्ता में पहुँचाने में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था। राष्ट्रीय मौद्रीकरण योजना वास्तव में निजीकरण-उदारीकरण की उसी प्रक्रिया का एक अंग है जो 1991 से जारी रही है और 2014 से मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद और भी ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से जारी है।
मौद्रीकरण से जनता के जीवन पर क्या असर पड़ेगा और हम इसका विरोध कैसे करें?
मौद्रीकरण जैसी नीतियाँ लागू होने के बाद सबसे बड़ा हमला रोज़गार पर होगा। इन सरकारी क्षेत्रों में कार्यरत करोड़ों लोगों के अच्छे-ख़ासे हिस्से को अपने रोज़ी-रोज़गार से हाथ धोना पड़ेगा। रेलवे, सड़क परिवहन, उड्डयन और टेलिकॉम आदि में सरकारी विनिवेश पहले ही जारी है। हम समझ सकते हैं रोज़गार के मामले में और भी भयावह होने वाला है। निजी क्षेत्र में यदि कुछ रोज़गार सृजित होगा भी तो सरकार पहले ही 4 श्रम संहिताएँ लाकर श्रमिकों के हक़ों को कुचलने का भरपूर इन्तज़ाम कर चुकी है। निजी क्षेत्र में काम करने वालों में और उजरती ग़ुलामों में कोई फ़र्क़ नहीं रह जायेगा। निजी कम्पनियाँ मनमाने तरीक़े से मज़दूरों की श्रमशक्ति का शोषण करेंगी। भयंकर बेरोज़गारी के चलते मज़दूर वर्ग की सामूहिक मोलभाव की शक्ति पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा जो कि पहले ही नवउदारवादी हमलों के तीन दशकों में काफ़ी कमज़ोर हो चुकी है, और एक अतिरिक्त बेरोज़गार मज़दूर आबादी पूँजीपति वर्ग के लिए हमेशा मौजूद रहेगी। यानी, जितने पक्के रोज़गार बचे हैं वे तेज़ी से ख़त्म होंगे और जो नये रोज़गार मिलेंगे वे भी अनौपचारिक, ठेका व कैज़ुअल मज़दूर के तौर पर मिलेंगे, जिसमें मज़दूरी भी कम होगी, कोई रोज़गार सुरक्षा नहीं होगी, और स्थायी मज़दूरों को प्राप्त होने वाले तमाम हक़ भी नहीं हासिल होंगे, हालाँकि नये श्रम क़ानून स्थायी मज़दूरों के तमाम बचे-खुचे अधिकारों को भी छीनने वाले हैं।
जनता पर मौद्रीकरण की दूसरी बड़ी मार महँगाई के रूप में पड़ेगी। रेलों-बसों के यात्री किरायों, पेट्रोलियम पदार्थों, माल ढुलाई और खाद्य पदार्थों के दामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी। हाइवे पर जगह-जगह टोल खड़े कर दिये जायेंगे और उन पर मनमाना पैसा वसूल किया जायेगा। आज भी कमरतोड़ महँगाई ने आम जनता का जीना दूभर कर रखा है किन्तु आने वाले समय में हमारी जेब से आख़िरी दमड़ी तक हड़प ली जायेगी।
2014 में सत्ता मिलने के बाद से फ़िलहाल तक भाजपा की दो ही नीतियाँ दिखायी दे रही हैं, पहली है योजनाओं के रंग-बिरंगे नाम रखकर पूँजीपति घरानों की सेवा करो और दूसरी है जनता को साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद की आग में धकेल दो ताकि लोग आपस में ही एक-दूसरे का सिर फोड़ते रहें और अपनी बर्बादी के असली कारणों की तरफ़ ध्यान ही न दें। सरकार में बैठे तमाम मंत्री-सन्तरी और भाजपा का कुत्साप्रचारक आईटी सेल देश की बर्बादी को ही विकास सिद्ध करने और सरकारी की लुटेरी नीतियों का विरोध करने वालों को “देशद्रोही” बताने में लगा रहता है।
वैसे आर्थिक नीतियों के तौर पर देखा जाये तो भाजपा में और कांग्रेस में फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि कांग्रेस जिस काम को शब्दों की चाशनी में डुबोकर और रात के अँधेरे में करती थी भाजपा उसी काम को दिन के उजाले में और कांग्रेस से हज़ार गुणा ज़्यादा बेशर्मी और ज़्यादा तेज़ी के साथ अंजाम दे रही है। साथ ही, एक फ़ासीवादी सरकार होने के नाते दमनकारी होने में भी मोदी सरकार ने आज़ाद भारत की सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है। असल में, तमाम क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ और भाकपा, माकपा जैसे संसदीय लाल जमूरे तक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के प्रति कोई उसूली विरोध नहीं रखते हैं। इनका विरोध केवल तभी तक रहता है जब तक ये ख़ुद विपक्ष में बैठे हों। आपको याद होगा ख़ुद भाजपा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई और निजीकरण जैसे मुद्दों पर ज़मीन सिर पर उठाये रहती थी! लेकिन सत्ता में आने के बाद इन्होंने इन्हीं नीतियों को धड़ल्ले से लागू कर दिया चाहे सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी और उनके मालिकाना हक़ की बिक्री हो या शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निजीकरण को बढ़ावा दिया जाना हो। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू करने के रूप में पूँजीपति वर्ग की सेवा करने का यही रवैया कमोबेश हरेक पूँजीवादी बुर्जुआ पार्टी का रहा है। बेशक हर मामले में जनता को बर्बादी की ओर धकेलने में फ़ासीवादी भाजपा तमाम अन्य पूँजीवादी पार्टियों से इक्कीस ही पड़ी है।
आज मौद्रीकरण के रूप में निजीकरण को लागू करने के सरकारी छलावों का प्रतिरोध जनता की संगठित ताक़त के बूते ही किया जा सकता है। संशोधनवादी पार्टियों की गोद में बैठी अर्थवादी ट्रेड यूनियनें, धनी किसानों और कुलकों के संगठन, अलग-अलग रंगों के झण्डों और नारों वाली चुनावबाज़ पार्टियाँ निजीकरण का मुक़ाबला नहीं कर सकती हैं। असल में न तो इनकी निजीकरण का मुक़ाबला करने की नीयत है तथा न ही इनके पास निजीकरण को रोक सकने का माद्दा। निजीकरण समेत भाजपा की समस्त फ़ासीवादी नीतियों का मुक़ाबला मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम मेहनतकश जनता की एकजुटता और उसके जुझारू संघर्षों के बलबूते ही किया जा सकता है। इसके साथ ही हमें पूँजीवादी व्यवस्था के चरित्र और कार्यप्रणाली को भी समझना होगा। पूँजीवादी व्यवस्था मेहनतकश जनता का ख़ून-पसीना निचोड़कर और उसके शोषण के बूते ही क़ायम है। पूँजीवादी राज्यसत्ता और सरकारों की भूमिका केवल मुनाफ़े के तंत्र को क़ायम रखने की ही होती है। सामाजिक उत्पादन और निजी सम्पत्ति पर आधारित निजी मुनाफ़े का अन्तरविरोध ही पूँजीवादी व्यवस्था का बुनियादी अन्तरविरोध होता है और इसे समाजवादी क्रान्ति के द्वारा उत्पादन के साधनों और उत्पादन के निर्णयों पर सामूहिक मालिकाना स्थापित करने और उत्पादन के सामाजिक विनियोजन को स्थापित करके ही हल किया जा सकता है। अपने हक़ और अधिकारों की हरेक छोटी-बड़ी लड़ाई के साथ और उसके दौरान इस लुटेरी व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने के कार्यभार को हमें एक पल के लिए भी अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने देना चाहिए।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन