धनी किसान आन्दोलन में लग रहे ‘मज़दूर-किसान एकता’ के नारों के बीच भी जारी है खेत मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न!

दिल्ली की सीमाओं पर जारी धनी किसान आन्दोलन को चलते हुए सात महीने का समय बीत चुका है। इन सात महीनों के दौरान धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र अधिकाधिक बेपर्द होता गया है। हमारा यह शुरू से ही कहना रहा है कि मौजूदा किसान आन्दोलन धनी किसानों और कुलकों का आन्दोलन है। यह हम इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र के कारण कहते रहे हैं। किसान आन्दोलन में बेशक ग़रीब किसानों की भी अच्छी-ख़ासी तादाद में भागीदारी रही है लेकिन किसी भी आन्दोलन के वर्ग चरित्र को जो चीज़ निर्धारित करती है वह चीज़ होती है आन्दोलन के माँग पत्रक में प्रस्तुत माँगों का और उसके नेतृत्व का वर्ग चरित्र। धनी किसान आन्दोलन का नेतृत्व पूरी तरह से धनी किसानों और कुलकों की आर्थिक माँगों का प्रतिनिधित्व करने का काम कर रहा है। एमएसपी की गारण्टी की माँग धनी किसानों के पाले में ही जाती है। छोटे और सीमान्त किसान मुख्य तौर पर विक्रेता की बजाय क्रेता में तब्दील हो चुके हैं। वे यदि अपनी उपज का कुछ हिस्सा मण्डी या बाज़ार में बेच भी पाते हैं तो भी उन्हें अन्य कृषि मालों और उपभोक्ता सामग्रियों को बाज़ार से ख़रीदना ही पड़ता है। अकेली खेती के दम पर उनका गुज़ारा चल ही नहीं सकता। अतः खाद्य वस्तुओं में महँगाई में इज़ाफ़ा करने वाली एमएसपी की प्रणाली धनी किसानों को तो लाभ पहुँचाती है लेकिन बहुसंख्यक ग़रीब किसान आबादी की जेबों पर अतिरिक्त भार ही डालती है। दूसरी ओर लाभकारी मूल्य यानी एमएसपी की गारण्टी करोड़ों औद्योगिक मज़दूरों, भवन निर्माण मज़दूरों, खेतिहर मज़दूरों, ‘फ़ुटलूज़ लेबर’ और तमाम अन्य ग़रीबों पर महँगाई की मार बढ़ने की ही गारण्टी है।
किसान आन्दोलन के सात महीने गुज़र जाने के बाद भी कृषि क्षेत्र के अधिशेष विनियोजन के लिए ग्रामीण बुर्जुआ और कॉर्पोरेट बुर्जुआ के रूप में शासक वर्ग के ही दो धडों के बीच रस्साकस्सी फ़िलहाल जारी है। संयुक्त किसान मोर्चा के तौर पर धनी किसानों-कुलकों अथवा ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों और भाजपा सरकार के तौर पर कॉर्पोरेट पूँजी के प्रतिनिधियों की वार्ता अभी सिरे चढ़ती नहीं दिख रही है।
दूसरी बात, अभी पंजाब और उत्तरप्रदेश के चुनाव भी पास ही हैं। किसान आन्दोलन दोनों ही राज्यों के चुनाव परिणामों पर ख़ासा असर डाल सकता है। इसको परदे के पीछे से हर तरह से सक्रिय मदद पहुँचा रही विपक्षी चुनावी पार्टियों की यह मजबूरी भी बन गयी है कि किसान आन्दोलन को चुनावों तक तो कम से कम खींचा ही जाये। और इस बात को कौन नहीं जनता कि बलबीर सिंह राजेवाल से लेकर राकेश टिकैत तक और गुरनाम सिंह चढूनी से लेकर योगेन्द्र यादव तक धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व की राजनीतिक चुनावी महत्वकांक्षाएँ भी हैं। राजेवाल इस बार के पंजाब विधानसभा चुनाव में ख़ुद को एक बड़े चेहरे के तौर पर देख रहे हैं। कुछ हलक़ों में तो उनके मुख्यमंत्री पद के दावेदार होने तक की सुगबुगाहटें हैं। उत्तरप्रदेश के टिकैत बन्धु पहले भी चुनावी राजनीति में हाथ आज़मा चुके हैं। मुजफ़्फ़रनगर दंगों और अल्पसंख्यकों पर सुनियोजित हमले के समय टिकैत बन्धुओं की राजनीति ने सीधे तौर पर भाजपा को ही फ़ायदा पहुँचाया था। इस बार ये उत्तरप्रदेश चुनावों को अपनी महत्वकांक्षाओं के लिए भुनाने के अवसर के तौर पर देख रहे हैं। रालोद के अजीत सिंह की मृत्यु के बाद इन्हें पूर्वी उत्तरप्रदेश में ख़ासी चुनावी सम्भावनाएँ भी नज़र आ ही रही होंगी। अतः उत्तरप्रदेश और पंजाब का विधानसभा चुनाव भी धनी किसान आन्दोलन को लम्बा खींचने का निश्चय ही एक कारण है।

धनी किसान आन्दोलन में लग रहे ‘मज़दूर-किसान एकता’ के नारे की असलियत!

हाल ही में कई घटनाएँ घटीं जिन्होंने धनी किसान नेतृत्व की असलियत को एक बार फिर से बेपर्द कर दिया। हालिया मामला पंजाब के मानसा ज़िले के मट्टी गाँव का था। यहाँ पर विगत 15 जून को सरपंच निवास पर खेत मालिकों और खेत मज़दूरों के बीच एक बैठक चल रही थी। मुद्दा खेत मज़दूरों की मज़दूरी को लेकर था। यहाँ गाँव के धनी किसानों की तथाकथित पंचायत के द्वारा प्रति एकड़ धान रोपाई की मज़दूरी को पिछले साल से भी कम कर दिया गया है। पंचायत ने मज़दूरी तय की थी 3,500 रुपये, लेकिन मज़दूरों को 2500-2600 रुपये देकर ही टरकाया जा रहा था। इसके विरोध में दलित खेत मज़दूरों ने धान लगाने का काम बन्द कर दिया था। इसी बारे में गाँव की सरपंच सुखविन्दर कौर के निवास पर खेत मालिकों और खेत मज़दूरों के बीच बैठक चल रही थी। बैठक में मज़दूर कम मज़दूरी को मुद्दा बना रहे थे। इसी दौरान गोरा सिंह नामक खेत मालिक ने एक खेत मज़दूर महिला के साथ हाथापाई की और उसे थप्पड़ मार दिया। इसके बाद दलित खेत मज़दूर भड़क गये। इस मामले में दोषी खेत मालिक के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कर ली गयी है। लेकिन खेत मज़दूर गाँव की सरपंच पर भी क़ानूनी कार्रवाई चाहते हैं जिसके निवास पर मारपीट की घटना को अंजाम दिया गया और जिसने इसे रोकने का कोई प्रभावी प्रयास नहीं किया था।
पंजाब में धनी किसानों-कुलकों के वर्ग द्वारा इस तरह की मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ शोषण और विशिष्ट तौर पर दलित खेतिहर मज़दूर आबादी के ख़िलाफ़ जातिगत उत्पीड़न व स्त्री मज़दूरों के विरुद्ध यौन हिंसा की घटनाएँ आम हैं। यहाँ पर ज़मीन के ज़्यादातर मालिक तथाकथित उच्च जातियों (जैसे कि जट्ट) से ताल्लुक़ रखते हैं जबकि ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर दलित या प्रवासी हैं। धनी किसान दलित खेत मज़दूरों का न केवल आर्थिक शोषण करते हैं बल्कि उनका अर्थिकेतर दमन व जातीय तौर पर सामाजिक उत्पीड़न भी करते हैं। खेत मज़दूरों के साथ मारपीट, महिला मज़दूरों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएँ पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे ग्रामीण आँचल में आम हैं। खेत मज़दूरों के साथ मालिक वर्ग के द्वारा जातिगत भेदभाव भी किया जाता है तथा उनके साथ इन्सान के तौर पर बराबरी का बर्ताव तक नहीं किया जाता। मट्टी गाँव की उपरोक्त पंचायत में भी मज़दूरों को नीचे ज़मीन पर बैठाया गया था जबकि खेत मालिक कुर्सियों पर विराजमान थे। इन्हीं सब कारणों की वजह से पंजाब में दलित खेत मज़दूरों और उच्च जातीय खेत मालिकों के बीच का वर्ग संघर्ष जातीय संघर्षों के तौर पर भी अभिव्यक्त होता है।
अभी हाल ही में पंजाब के सैकड़ों गाँवों में धनी किसानों और कुलकों के द्वारा गाँवों में अपनी जेबी पंचायतों के माध्यम से प्रति एकड़ मज़दूरी तय करते हुए फ़रमान जारी किये गये थे। प्रति एकड़ धान की रोपाई तय करने वाले इन फ़रमानों के द्वारा बहुत से गाँवों में तो मज़दूरी का स्तर पिछले साल से भी 1000-800 रुपये नीचे कर दिया गया है। ऐसे में मज़दूरों का ग़ुस्सा स्वाभाविक है। कोरोना महामारी और इस दौरान केन्द्र और पंजाब की राज्य सरकार के द्वारा थोपे गये अनियोजित लॉकडाउन ने साधनहीन खेत मज़दूरों का जीना दूभर कर दिया है। खेत मज़दूरों के ज़्यादातर परिवार मौसमी खेत मज़दूरी पर ही निर्भर हैं। धनी किसानों और कुलकों के वर्ग के द्वारा खेत मज़दूरी को नाजायज़ तरीक़े से घटाया जा रहा है। यह मज़दूरों के जीने के अधिकार पर हमला है। यही नहीं इन धनी किसानों की पंचायतों के फ़रमान ठीक उस समय आये हैं जब राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पिछले छह महीने से जारी किसान आन्दोलन में “किसान-मज़दूर एकता” के नारे उछाले जा रहे हैं। हाल ही में संयुक्त किसान मोर्चे के धनी किसान नेतृत्व ने पंचायतों द्वारा मज़दूरी तय करने के फ़ैसलों पर ज़ुबानी जमाख़र्च किया था। इसका कारण भी यही था कि इनके लड़खड़ाते आन्दोलन को मज़दूरों के सहारे की अभी ज़रूरत है। लेकिन मज़दूरी के मसले पर इनकी कार्रवाई ज़ुबानी जमाख़र्च तक ही सीमित रहती है और इनका प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन धनी किसान और कुलक वर्ग के साथ ही रहता है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021


 

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