ऑटोनियम के मज़दूरों का संघर्ष और बढ़ रही मुश्किलें
बहरोड़ (ज़िला नीमराना, राजस्थान) की ऑटोनियम कम्पनी की मज़दूरों की छँटनी, स्टैण्डिंग ऑर्डर के नियमों के विपरीत ज़बरन ट्रांसफ़र, झूठे मुक़दमों, धमकियों के ख़िलाफ़ 2019 से ही संघर्ष कर रहे हैं।
इस बार मार्च की शुरूआत में ही बहरोड़ औद्योगिक क्षेत्र की ऑटोनियम इण्डिया प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी के परमानेण्ट मज़दूर यूनियन के उपाध्यक्ष जोगिन्दर यादव ने कम्पनी गेट पर अपने ऊपर पेट्रोल छिड़क कर पेट्रोल पी लिया और बेहोश हो गये। जिन्हें कम्पनी की गाड़ी में इमरजेन्सी में आई.सी.यू. में भर्ती करवाया गया।
योगेन्द्र यादव ने कम्पनी प्रबन्धन द्वारा यूनियन को तोड़ने व माँगों को न मानने के लिए ग़ैर-ज़रूरी व ग़ैर-क़ानूनी तबादले से परेशान होकर आत्महत्या का प्रयास किया था। इससे पहले यूनियन हाण्डी के प्रधान का भी यूनियन को तोड़ने व यूनियन बॉडी सदस्यों को तंग-परेशान करने के लिए कोरोना काल में आन्ध्रप्रदेश में तबादला (ट्रांसफ़र) कर दिया था।
यूनियन (सीटू से सम्बद्ध) के सी 32 सदस्य कम्पनी परिसर में ही टूल डाउन करके अन्दर बैठ गये थे। लेकिन पुलिस के एस. एच. ओ. ने चालाकी से डराया-धमकाया और दो मज़दूरों को पुलिस हिरासत में ले लिया और बाद में कम्पनी परिसर में धरने पर बैठे मज़दूरों से झूठा वायदा करके कि सुबह वह सारा मामला सुलटा देंगे और सबको अन्दर करवायेंगे। असल में इस चाल को मज़दूर समझ नहीं पाये और कम्पनी परिसर के बाहर आ गये।
इसके बाद कम्पनी ने चार मज़दूरों को बर्ख़ास्त कर दिया और 9 अन्य मज़दूरों को निलम्बित कर दिया। बाक़ी के क़रीब 18 यूनियन सदस्य काम पर लौट गये, जिसमें एक यूनियन बॉडी का सदस्य है। इस तरह कम्पनी यूनियन के सदस्यों को तोड़ने में कामयाब रही। कम्पनी गेट पर चल रहे धरने को भी हटा लिया गया। इससे पहले गेट पर हुए प्रदर्शनों में डाईकिन व रूचिस बीयर कम्पनी, टी.जी. मिण्डा के निकाले हुए मज़दूर और कुछ मज़दूर नेता शामिल हुए थे। लेकिन ये सब भी अन्दर जाने वाले साथियों को रोक नहीं पाये।
कम्पनी प्रबन्धन के इस अनुचित व्यवहार के ख़िलाफ़ ऑटोनियम एकता मज़दूर यूनियन द्वारा श्रम विभाग, पुलिस-प्रशासन आदि विभिन्न जगहों पर ज्ञापन दिया जा चुका है। लेकिन कम्पनी प्रबन्धन यूनियन सदस्यों को तंग-परेशान न करने व अन्दर लेने को तैयार नहीं हुआ है। श्रम अधिकारी भी कम्पनी में कार्रवाई करने का दिखावा करते रहे और मज़दूरों को झूठे आश्वासन ही दिये, लेकिन कम्पनी प्रबन्धन पर कोई कार्रवाई नहीं की।
ज्ञात रहे कि 2019 में कम्पनी ने क़रीब 33 ठेका मज़दूरों को काम से बाहर कर दिया था जिन्हें यूनियन ने सदस्यता दी थी। यूनियन उन ठेका मज़दूरों को संघर्ष के ज़रिए अन्दर नहीं करवा पायी, बस यूनियन की तरफ़ से उनका श्रम विभाग में केस डाल दिया। ठेका मज़दूरों का इस पर मलाल है कि उस वक़्त सीटू से सम्बद्ध परमानेण्ट मज़दूरों ने उनके लिए टूल डाउन करके संघर्ष नहीं किया, और न ही कम्पनी में स्थायी मज़दूरों की दूसरी यूनियन जो बी.एम.एस. से सम्बद्ध है, ने उनका समर्थन किया। आज कम्पनी में काम कर रहे 100 से अधिक ठेका मज़दूरों का किसी भी यूनियन से कोई रिश्ता नहीं है। जिन 33 ठेका मज़दूरों का केस चल रहा है, वे ही बीच-बीच में इनके धरने-प्रदर्शन में आ जाते हैं। परमानेण्ट मज़दूर भी दो यूनियनों में बँटे हुए हैं। मज़दूरों में एकता की इस कमी का मैनेजमेण्ट बख़ूबी फ़ायदा उठाती है।
इस फ़ैक्टरी का अनुभव भी यही बताता है कि हमें सेक्टरवार और इलाक़ाई मज़दूर यूनियनों की बेहद जरूरत है। केन्द्रीय यूनियनों से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती है। ये फ़ेडरेशनें और इनसे जुड़ी यूनियनें बस तनख़्वाह, बोनस-भत्ते बढ़ाने की लड़ाई तक सीमित हैं। कम्पनी प्रबन्धन भी ठेका मज़दूरों को छोड़ने की एवज़ में चन्द स्थायी मज़दूरों को थोड़ी बेहतर तनख़्वाह व सुविधाएँ दे देता है, ताकि स्थायी और ठेका मज़दूरों की एकता को तोड़ कर उन्हें कमज़ोर कर सके।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021
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