भारत के मज़दूर आन्दोलन के मीरजाफ़र, जयचन्द और विभीषण
– लता
इतिहास किसी को कभी माफ़ नहीं करता और साथ ही इतिहास को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में जितना पुराना इतिहास संसदमार्गी संशोधनवादी भाकपा, माकपा, भाकपा मा.ले.(लिबरेशन) के धोखे, छल, प्रपंच और विश्वासघात का है उतना ही गहरा है मज़दूर वर्ग के बीच इनकी राजनीति के प्रति अविश्वास, शंका और सन्देह का इतिहास। संशोधनवाद का रास्ता पकड़ने के बाद और उससे निकली भाकपा, माकपा और भाकपा मा.ले. (लिबरेशन) ने सर्वहारा वर्ग को उनके ऐतिहासिक मिशन से दूर रखकर पूरे मज़दूर आन्दोलन को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई है। संशोधनवादी होते-होते पूरी तरह पूँजीवादियों की गोद में जा बैठने के बाद और पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते हुए इन्होंने मज़दूर आन्दोलन के साथ भयंकर विश्वासघात किया है। आज पूँजीवाद के संकट के दोर में इनकी ज़रूरत पहले जैसी नहीं रह गयी है क्योंकि पूँजीवाद को अब फासिस्ट और अर्द्ध-फ़ासिस्ट ताक़तों की ज़रूरत है, इसलिए लगभग सभी जगह से ये उजड़ रहे हैं। संसद की कुर्सियाँ जो छिन गयी हैं उन्हें पाने के लिए बेचैन ये पार्टियाँ फिर से चुनावों में रोज़गार और शिक्षा आदि के मनलुभावन वायदे कर रहे हैं। चुनावों में जीत के लिए इतने आतुर हैं कि अपने शहीदों जैसे कि चन्द्रशेखर (भाकपा मा.ले. लिबरेशन) के हत्यारों (मोहम्मद शहाहबुद्दीन) की पार्टी राजद के साथ गँठजोड़ करके बिहार विधानसभा में सीटें हासिल करने में भी इन्हें शर्म नहीं आती।
संशोधनवादी पार्टियाँ और मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन से विश्वासघात
मज़दूर वर्ग के इन विभीषण, मीरजाफ़र और जयचन्द पर कई जघन्य आरोप हैं जिनमें से सबसे गम्भीर और अक्षम्य है, इनका मज़दूर वर्ग में राजनीतिक चेतना के प्रसार-प्रचार के लिए कोई क़दम नहीं उठाना। मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना उन्नत करने के लिए सबसे ज़रूरी साधनों में से एक होता है मज़दूर वर्ग का अपना अख़बार। अच्छे-ख़ासे संसाधनों वाली इन पार्टियों ने अपने ट्रेड यूनियन मुखपत्रों (जिनमें यूनियन गतिविधियों की रिपोर्टों और कुछ क़ानूनी जानकारियों आदि के अलावा आम तौर पर कुछ नहीं होता) के अलावा ऐसा मज़दूर अख़बार नहीं निकाला जो मज़दूरों को उनके ऐतिहासिक मिशन, यानी पूँजीवाद को उखााड़ फेंकने के लिए शिक्षित करे। ये ऐसा कर भी नहीं सकते थे क्योंकि ख़ुद इनका ऐतिहासिक मिशन पूँजीवाद को उखाड़ फेंकना नहीं बल्कि उसे बचाये रखना है।
भारत की उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्धों और यहाँ के पूँजीपति वर्ग के चरित्र की समझदारी के मामले में तथा समाज की जटिलताओं को समझने के मामले में दिवालियापन तो साबित किया ही, साथ ही, मज़दूर आन्दोलन की ज़रूरतों को भी कभी नहीं समझा। हालाँकि यह सभी बातें आपस में जुड़ती हैं लेकिन यह लेख मज़दूर आन्दोलन में इनके विश्वासघातों पर आधारित है इसलिए विचारधारात्मक कमज़ोरियों की चर्चा हम यहाँ नहीं कर रहे हैं।
मज़दूरों के अख़बार की ज़रूरत को लेनिन ने स्पष्ट शब्दों में इंगित किया था। लेनिन ने मज़दूरों की मुक्ति के विचार के प्रचारक और राजनीतिक शिक्षक के रूप में मज़दूर वर्ग के अख़बार के महत्व को बताते हुए इस बात पर बल दिया था कि यह अपने आप में एक संगठनकर्ता की भूमिका भी निभाता है –
“लेकिन अख़बार की भूमिका मात्र विचारों का प्रचार करने, राजनीतिक शिक्षा देने, तथा राजनीतिक सहयोगी भर्ती करने के काम तक ही नहीं सीमित होती। अख़बार केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक आन्दोलनकर्ता का ही नहीं बल्कि एक सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर खड़े किये गये बल्लियों के ढाँचे से की जा सकती है। इस ढाँचे से इमारत की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है और इमारत बनाने वालों को एक दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है जिससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं और अपने संगठित श्रम के संयुक्त परिणामों पर विचार-विनिमय कर सकते हैं। अख़बार की मदद और उसके माध्यम से, स्वाभाविक रूप से, एक स्थायी संगठन खड़ा हो जायेगा जो न केवल स्थानीय गतिविधियों में, बल्कि नियमित आम कार्यों में भी हिस्सा लेगा, और अपने सदस्यों को इस बात की ट्रेनिंग देगा कि राजनीतिक घटनाओं का वे सावधानी से निरीक्षण करते रहें, उनके महत्व और आबादी के विभिन्न अंगों पर उनके प्रभाव का मूल्यांकन करें, और ऐसे कारगर उपाय निकालें जिनके द्वारा क्रान्तिकारी पार्टी उन घटनाओं को प्रभावित करे।” (‘कहाँ से शुरू करें’ लेख से)
मज़दूर अख़बार मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई चलाता है, मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलाता है, मज़दूर क्रान्ति की विचारधारा एवं उसके रास्ते से उसे परिचित कराता है तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी राजनीतिक संगठन के निर्माण व सुदृढ़िकरण की दिशा में उसे प्रेरित करता है। क्रान्ति का उद्देश्य रखने वाली कोई भी पार्टी अपनी इस ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकती। क्रान्तिकारी मार्ग से अभी न विचलित होते हुए भी विचारधारात्मक और पार्टी के संगठन और संरचना की अधकचरी समझ की वजह से अपने जन्म से लेकर 1950 के दशक तक और फिर 1950 के दशक से संशोधनवाद का मार्ग पकड़ने तक भाकपा और अपने जन्म से ही संशोधनवादी माकपा ने कभी भारत के मज़दूर वर्ग में राजनीतिक चेतना पैदा करने और उसे उन्नत करने का प्रयास नहीं किया। मज़दूर अख़बार मज़दूरों का वह मंच होता है जहाँ मज़दूर अपने सवालों, कठिनाइयों और संघर्षों को साझा करता है। साथ ही पूँजीवाद के अन्तर्गत विभिन्न व्यवसायों में लगे मज़दूरों की एक आम राय तक पहुँचने में मदद करता है कि यह व्यवस्था सभी का एक समान रूप से थोड़ा-कम थोड़ा-ज़्यादा शोषण और उत्पीड़न करती है। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर आबादी के लिए भूख, बीमारी, बदहाली, जीवन की नारकीय परिस्थितियाँ और तिल-तिल कर मरने के अलावा और कुछ नहीं।
अपने मुखपत्रों में स्वयं अपने स्वर्णिम इतिहास की चर्चा करते हुए कुछ ट्रेड यूनियन आन्दोलनों की सफलता की प्रशंसा करते नहीं थकने वाली ये पार्टियाँ बख़ूबी जानती हैं कि ट्रेड यूनियन संघर्ष और आन्दोलन मज़दूर वर्ग को महज़ वर्ग चेतना देता है और यह सर्वहारा के ऐतिहासिक मिशन का मात्र प्रथम पायदान है। लेकिन एटक (भाकपा), सीटू (माकपा) और एक्टू (भाकपा मा.ले. (लिबरेशन)) के मंच से मात्र मज़दूरों की आर्थिक माँगों के लिए कुछ क़वायदी कार्रवाइयाँ चलाना और राजनीतिक कार्रवाई के नाम पर संसदीय चुनावों में हिस्सेदारी करना – बस यही इनका असली काम है।
संशोधनवादी पार्टियों के ट्रेड यूनियन संघर्षों की सीमा
अगर बात की जाये ट्रेड यूनियन संघर्षों की और उसमें भी इनके धोखे और विश्वासघात की तो विजय के स्कोर पर विश्वासघातों का स्कोर हावी रहेगा। इसमें आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि लाल चोंगा ओढ़े यह बुर्जुआ (पूँजीवादी) सियार हैं, जो अन्य पूँजीवादी पार्टियों की तरह ही पूँजीवाद की चाकरी में लगे हैं। उदाहरण के तौर पर चाहे तेलंगाना का किसान संघर्ष हो जिसमें बिना शर्त नेहरू सरकार के आगे घुटने टेक दिये हों, या नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन के समय किसानों पर गोलियाँ चलवाने और उनके हिंसक दमन की बात हो, इनका मज़दूर-किसान आन्दोलनों सेे विश्वासघात का इतिहास भी रक्तरंजित रहा है। राजनीतिक चेतना जागृत न करने और ट्रेड यूनियन संघर्षों में धोखों और अकर्मण्यता के कारण ही मुम्बई का जुझारू मज़दूर आन्दोलन भी बिखर गया और हताशा-निराशा में मज़दूरों का एक हिस्सा बाल ठाकरे की शिवसेना तक के प्रभाव में आ गया। कलकत्ता के जूट-मिलों का संघर्ष हो या बाटा और डनलप की फ़ैक्ट्रियों का संघर्ष, इन संघर्षों में मज़दूर वर्ग के पीठ में छुरा घोंपने का काम किया है, भाकपा की एटक और माकपा की सीटू ने। इमरजेंसी के ठीक बाद फरीदाबाद-बदरपुर में एटक की धोखेबाज़ी के बाद भी मज़दूर वर्ग ने न तो इंटक और नहीं बीएमएस की राह पकड़ी, बल्कि एक बार फिर वाम की ओर ही अपना रुझान दिखाया। फ़रीदाबाद, साहिबाबाद, बदरपुर औद्योगिक क्षेत्र में सीटू की सदस्यता बढ़ी लेकिन जल्द ही लाल झण्डे के पीछे छुपे रंगे सियार की असलियत लोगों को नज़र आने लगी। मज़दूरों को यह सवाल पूछने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि 1974 में रेल हड़ताल की माँगें 1978 में भी अधर में क्यों लटकी हैं जबकि 1974 के रेलवे के संघर्ष के दौरान सीटू के ट्रेड यूनियन नेता रहे लोग 1977 के बंगाल के माकपा-भाकपा गँठजोड़ सरकार में मंत्री बने। 1987 में वाम मोर्चा की बंगाल में सरकार थी फिर भी सीटू और एटक डनलप और बाटा की फ़ैक्ट्रियों के मज़दूरों के संघर्ष के दौरान मूक दर्शक बने रहे। मुख्यमंत्री ज्योति बासू की अगुवाई में समझौता-वार्ता चली और इस वार्ता ने मज़दूर वर्ग को बेहद अपमानजनक शर्तें मानने को मजबूर किया और इस तरह यह संघर्ष मज़दूर वर्ग के घोर अपमान के साथ समाप्त हुआ। मज़दूर वर्ग ने इन्हें क्रान्तिकारी समझ कर अपने वर्गबोध से लाल की ओर अपना झुकाव बनाये रखते हुए उन पर भरोसा किया। लेकिन इन्होंने पूँजीवादी चाकरी का एक मौक़ा भी ज़ाया नहीं होने दिया, पूँजीपतियों के हनुमान और मज़दूर वर्ग के विभीषण बने रहे।
पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक अधिकारों के लिए आन्दोलन करते हुए ट्रेड यूनियनों में संगठित मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्ति और समाजवाद के विचारों का प्रचार-प्रसार अगर कोई पार्टी नहीं कर रही है तो वह मज़दूर वर्ग को ट्रेड यूनियनवाद के गड्ढे में गिराकर उन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में ही कुछ सुधारों की सोच तक सीमित रखने का काम कर रही होती है। यही काम किया भाकपा, माकपा और बाद में भाकपा मा.ले. (लिबरेशन) जैसे अन्य संशोधनवादी पार्टियों ने। अतीत में इन्होंने कुछ सफल ट्रेड यूनियन संघर्ष भी किये हैं, और ख़ासकर पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों के वेतन-भत्ते आदि बढ़वाने में इन्हें सफलता भी मिली। लेकिन इन ट्रेड यूनियन संघर्षों से आगे बढ़ कर मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने का काम माकपा ने नहीं किया और उन्हें भी यूनियनवाद के जाल में फाँसकर पूँजीवादी विचारधारा का ग़ुलाम बना दिया। अब तो ये किसी तरह का जुझारू संघर्ष भी कर पाने में नाकाम हो चुके हैं।
लम्बे काल तक राज्य सरकारों में रहने और केन्द्र सरकार का समर्थन करने के बाद इन पार्टियों से किसी भी क़िस्म की जुझारूपन की उम्मीद करना बेकार है। यह पार्टियाँ ट्रेड यूनियन आन्दोलनो के जुझारूपन को कुन्द करती हुई हर मौक़े पर कूदकर कारख़ाना प्रबन्धन और नेता मंत्रियों की गोद में जा बैठती हैं। वातानुकूलित मुलायम गद्दों वाले बैठक-सभागारों से इनका पुराना जुड़ाव है और इसलिए ऐसे सभागारों के मोह के धागे इनकी उँगलियों से जा उलझते हैं। विज्ञान की गति बताती है कि कोई भी चीज़ अपनी जगह स्थिर नहीं रहती वह या तो आगे जाती है या फिर पीछे लुढ़कती है। इसलिए मात्र आर्थिक माँगों के इर्द-गिर्द ट्रेड यूनियन संघर्षों को जारी रख पाना भी इनके बस का नहीं रह गया।
संसद और विधानसभा में बैठने वाले, राज्यों में सरकार बनाने वाले और केंद्र सरकार में शामिल होने वाले भाकपा-माकपा पूँजीवादी नीतियों के विरोधी हो ही नहीं सकते। इनके संसदमार्गी होने के शुरुआती कुछ समय मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को इनके छल-प्रपंच का पता नहीं लग पाया हो और लोग इनके क्रान्तिकारी कलेवर के भ्रम में उलझ गये हों लेकिन इनके शासन के इतने वर्ष झेलकर अब भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है। नक्सलबाड़ी के समय बंगाल सरकार के उप-मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने खेतिहर मज़दूरों और चाय-बागान मज़दूरों पर गोलियाँ चलवायीं, उनके विरोध और हक़ की लड़ाई का क्रूर दमन किया। नन्दीग्राम-सिंगूर संघर्षों के दौरान बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नन्दीग्राम में इण्डोनेशियाई कम्पनी सलेम की यूनिट और सिंगूर में टाटा नैनों के कारख़ाने लगवाने के लिए किसानों से ज़बरन ज़मीन हथियाने की कोशिश की और प्रतिरोध कर रहे ग़रीब किसानों पर गोलियाँ चलवायी। सलेम वही इंडोनेशियाई कम्पनी है जिसने सुहार्तो की तानाशाही के दौरान इण्डोनेशियाई कम्युनिस्ट पार्टी के क़त्लेआम में सुहार्तो की मदद की थी। यह है इनके लाल मुखौटे के पीछे छुपा असली चेहरा और इसलिए चाहे जितना भी लाल झण्ड़ा क्यों न लहरा लें और हँसिया-हथौड़ा की क़समें खा लें यह रंगे सियार बार-बार अपने आप को बेनक़ाब करते रहे हैं। मुश्किल यह होती है कि आम मज़दूर और मेहनतकश आबादी इन संशोधनवादी पार्टियों और क्रान्तिकारी पार्टियों के बीच अमूमन भेद नहीं कर पाती। इस तरह उनके बीच लाल झण्डा ही बदनाम होता है और किसी भी संजीदा क्रान्तिकारी पार्टी को मज़दूर वर्ग में काम करने के दौरान बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
संशोधनवादी पार्टियाँ और उदारीकरण-निजीकरण की शुरुआत
अपने आप को मज़दूर वर्ग की पार्टी कहने वाली भाकपा और माकपा कहाँ थी, जब 1991 में नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने खुले तौर पर आम उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत की। वैसे तो इन क़दमों की शुरुआत 1980 के दशक के मध्य से ही हो गयी थी लेकिन पूँजीवाद के भयंकर आर्थिक संकट के बाद 1991 में इन नीतियों को बड़े पैमाने पर लागू किया गया। लाल मिर्च खाने वाले इन संसदीय तोतों ने उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का मात्र रस्मी विरोध किया था और बाद में अपने-अपने राज्यों में उन्हीं नीतियों को निष्ठा से लागू भी किया। रस्म अदायगी की तरह कुछ विरोध प्रदर्शन करने के अलावा इन्होंने बेहद संजीदगी के साथ प्रथम यूपीए सरकार में शामिल होकर और फिर दूसरे यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे कर भारत में उदारीकरण-निजीकरण के जमकर लागू होने का रास्ता साफ़ किया।
मनरेगा जैसी नीतियाँ इनके दिमाग़ की ही उपज थीं। पूँजीवादी व्यवस्था का कुशलक्षेम बेहद अच्छी तरह से समझती हैं यह पार्टियाँ, और इसलिए बेहद कुशलता से मनरेगा डिज़ाइन किया गया। गाँवों से ग्रामीण सर्वहारा के शहर की ओर पलायन को रोकना इसके पीछे छुपी हुई असली वजह थी। शहरी सर्वहारा की बढ़ती आबादी को सोखने की क्षमता इस पूँजीवादी व्यवस्था में नहीं है और बेरोज़गार शहरी सर्वहारा की बड़ी आबादी पूँजीवाद के लिए विस्फोटक हो सकती है। इसलिए परिस्थिति का पूर्वानुमान लगाते हुए विभीषण ने बताया कि रावण का अमृत नाभि में है और 100 दिन का रोज़गार मिला ग्रामीण सर्वहारा को। इनके मज़दूर विरोधी चेहरे को कितनी बार उजागर करें, अब यह लिखते हमें भी शर्म आने लगी है लेकिन इन्हें शर्म कभी भी नहीं आयी। ख़ैर, 2005 में संसद में बैठकर इन्होंने सेज़ अधिनियम पास करवाया था। सेज़ यानी स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन जिसके तहत ऐसे औद्योगिक क्षेत्र बनाये गये जहाँ किसी भी तरह का श्रम कानून लागू नहीं होता। अब समझा जा सकता है कि अपने आप को मज़दूर वर्ग की पार्टी और उसका नेता कहने वाले यह संशोधनवादी कितने भितरघाती हैं। ये संसदीय तोते उदारीकरण-निजीकरण के विरोध की झूठी रट लगाते रहे हैं और मज़दूरों को भ्रम में रखने के लिए सालाना अनुषठान की तरह कुछ भारत बंद और एक-दो दिवसीय हड़तालें आयोजित करते रहे हैं। जब ज़रूरत थी, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का सड़कों पर उतरकर जुझारू विरोध करने की, तो इन्हें केन्द्र सरकार में बैठकर जनविरोधी नीतियाँ बनाने से फ़ुर्सत नहीं थी और इस तरह इन्होंने पूँजीवाद की दूसरी और सबसे क़ाबिल सुरक्षा पंक्ति की भूमिका बख़ूबी निभायी।
संशोधनवादी पार्टियों का विश्वासघात और फ़ासीवादी उभार
राम जन्मभूमि आन्दोलन, रथयात्राओं, बाबरी मस्जिद ध्वंस, 1991 के संकट के बाद और 1995 तक उदारीकरण-निजीकरण के विनाशकारी परिणामों के बाद भारत में फ़ासीवादी आन्दोलन हिन्दुत्ववाद, स्वदेशीवाद और राष्ट्रवाद के चोंगे में कहीं ज़्यादा ताक़तवर होकर उभरा। एक करोड़ 42 लाख सदस्यों वाली एटक और 60 लाख से भी ज़्यादा की सदस्यता का दम्भ भरने वाला सीटू और बंगाल, केरल और ित्रपुरा में सरकारें चलाने वाले माकपा और भाकपा बस साम्प्रदायिकता से लड़ने के नाम पर कभी कांग्रेस तो कभी मुलायम सिंह यादव का पुछल्ला बने रहे। जब ज़रूरत थी, 2002 में जलते गुजरात के विरोध में सड़कों पर उतरने की और फ़ासीवादियों से निपटने की, मज़दूरों के लड़ाकू संगठन बनाने की और ख़ाकी चड्डीधारियों का मुँहतोड़ जवाब देने की, तब भी इतनी बड़ी सदस्य संख्या लेकर इन संशोधनवादी पार्टियों को चुनावबाज़ी के खेल से फ़ुर्सत नहीं मिली। और आज भी यही हो रहा है।
फ़ासीवादी उभार को रोकने के लिए सड़कों पर उतरने की जगह इन संसदमार्गी रंगे सियारों को वातानुकूलित संसद-विधानसभा और सरकारी आवास ज़्यादा उचित और सुरक्षित लगते हैं। पार्टी सदस्यता और ट्रेड यूनियन सदस्यता की बड़ी-बड़ी संख्या दिखाने वाले भाकपा, माकपा और भाकपा मा.ले (लिबरेशन) मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना उन्नत करने के लिए कोई निरन्तर अभियान या कार्यक्रम नहीं चलाते। चाहे स्त्री प्रश्न हो, जाति प्रश्न, धर्म या राष्ट्रीयता का सवाल, अपने पार्टी काडरों और यूनियन सदस्यों के बीच क्रान्तिकारी तो भूल जाइये, प्रगतिशील विचारों के प्रचार-प्रसार का भी कोई गम्भीर कार्य नहीं करते। जब निगाहें लगातार संसद-विधानसभा की गद्देदार कुर्सियों पर टिकी हों तो जनता की किसी रूढ़िवादी मान्यता को चोट पहुँचाकर एक भी वोट को ख़तरे में क्यों डाला जाये? इन्हीं प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी विचारों को अपना आधार बना कर फ़ासीवाद का ज़हरीला नाग हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का फन फैलाये पूरे भारतीय समाज को लीलने को खड़ा है। क्या यह इनकी निहायत अवसरवादी-कायराना राजनीति का परिणाम नहीं है कि इनके ही सामाजिक आधार यानी संगठित क्षेत्रों के खाते-पीते सफ़ेद कॉलर कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा और मज़दूर वर्ग का लम्पट हिस्सा आज भाजपा और आरएसएस का आधार बना हुआ है। पश्चिम बंगाल में ही लोकसभा चुनावों के दौरान यह साफ़ देखने को मिला कि मज़दूरों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा भाजपा की कतारों में जा शामिल हुआ और ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहा था और आज भी विधानसभा चुनावों में वही काम कर रहा है। 44 साल सरकार में रहने के बाद भी क्या इन पार्टियाँ से इतना भी न बन पड़ा कि कम से कम मज़दूर वर्ग को प्रगतिशील विचार ही दे दें।
असंगठित मज़दूरों का विशालकाय तबक़ा और संशोधनवादी पार्टियाँ
भारत में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के पहले भी भारत के मज़दूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्रों में था मगर नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद तो असंगठित मज़दूरों का हिस्सा 93 प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा है। मज़दूर वर्ग के इस हिस्सों को भाकपा और माकपा ने तो 1990 के दशक के पहले या उसके बाद भी संगठित करने का प्रयास कभी नहीं किया। सीटू के 60 लाख और एटक के 1 करोड़ 42 लाख सदस्यों की संख्या में असंगठित क्षेत्र से आये सदस्यों की संख्या नगण्य होगी। इन असंगठित मज़दूरों की आज जो माँगें बनती हैंं, चाहे वह न्यूनतम मज़दूरी, सुरक्षित कार्य स्थल, सवेतन अवकाश, क्रेच, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ आदि माँगें तो आर्थिक माँगे भी नहीं, जीने के अधिकार हैं। इतनी विशाल सदस्य संख्या वाली इन यूनियनों ने असंगठित मज़दूरों की माँगों को लेकर कोई जुझारू और बड़ा आन्दोलन करना तो दूर, उनकी माँगों की आम तौर पर उपेक्षा ही की है, और बहुत बाद में, नीचे से पड़ते दबाव के चलते उनकी माँगों को अपने माँगपत्रक में जगह देनी शुरू की।
आज मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करना के लिए इन संसदीय रंगे सियारों के बारे में मज़दूरों के बीच बचे-खुचे भ्रमों को भी तोड़ देना और इनकी कलई पूरी तरह खोल देना बहुत ज़रूरी है। सही क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में मज़दूरों का एक हिस्सा अब भी इनके प्रभाव में है। इनसे लाल झण्डे की रक्षा करने की आवश्यकता है और आम मज़दूर और मेहनतकश आबादी के सामने इनके असली चेहरे को उजागर करना सही क्रान्तिकारी राजनीति को स्थापित करने के लिए ज़रूरी है।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन