पूँजीवाद और स्वास्थ्य सेवाओं की बीमारी

– डॉ. नवमीत

भारतीय संविधान के भाग 3, आर्टिकल 21 में एक मूलभूत अधिकार दिया गया है जिसको जीवन की रक्षा का अधिकार कहा जाता है, और साथ ही संविधान में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करने को राज्य के कर्तव्य की बात कही गयी है। इस प्रकार हमारे देश के हर नागरिक के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा और देखभाल की ज़िम्मेदारी सीधे तौर पर सरकार की है। लेकिन असल में होता इसका उल्टा है। सरकार लगातार लोक स्वास्थ्य से हाथ खींचती जा रही है और देश की जनता का स्वास्थ्य ख़ूनचूसू पूँजीपतियों के हाथ में आता जा रहा है। आइए देखते हैं कि कैसे भारत में पूँजीवादी व्यवस्था मुनाफ़े के लिए लोगों के स्वास्थ्य और ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ कर रही है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य का आधुनिक इतिहास भारत में ब्रिटिश काल से शुरू होता है जब अंग्रेज़ों ने भारत में अपना शासन सुदृढ़ करने के लिए अन्य चीज़ों के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी कुछ प्रावधान शुरू किये थे। लेकिन अंग्रेज़ों को एक ग़ुलाम देश के स्वास्थ्य की कोई ख़ास चिन्ता नहीं थी और इस पूरे कालखण्ड के दौरान भारत एक बीमार और कुपोषित देश बना रहा। आज़ादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में पूँजीपति वर्ग के हाथ में जब सत्ता आयी तो पहली पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत सार्वजनिक स्वास्थ्य को भी सरकार के कार्यक्रम में शामिल किया गया। जैसा कि ऊपर ज़िक्र हुआ है कि संविधान के तहत लोक स्वास्थ्य को भी सरकार का कर्तव्य माना गया था। यह वह दौर था जब पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य के कीन्सियाई फ़ॉर्मूले को लागू किया जा रहा था ताकि पूँजीवाद की फटी चादर में कुछ पैबन्द लगा कर काम चलाया जा सके। सो भारत में भी, दिखावे के तौर पर ही सही, कुछ कल्याणकारी काम शुरू किये गये। लेकिन 1980 का दशक आते आते कीन्सियाई फ़ॉर्मूले की फूँक निकलने लगी। लगातार जारी पूँजीवादी संकट के चलते पूरी दुनिया की पूँजीवादी सरकारें जनकल्याणकारी कामों से हाथ खींचने लगी और पूरी दुनिया में भूमण्डलीकरण और नवउदारीकरण की नीतियाँ शुरू हुईं। अधिकतर देशों के साथ भारत में भी 1990 के दशक की शुरुआत में आर्थिक सुधारों के नाम पर इन नीतियों की शुरुआत की गयी, जो पिछले दो दशकों से लगातार तेज़ होती चली जा रही हैं।
अभी तक पूरी दुनिया में जन स्वास्थ्य को देखने वाली संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन थी। लेकिन भूमण्डलीकरण के साथ ही इस क्षेत्र में नये खिलाडियों विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन का प्रवेश होता है। इन संस्थाओं के आगमन के बाद से दुनिया भर की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों में विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका कम से कमतर होती चली गयी और इन संस्थाओं की भूमिका बढ़ती चली गयी। 1987 में विश्व बैंक financing health services in developing countries यानि विकासशील देशों में स्वास्थ्य सेवाओं के वित्तपोषण के नाम से एक नयी स्कीम लेकर आया। विश्व बैंक ने इस स्कीम के तहत ये सुझाव दिए थे:
1. सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में मरीज़ द्वारा किये जाने वाले भुगतान की राशि को बढ़ाया जाये,
2. निजी स्वास्थ्य बीमा को विकसित किया जाये,
3. निजी क्षेत्र की भूमिका को स्वास्थ्य सेवाओं में बढ़ाया जाये, और
4. सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विकेन्द्रीकरण किया जाये।
विश्व बैंक ने 1993 में अपनी वैश्विक विकास रिपोर्ट में स्वास्थ्य में निवेश के नाम पर ये सभी सुझाव और अधिक परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किये और तमाम क़र्ज़दार देशों, जो नवउदारीकरण की नीतियों को लागू करने के चलते इसके क़र्ज़ तले आ गये थे, को ये सुझाव मानने और लागू करने पर मजबूर कर दिया। इसके साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं को अधिकारिक रूप से सार्वजनिक सेवा की जगह माल के रूप में बदल दिया गया। और इस तरह पूरी दुनिया में स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार की भूमिका कम से कमतर होती चली गयी और निजी क्षेत्र का दख़ल अधिक से अधिक होता चला गया।
भारत की बात की जाये तो पिछले दो दशकों में आर्थिक सुधारों और नवउदारवादी नीतियों के चलते यहाँ हर क्षेत्र की तरह जनस्वास्थ्य की हालत भी ख़स्ता हो चुकी है। विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के हस्तक्षेप के कारण पिछले कुछ सालों में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं उनकी हम संक्षेप में चर्चा करेंगे। सबसे पहले तो जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश से सरकार द्वारा हाथ खींचा जा रहा है और साथ ही छोटे-छोटे टेस्टों के लिए भी मरीज़ से पैसे वसूले जा रहे हैं। इसके बावजूद भी सरकारी अस्पतालों में बहुधा कोई सुविधा नहीं होती है या फिर उसके लिए इन्तज़ार ही इतना करना पड़ता है कि हार कर मरीज़ को प्राइवेट अस्पताल जाना पड़ता है, जहाँ ख़र्चा इतना होता है कि ग़रीब आदमी उसको वहन नहीं कर पाता। लेकिन इतना काफ़ी नहीं था। इसके साथ ही सरकार स्वास्थ्य बीमा के रूप में एक और स्कीम लेकर आयी है जो कुछ और नहीं बल्कि पूँजीवादी सरकार द्वारा आम जनता से किया गया एक घिनौना मज़ाक़ है। साफ़ सी बात है, अगर स्वास्थ्य सेवाएँ सरकार द्वारा मुफ़्त में उपलब्ध करवायी जायें, जोकि पूरी तरह से सम्भव है, तो स्वास्थ्य बीमा की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। ज़ाहिर है कि सरकार की नीयत ही नहीं है। तीसरा सरकार लगातार इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाती जा रही है। अब पूँजीपति तो कोई भी काम मुनाफ़े के लिए ही करता है तो साफ़ है कि स्वास्थ्य सेवाएँ महँगी तो होनी ही हैं। परिणाम हमारे सामने है। इससे भी आगे बढ़ते हुए सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबन्धन से भी पीछे हट रही है और यह ज़िम्मेदारी भी स्थानीय संस्थाओं को, जिनमें बड़े पैमाने पर साम्राज्यवाद के टुकड़ख़ोर ग़ैर-सरकारी संगठन यानि एनजीओ शामिल हैं, को सौंपती जा रही है।
बहरहाल बात करते हैं स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश होने वाले सरकारी पैसे की। विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफ़ारिशों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य में लगाना चाहिए। क्या आप जानते हैं भारत में यह कितना होता है? भारत में पिछले दो दशक से लगातार यह 1 प्रतिशत के आसपास रहा है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया था। लगाया गया केवल 1.09 प्रतिशत। 12वीं योजना के पहले सरकार ने उच्च स्तरीय विशेषज्ञों का एक ग्रुप बनाया था जिसने इस योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीडीपी का 2.5 प्रतिशत निवेश करने की सिफ़ारिश की थी लेकिन सरकार द्वारा लक्ष्य रखा सिर्फ़ 1.58 प्रतिशत। साफ़ है कि सरकार भले ही पूँजीपतियों को कई-कई लाख करोड़ की रियायतें और अनुदान दे दे, लेकिन जनता के लिए उसके पास पैसे की कमी हमेशा रहती है। ज़ाहिर है भारत सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में पैसा ख़र्च नहीं करना चाहती। अब अगर सरकार किसी क्षेत्र में निवेश से हाथ खींचती है तो इसका सीधा मतलब होता है कि उस क्षेत्र में अब निजी कम्पनियाँ निवेश करेंगी। तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र द्वारा किया गया निवेश कुल निवेश का 75 प्रतिशत है। यह पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी भागीदारियों में से एक है। इस तरह ये कम्पनियाँ इस देश के आम आदमी के स्वास्थ्य की एवज़ में मोटा मुनाफ़ा कूट रही हैं। अब जबकि निजी कम्पनियों का लक्ष्य ही मुनाफ़ा है तो उनको बीमारियों के बचाव और रोकथाम यानि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में कोई दिलचस्पी नहीं होती, ये केवल बीमारियाँ हो जाने पर महँगा इलाज मुहैया कराती हैं।
इसके चलते भारत का पहले से ही जर्जर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा ढाँचा बिल्कुल ही बैठ चुका है। भारत में हर तीस हज़ार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है जो कभी पूरा ही नहीं हुआ। उस पर भी पिछले दो दशक में भारत की आबादी तो बढ़ी है लेकिन स्वास्थ्य केन्द्रों में उसके अनुपात में नगण्य वृद्धि हुई है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों की भारी कमी के कारण ग़रीब आबादी को मजबूरन प्राइवेट डॉक्टरों के पास अपनी जेब कटवानी पड़ती है। जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके हैं कि मुनाफ़े की हवस के चलते निजी क्षेत्र की दिलचस्पी प्राथमिक स्वास्थ्य में कभी नहीं होती, वे केवल तृतीयक स्वास्थ्य सेवाओं यानि बड़े अस्पतालों में निवेश करते हैं, जबकि देश की मेहनतकश आबादी अधिकतर संक्रामक रोगों से जूझती है जिनमें तुरन्त प्राथमिक सेवा की ज़रूरत होती है। दूसरा इन निजी और कॉर्पोरेट अस्पतालों का ख़र्चा इतना ज़्यादा होता है कि ग़रीब मेहनतकश ही नहीं बल्कि एक आम मध्यवर्गीय व्यक्ति भी इसको वहन नहीं कर सकता। नतीजतन उसको या तो मरना पड़ता है या फिर क़र्ज़े में डूबना पड़ता है। कुछ अध्ययनों के अनुसार बीमारियों के इलाज में होने वाले ख़र्चों के चलते भारत में हर साल लगभग चार करोड़ लोग ग़रीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं।
नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने से पहले सभी को स्वास्थ्य सेवाएँ देने का वादा किया था। सत्ता में आने पर मोदी सरकार ने एक सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा सिस्टम बनाने की योजना भी बनायी थी लेकिन 2015 में फ़ण्ड की कमी का बहाना बना कर इस योजना को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया और अन्य वादों की तरह यह भी एक चुनावी जुमला सिद्ध हुआ। जले पर नमक छिडकते हुए 2015 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में तो सरकार ने खुले तौर पर स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की बात पर ज़ोर दिया है। इसके लिए सरकार का शिगूफ़ा है प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप, जिसमें इन्फ़्रास्ट्रक्चर और पैसा सरकार यानि देश की जनता का और मुनाफ़ा पूँजीपतियों का होगा। दलील दी गयी है कि ग़रीब आदमी को इससे उच्च श्रेणी की स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलेंगी, जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है। ग़रीब आदमी को सिर्फ़ ठोकर मिलती है, या फिर मिलती है बीमारी से मृत्यु। 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि प्राइवेट अस्पतालों में 10 प्रतिशत बिस्तर ग़रीब मरीज़ों के लिए मुफ़्त होने चाहिए। इसके लिए दिल्ली सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों को नोटिफ़िकेशन भी जारी किया हुआ है। लेकिन इस बात से इन अस्पतालों के मालिकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये अस्पताल अपने बिस्तरों को ख़ाली रख लेते हैं लेकिन ग़रीबों को कभी भर्ती नहीं करते। हाँ, अगर कोई पैसे देकर इलाज करवाना चाहे तो ज़रूर उसकी जेब तराशने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ख़ैर बात करते हैं दवा उद्योग की। स्वास्थ्य सेवाएँ बिना दवा के नहीं हो सकती। अतः इसके साथ दवाओं के गोरखधन्धे का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है। विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार भारत सहित तमाम विकासशील देशों की ग़रीब जनता महँगी दवाएँ लेने पर मजबूर है। विश्व व्यापार संगठन का एक समझौता है जो बौद्धिक सम्पदा अधिकार के व्यापार-सम्बन्धी पहलुओं पर आधारित है। अंग्रेज़ी में इसको TRIPS कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सभी सदस्यों के लिए इसको मानना अनिवार्य है। इस समझौते के अनुसार किसी भी कम्पनी को अपने पेटेण्ट का अधिकार 20 वर्ष तक मिलता है। मतलब सम्बन्धित दवा बनाने और बेचने के सर्वाधिकार उस कम्पनी के पास 20 साल तक रहते हैं। कहने को तो इसमें एक अनुच्छेद यह भी है कि किसी आपात स्थिति में कोई सरकार पेटेण्ट दवा के सस्ते घरेलू उत्पादन को छूट दे सकती है लेकिन जब भी कोई देश ऐसा करने की कोशिश करता है तो अमेरिका या अन्य साम्राज्यवादी देश उस देश पर या तो आर्थिक प्रतिबन्ध लगा देते हैं या उससे व्यापार सम्बन्ध तोड़ लेते हैं या फिर उसको निगरानी सूची में डाल देते हैं। इसके चलते भारत सरकार ने भी अपना 1970 का पेटेण्ट एक्ट 2005 में बदल दिया है। 2005 से पहले पुराने एक्ट के चलते भारत में सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन में कुछ हद तक छूट थी जो किसी हद तक देश की ग़रीब जनता को सस्ती दवाएँ मुहैया कराने में मददगार था। अब न केवल पेटेण्टेड दवाएँ महँगी मिलती हैं, बल्कि इन पेटेण्टेड दवाओं पर ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर, जो दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण रखता है, भी लागू नहीं होता। ऐसे में अब हालत ये है कि अधिकतर ज़रूरी दवाएँ आम आदमी की पहुँच से बाहर हैं।
अब अगर डॉक्टरों की बात की जाये तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हज़ार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हज़ार की आबादी पर सिर्फ़ 9 बिस्तर मौजूद हैं। इस पर भी उदारीकरण और निजीकरण के चलते इन सीमित डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं का केन्द्रीकरण भी शहरों में ही सीमित हो कर रह गया है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में 75 प्रतिशत डिस्पेंसरियाँ, 60 प्रतिशत अस्पताल और 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरों में हैं जहाँ भारत की केवल 28 आबादी निवास करती है। भारत में आयु सम्भाव्यता 68 साल है जो ब्रिक्स के देशों में सबसे कम है। भारत के ग्रामीण इलाक़ों में 5 कि.मी. की ज़द में कोई बिस्तर वाला अस्पताल केवल 37 प्रतिशत लोगों की पहुँच में है और 68 प्रतिशत लोगों की पहुँच किसी ओपीडी तक है। ऐसे में गाँव की ग़रीब आबादी को इलाज मिल ही नहीं पाता है और शहरों में भी इलाज का ख़र्च सिर्फ़ अमीर ही उठा पाते हैं।
इस प्रकार हम साफ़ देख सकते हैं कि मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था ने किस तरह से हर चीज़ की तरह स्वास्थ्य और मानव जीवन को भी एक माल बना दिया है। उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के लागू होने के बाद से स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बद से बदतर होते जा रही है और यह तब तक जारी रहेगा जब तक पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम रहेगी। ऐसे में यह बेहद ज़रूरी है कि पूँजीवाद को ख़त्म करके समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की जाये ताकि मानव जीवन और मानव स्वास्थ्य को एक मानवीय ज़रूरत के तौर पर ही देखा और व्यवहार में लाया जाये, न कि एक माल के तौर पर।

(मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016 से)

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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