“पाँच ट्रिलियन डॉलर” की अर्थव्यवस्था बन रहे देश में ऑक्सीजन, दवा, बेड की कमी से दम तोड़ते लोग!
– प्रियम्वदा
कोरोना महामारी की दूसरी लहर भयावह रूप धारण कर चुकी है। इस दौरान विश्वगुरु भारत की चिकित्सा व्यवस्था के हालात भी खुलकर हमारे सामने आ गये हैं। देश में कोविड से होने वाली मौतों का आँकड़ा 2,38,270 पार कर चुका है। हर रोज़ 4.01 लाख से अधिक कोरोना पॉज़िटिव मामले दर्ज किये जा रहे हैं वहीं 4,187 मौतें आये दिन हो रही हैं। असल में संक्रमित लोगों और कोरोना से होने वाली मौतों के आँकड़े इससे कहीं अधिक हैं जिन्हें सरकार व मीडिया द्वारा लगातार दबाया जा रहा है। भारत में कोरोना के बढ़ने की रफ़्तार इस वक़्त दुनिया के बाक़ी देशों से कहीं ज़्यादा है। कोरोना से होने वाली मौतों में एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जिन्हें समय पर ऑक्सीजन, दवाई, बेड उपलब्ध नहीं हो सका।
मेडिकल ऑक्सीजन की कमी से बने भयावह हालात का सबसे विकराल रूप दिल्ली में देखा गया लेकिन इस गम्भीर समस्या का समाधान ढूँढ़ने के बजाय दिल्ली और केन्द्र सरकार में तू नंगा-तू नंगा का खेल चलता रहा। इसी बीच ऑक्सीजन की आपूर्ति न होने से सैकड़ो लोगों की असमय मृत्यु हो गयी। सर गंगाराम जैसे जाने-माने अस्पताल में ऑक्सीजन न मिलने से 25 लोगों ने दम तोड़ दिया, वहीं बत्रा, जयपुर गोल्डन अस्पताल में भी यही आलम रहा। देश के अन्य राज्यों में भी यही स्थिति बनी रही। उत्तर प्रदेश में हालात की भयंकरता का अन्दाज़ा इस तस्वीर से लगाया जा सकता है कि लोग सड़कों पर लाशों को जलाने के लिए मजबूर हैं। इस पूरे हालात की चेतवानी पिछले एक साल से डॉक्टर्स और कोविड माहिर सरकारों को दे रहे हैं लेकिन समय रहते न ही केन्द्र सरकार ने और न राज्य सरकारों ने कोई पुख़्ता इन्तज़ाम किया। नतीजतन, ऑक्सीजन और दवा-इलाज की भयानक कमी से मौत और मायूसी ने हर शहर, मोहल्ले को अपना निशाना बना लिया। कोरोना और ख़स्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की वजह से हो रही इन मौतों को मौत कहना ग़लत होगा। ये जानें बचायी जा सकती थीं लेकिन इस मुनाफ़ाख़ोर रक्तपिपासु व्यवस्था व नरभक्षी फ़ासिस्ट सरकार की नीतियों की वजह से की जाने वाली हत्याएँ हैं ये!
क्या ऑक्सीजन, दवा, बेड, क्वारण्टाइन सेण्टर्स का इन्तज़ाम करने के लिए एक साल का वक़्त कम था?
क्यों ऑक्सीजन की आपूर्ति समय पर नहीं की गयी?
इसका सीधा सा जवाब यह है कि हमारी सरकारों ने चिकित्सकों, विशेषज्ञों के बार-बार कहने के बावजूद भी कोरोना की दूसरे लहर से निपटने का कोई इन्तज़ाम नहीं किया। हमारे हुक्मरानों की प्राथमिकता में आम लोगों की ज़िन्दगी नहीं थी, बल्कि बंगाल चुनाव जीतने की तैयारी से लेकर कुम्भ की भीड़ आयोजित करना और सेण्ट्रल विस्टा बनवाना उनका प्रमुख काम बना रहा।
कोविड महामारी के शुरू होने से पहले भारत को हर दिन 700 मेट्रिक टन लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन की ज़रूरत होती थी। कोविड की पहले लहर (सितम्बर 2020) के वक़्त जब एक लाख केस प्रतिदिन दर्ज किये जा रहे थे तब ऑक्सीजन की ज़रूरत बढ़कर 2800 मीट्रिक टन पहुँच गयी। आज जब संक्रमित मामलों की संख्या (अप्रैल ’21 तक) पहले से तीन गुना अधिक बढ़ गयी है (1 मई को यह आँकड़ा 4 लाख पर कर गया) तो इस हिसाब से ऑक्सीजन की ज़रूरत भी तीन गुना बढ़कर 8400 मेट्रिक टन हो गयी है।
अखिल भारतीय औद्योगिक गैस निर्माता संघ (एआईआईजीएमए) के अध्यक्ष साकेत टिक्कू ने बताया कि “राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में उत्तर या पश्चिम भारत के कई राज्यों में ऑक्सीजन की क़िल्लत की मुख्य वजह यह है कि ऑक्सीजन का सबसे अधिक उत्पादन ओडिशा या झारखण्ड जैसे पूर्वी राज्यों में होता है और इस ऑक्सीजन को दिल्ली तक आने में तक़रीबन 1,500 किलोमीटर तक का सफ़र तय करना पड़ता है। लिक्विड या तरल ऑक्सीजन को क्रायोजेनिक कण्टेनर में ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। भारत में हुए ऑक्सीजन के संकट की एक बड़ी वजह क्रायोजेनिक कण्टेनरों की सीमित उपलब्धता है और अगर आज नये क्रायोजेनिक कण्टेनर बनाने के ऑर्डर दिये जायें तो उनकी डिलीवरी में 5 से 6 महीने का वक़्त लगेगा।”
हमारे पास पूरे एक साल का समय था! ऑक्सीजन की बढ़ती माँग के कारण भारत की उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर 8500 से 9000 टन प्रतिदिन तक लाया जा चुका है पर चिंता की बात यह है कि ऑक्सीजन की माँग अब भी इससे अधिक है। वे कहते हैं, “यह कहा जा सकता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें पिछले साल सितम्बर से इस साल मार्च तक सो गयी थीं।”
क्रायोजेनिक कण्टेनर के अलावा चिकित्सक और माहिर लगातार यह कह रहे थे कि इस चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए अस्पतालों के अन्दर ऑक्सीजन सप्लाई करने के लिए ज़रूरी बुनियादी ढाँचे का निर्माण किया जाना चाहिए था मगर ये फ़ासिस्ट सरकार स्वास्थय व्यवस्था ठीक करने के बजाय कुम्भ आयोजित कर लोगों की मौत की तैयारी में व्यस्त रही। इस वक़्त लोगों को हज़ारों करोड़ वाले सेण्ट्रल विस्टा की ज़रूरत नहीं थी बल्कि अगर इन पैसों का इस्तेमाल ऑक्सीजन प्लाण्ट लगाने में, डॉक्टर-नर्स की भर्ती करने में, क्वारण्टाइन सेण्टर बनाने में ख़र्च किया जाता तो हम देश को श्मशान में तब्दील होने से बचा सकते थे!
कितने ही लोग अस्पताल में जगह न मिलने की वजह से सड़कों पर मरने के लिए मजबूर हुए, समय रहते अगर ख़ाली पड़े इमारतों, होटलों, स्टेडियम में बेड व चिकित्सा सुविधा का इन्तज़ाम किया जाता तो हम इस भयावह परिस्थिति के साक्षी होने से बच सकते थे। आम जनता की चिंताओं पर अपने लिए आरामगाह बनवाने वाली इस हत्यारी सरकार से अब कोई और उम्मीद करना हमारी मूर्खता होगी। लोगों के कफ़न तक में घोटाला करने वाले इस सरकार के नेता-मंत्रियों ने इस महामारी के वक़्त जीवनरक्षक दवाइयों की कालाबाज़ारी करने में कोई कमी नहीं की। गौतम गम्भीर जहाँ दिल्ली स्थित अपने आवास पर रेमिडिसिवर को ऊँचे दामों पर बेचने में व्यस्त थे वहीं बिहार में भाजपा के सांसद राजीव प्रताप रूडी के घर के आगे 60 एम्बुलेंस बरामद की जा रही थीं।
लोगों की लाशों पर पैसा कमाने और राजनीति करने में व्यस्त इन हत्यारों की वजह से आम मेहनतकश जनता मरने को मजबूर है। फ़ासीवादी भाजपा सरकार ने स्वास्थ्य पर होने वाले ख़र्च को लगातार कम किया है। मालूम हो कि जीडीपी का मात्र 1.28% ही स्वास्थ के क्षेत्र में ख़र्च किया जाता है जिसका नतीजा ये ख़स्ताहाल स्वास्थ्य व्यवस्था है। देश में तक़रीबन 12,500 मरीज़ों पर केवल 1 डॉक्टर उपलब्ध है मगर फिर भी हमें मूर्तियों और मन्दिरों की ज़्यादा ज़रूरत है! स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करके काफ़ी पहले ही आम लोगों से स्वास्थ्य का अधिकार छीना जा चुका है। स्पेन जैसे पूँजीवादी देश तक ने इस महामारी से लोगों की जीवनरक्षा के लिए तमाम प्राइवेट अस्पतालों का राष्ट्रीकरण कर उन्हें सरकारी नियंत्रण में ले लिया और सभी के लिए एक समान इलाज की व्यवस्था की। क्या स्पेन की तरह भारत में भी स्वास्थ्य के ढाँचे का राष्ट्रीकरण करके युद्ध स्तर पर कोरोना से लड़ने की तैयारी नहीं की जा सकती थी?
देश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीकरण करके, उसे सरकारी नियंत्रण में लाकर सभी के लिए निःशुल्क और एक समान दवा-इलाज की व्यवस्था कर इस स्थिति की भयंकरता को कम किया जा सकता था। और हाँ! हर तरफ़ मौत के इस ताण्डव से बचा जा सकता था।
अभी भी सरकार कोरोना वैक्सीन को पेटेण्ट मुक्त कर और युद्धस्तर पर इसका उत्पादन कर प्रत्येक नागरिक तक पहुँचा सकती है।
स्वास्थ्य के अधिकार पर हमला हमारे जीने के अधिकार पर हमला है। लोगों की मौत का कारण बनी यह आदमख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था और हत्यारी फ़ासीवादी सरकार हमें ये अधिकार नहीं दे सकती। संकट की इस परिस्थिति ने एक बार फिर मानवकेन्द्रित समाजवादी व्यवस्था की ज़रूरत को महसूस कराया है। सभी को एक समान और निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा ही आने वाली ऐसी विभीषिकाओं से हमें बचा सकती है।
मज़दूर बिगुल, मई 2021
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