हरियाणा में भी बना नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने का क़ानून
बेरोज़गारी के आलम में हुक्मरान रच रहे हैं मज़दूर वर्ग को बाँटने की साज़ि‍शें

– आनन्द सिंह

हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने मार्च के पहले सप्ताह में राज्य में निजी क्षेत्र की प्रति माह 50 हज़ार रुपये तक की तनख़्वाह वाली नौकरियों में 75 प्रतिशत स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण सम्बन्धी क़ानून पारित करवा लिया। इससे पहले गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु व उत्तराखण्ड सहित कई राज्यों में भी इस तरह के क़ानून पारित हो चुके हैं या उनकी क़वायद चल रही है। हाल ही में झारखण्ड में भी यह क़वायद शुरू हो चुकी है। हालाँकि भारतीय संविधान में लोगों के जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव की मनाही से सम्बन्धित कई प्रावधान हैं और लोगों को बिना किसी रोकटोक के देशभर में कहीं भी जाने और बसने का अधिकार दिया गया है और साथ ही उच्चतम न्यायालय ने भी अपने एक फ़ैसले (चारू खुराना बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया, 2014) में जन्मस्थान के आधार पर लगाये जाने वाली सभी पा‍बन्दियों को संविधान-विरोधी बताया है, लेकिन फिर भी संवैधानिक प्रावधानों व उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले की धज्जियाँ उड़ाते हुए समय-समय पर कई राज्यों में स्थानीय निवासियों को आरक्षण देने के नाम पर राजनीति गरमाती रहती है। ऐसे में मज़दूर वर्ग के नज़रिये से इस मुद्दे पर समझ बनाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।
पूँजीवाद में अन्तर्निहित अराजकता की वजह से किसी भी देश में पूँजीवादी विकास का परिणाम यह होता है कि उद्योग-धन्धों के विकास और शहरीकरण की प्रक्रिया कुछ ही क्षेत्रों में तेज़ गति से आगे बढ़ती है, जबकि शेष क्षेत्र पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में पिछड़े इलाक़ों के लोग आजीविका की तलाश में विकसित इलाक़ों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इस प्रकार कुछ इलाक़े उद्योग-धन्धों के केन्द्र बन जाते हैं और कुछ इलाक़े मुख्यत: श्रमशक्ति के आपूर्तिकर्ता बन जाते हैं। सापेक्षत: पिछड़े क्षेत्रों से मेहनतकशों के विकसित क्षेत्रों के प्रवासन की यह प्रक्रिया पूरी पूँजीवादी दुनिया में देखने में आयी है। भारत में भी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से मेहनतकशों का नेट प्रवासन सापेक्षत: विकसित राज्यों की ओर हो रहा है और महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में आने वाले प्रवासियों की संख्या इन राज्यों से बाहर जाने वाले लोगों से अधिक है।
यह क्षेत्रीय असन्तुलन बुर्जुआ पार्टियों को अपनी विभाजनकारी राजनीति जमाने का अवसर देता है। पूँजीवादी संकट और भयंकर बेरोज़गारी के दौर में बुर्जुआ पार्टियाँ जहाँ एक ओर धर्म और जाति के नाम पर मेहनतकशों को बाँटने के लिए भाँति-भाँति की साज़िशें रचती हैं वहीं दूसरी ओर अन्य राज्यों व राष्ट्रीयताओं के प्रवासियों के ख़ि‍लाफ़ भी नफ़रत का ज़हर फैलाकर बाहरी बनाम स्थानीय लोगों की कृत्रिम दीवार खड़ी करके मेहनतकशों को उनकी समस्याओं की असली वजह जानने से रोकती हैं। नफ़रत की इसी राजनीति का परिणाम विभिन्न राज्यों में नौकरियों स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करने की माँग के रूप में सामने आता है।
हालाँकि पूँजीपति वर्ग भी अक्सर प्रवासन को बढ़ावा देने के पक्ष में रहता है क्योंकि इससे उसे कुशल व सस्ती श्रमशक्ति की उपलब्धता बढ़ जाती है और मज़दूरों की मज़दूरी में कमी करने में मदद मिलती है, लेकिन प्रवासी-विरोधी राजनीति की मौजूदगी से भी उसको फ़ायदा मिलता है क्योंकि इससे मज़दूर वर्ग की एकजुटता को तोड़ने में मदद मिलती है। ख़ासकर आर्थिक संकट के समय भाँति-भाँति की फ़ि‍रकापरस्त, साम्प्रदायिक व फ़ासिस्ट ताक़तें लोगों को जाति-धर्म-भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर बाँटने की राजनीति करके पूँजीपति वर्ग के हितों को ही साधने का काम करती हैं। भाजपा के अलावा शिवसेना व मनसे जैसी तमाम क्षेत्रीय पार्टियों की पूरी राजनीति ही स्थानीय अस्मिता के नाम पर टिकी है। अतीत में महाराष्ट्र व असम जैसे राज्यों में तो प्रवासी-विरोधी इस राजनीति का नतीजा प्रवासियों के ख़ि‍लाफ़ बर्बर हिंसक हमलों के रूप में सामने आ चुका है।
प्रवासी-विरोध की राजनीति करने वाले दल और हरियाणा जैसे राज्यों में नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण हेतु क़ानून के पक्षधर यह झूठा प्रचार करते हैं कि लोगों के पास नौकरियाँ इसलिए नहीं है क्योंकि बाहर से आये प्रवा‍सी सारी नौकरियाँ हड़प ले जा रहे हैं। सच तो यह है कि आर्थिक मन्दी और नवउदारवाद के दौर में ‘जॉबलेस’ विकास की वजह से नयी नौकरियाँ पैदा ही बहुत कम हो रही हैं। जहाँ तक प्रवासन की बात है तो भारत में अभी भी प्रवासन की दर अपेक्षाकृत कम है। अन्तरराज्यीय प्रवासन की दर क़रीब 1 प्रतिशत है, जबकि ब्राज़ील में यह दर 3.6 प्रतिशत, चीन में 4.7 प्रतिशत एवं अमेरिका में 10 प्रतिशत है। भारत में अभी भी प्रवासन की राह में कई क़ि‍स्म की अड़चनें हैं जिसकी वजह से मज़दूरों के प्रवास की दर बहुत कम है।
हरियाणा में जो क़ानून पारित हुआ है उसमें विशेष रूप से ग़ौर करने वाली बात यह है कि स्थानीय निवासियों को आरक्षण का प्रावधान केवल प्रति माह 50 हज़ार रुपये या उससे कम तनख़्वाह वाली नौकरियों में किया गया है। स्पष्ट है कि इस क़ानून की गाज आम मज़दूरों पर ही पड़ने वाली है। इस तरह के क़ानून और उसके आधार पर हो रही घटिया राजनीति कोरोना काल में पहले से तबाह और बदहाल मज़दूर आबादी के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने के समान है। दरअसल हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर की संघी सरकार ने यह क़दम इसलिए उठाया है क्योंकि हरियाणा इस समय सबसे अधिक बेरोज़गारी दर वाला राज्य हो गया है। सितम्बर 2020 में ‘सेण्टर फ़ॉर मॉनी‍टरिंग ऑफ़ इण्डियन इकोनोमी’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार हरियाणा में बेरोज़गारी दर 33.5 प्रतिशत थी जो देश में सबसे अधिक है। ऐसे में जब देशभर में बढ़ती बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ लोगों का आक्रोश‍ बढ़ता जा रहा है और लोग सरकारों की विफलता पर सवाल उठने लगे हैं तो इस आक्रोश को प्रवासियों के ख़ि‍लाफ़ मोड़ने और स्थानीय निवासियों को झूठी तसल्ली देने के लिए इस तरह के क़ानून का सहारा लिया गया है। ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि हरियाणा के क़ानून का भी कई पूँजीपतियों व उनकी संस्थाओं ने भी इस आधार पर विरोध किया है कि इससे उनको अपने कामों के लिए उचित श्रमिक मिलने में दिक़्क़त होगी और उनकी कार्यकुशलता प्रभावित होगी।
मज़दूर वर्ग के हितों से सरोकार रखने वालों को ऐसे मुद्दों को क़ौमी नज़रिए की बजाय वर्गीय नज़रिए से देखना चाहिए। प्रवासन पूँजीवाद की अवश्यम्भावी परिघटना है। यह ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील होता है क्योंकि इससे मज़दूरों की चेतना का विस्तार होता है और उनमें क्षेत्रीय संकीर्णता ख़त्म होने से अन्तरराष्ट्रीयता की भावना पनपने का आधार तैयार होता है। इससे मज़दूरों को समझ में आता है कि उनका दुश्मन किसी एक कारख़ाने, राज्य या राष्ट्र के पूँजीपति नहीं बल्कि समूचा पूँजीपति वर्ग है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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