गर थाली आपकी खाली है, तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे
अभी पिछले दिनों हमें एक घटिया सी नौटंकी दिखायी गई जिसमें अभिनय निहायत भद्दा और प्रस्तुति बेहद उबाऊ थी। अवसर था कांग्रेसी नेताओं में ग़रीबी निर्धारण के सरकारी पैमाने को उचित साबित करने की होड़।
फिल्मी भड़ैती करनेवाले राजबब्बर (जिसे जिन्दा रहने के लिए आम मेहनतकश की तरह मशक्कत नहीं करनी पड़ती है और न ही उनकी तंगहाल जिन्दगी की हकीकत से कोई वास्ता रहता है), वह लोगों को यह बता रहे थे कि 12 रुपये में बड़े आराम से पेट भरा जा सकता है। दूसरे कांग्रेसी नेता रसीद मसूद को यह भी ज्यादा लग रहा था। उनके हिसाब से तो 5 रुपये ही पेट भरने के लिए काफी थे। गले तक खाकर अघाये और बोतलबंद पानी गटकनेवाले इन नेताओं को तो यह भी नहीं पता कि देश की राजधानी दिल्ली में ही एक ग़रीब आदमी को अपने बीबी बच्चों की पानी की जरूरत पूरी करने की क़ीमत किस प्रकार अपनी जान गंवाकर देनी पड़ी। 2 किमी दूर से 20 किग्रा पानी अकेले ढोकर लाने में उसका जर्जर शरीर ढह गया। खाद्यान्न सुरक्षा तो दूर आम आदमी को तो पीने लायक पानी की सुरक्षा भी नहीं हासिल है।
दूसरी ओर सत्ता तक अपनी पहुँच बनाने की जी तोड़ कोशिशों में लगी भाजपा ने इस मौके को हाथों-हाथ लपक लिया और उसके देश-प्रदेश स्तर के नेता ढ़ाबों और ठेलों पर थाली पकड़े 5 रु. में भर पेट भोजन माँगते हुए अखबारों और टी.वी. चैनलों के लिए फोटो सेशन देने लगे। यह समूचा दृश्य उबकाई पैदा करनेवाला था।
ऐसे खेल तमाशे हर पाँचसाला चुनाव के पहले दिखाये जाते हैं। विशेषकर ग़रीब और ग़रीबी दूर करने से संबंधित नौटंकी चुनाव के ऐन पहले प्रदर्शन के लिए हमेशा सुरक्षित रखी जाती है। दरअसल इसके जरिये सत्तासीन पार्टी और सत्तासुख से वंचित तथाकथित विरोधी पार्टियां (जो कि वास्तव में चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह ही होती हैं – जनता की हितैषी होने का दिखावा, लेकिन हकीकत में पूँजीपतियों की वफा़दार), दोनों ही आम जनता को भरमाने का मुगालता पाले रहती हैं। पर जनता सब जानती है। वह अपने अनुभव से देख रही है कि आजादी के 62 सालों में देश की तरक्की के चाहे जितने भी वायदे किये गये हों उसकी जिन्दगी में तंगहाली बढ़ी ही है। पेट भरने लायक जरूरी चीजों की भी कीमतें आसमान छू रही हैं, उसके आंखों के सामने उसके बच्चे कुपोषण और भूख से मर रहे हैं, और दवा और इलाज के अभाव में तिल-तिल कर खत्म हो जाना जिसकी नियति है। इस सच्चाई को ग़रीब और ग़रीबी के बेतुके सरकारी आँकड़े झुठला नहीं सकते।
देश की सूरत बदलने का सब्ज़बाग़ दिखाकर कांग्रेस ने आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को बड़े गाजेबाजे के साथ बाइस साल पहले लागू किया था। इसमें अग्रणी भूमिका निभानेवाले, पूँजीपतियों के चहेते मनमोहनसिंह तब कांग्रेस का वित्त मंत्रालय सम्भालते थे। और अब प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठकर उन आर्थिक सुधारों की रफ़्तार बढ़ाने में एक बार फिर अपनी सारी काबिलियत लगा दी है। इससे पूरे देश की सूरत तो नहीं बदली, पूँजीपतियों के चेहरे समृद्धि की चिकनाहट से जरूर चमकने लगे। उनकी दौलत दिन दूनी रात चौगुनी के दर से बढ़ती रही । पिछले 20 वर्षों में मुकेश अंबानी की दौलत में जहां 101 गुना इजाफा हुआ, वहीं महिन्द्रा की दौलत 270 गुना बढ़ गई, इंफोसिस की 5100 गुना, तो कुख्यात वेदान्ता के अनिल अग्रवाल की दौलत 1024 से भी ज्यादा बढ़ गई। इनके और इनके लग्गुओं भग्गुओं के विकास को देश का विकास कहा गया। परन्तु विकास की सीढ़ियां चढ़ते देश में लोगों की दोनों वक्त की रोटी की सबसे बुनियादी जरूरत भी अब तक पूरी नहीं हो सकी है। वैसे भी यदि कांग्रेस को खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक की जरूरत को (वह सियासी दांव पेंच ही क्यों न हो) मुद्दा बनाना पड़ रहा हो तो यह समझा जा सकता है कि आर्थिक सुधार की जिन नीतियों के जरिये आम जनता की खुशहाली के दावे लगातार किये जा रहे थे वह आज कितना खोखला साबित हुआ है। आर्थिक सुधारों का असली फायदा किसे पहुँच रहा है इसके लिए अमर्त्यसेन की तरह बहुत बड़े अर्थशास्त्री होने की भी जरूरत नहीं।
यह बात भी अब जनता से छुपी नहीं है कि मौजूदा वित्तमंत्री चिदंबरम साहब भी फिक्की और ऐसोचैम (पूँजीपतियों के संगठन)की बैठकों में आर्थिक सुधारों की रफ़्तार बढा़ने के बारे में पूँजीपतियों को आश्वस्त करना क्यों जरूरी समझते हैं। इतना ही नहीं किसी जन या वोट दबाव में पूँजीपतियों के हितों के विपरीत यदि सरकार कोई निर्णय कभी लेती भी है तो उसे इनकी कड़ी फटकार सुननी पड़ती है यहां तक कि फैसलों को वापस तक लेना पड़ता है। जैसाकि अभी कुछ दिनों पहले पूँजीपतियों पर लगाये जाने वाले अतिरिक्त कर के मामले में हुआ था। साफ है कि पूँजी और मुनाफे की इस पूरी व्यवस्था को सम्भालने का काम सरकारें बिल्कुल मुनीम की कुशलता और चतुराई से करती हैं। उनके मुनाफे पर वे कोई आँच नहीं आने देतीं। यदि कभी ऐसा होती भी है तो तमाम तरह के करों में भारी भरकम छूट देकर वे फौरन उसकी भरपाई करने में जुट जाती हैं। अभी पिछले ही वर्ष सरकार की ओर से उन्हें दी गई छूट की यह रकम पाँच लाख करोड़ रुपये थी। जाहिर है इस भरपाई का बोझ हमेशा मेहनतकश जनता ही उठाती है।
पूँजीपतियों के लिए ये सारी छूटें और सहूलियतें! और देश की बहुसंख्यक आबादी जो अपनी मेहनत की कमाई पर जीती है उसे सरकार से मुट्ठी भर अनाज पाने के लिए वाहियात ढंग से बनाई गई ग़रीबी रेखा के नीचे गुजर बसर करने की शर्त पूरी करनी होगी! यानी यदि वह गाँव में हो तो 27.2 रु. और शहर में हो तो 33.3 रु. रोजाना की आय पर ही जी सकता हो। हर प्रकार के जोड़तोड करके यह आँकड़ें तैयार करनेवाले योजना आयोग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि इस रकम से उसे रोजाना काम करने के लिए जरूरी 2100-2200 कैलोरी की ऊर्जा प्रतिदिन मिलेगी या नहीं। जो खुद अपने यहां नाश्ते पर 84 लाख रुपये उड़ा डालता हो और शौचालय पर यूं ही 35 लाख फूंक देता हो उससे जनता की बेहतरी की योजना तैयार करने की हम उम्मीद भी नहीं कर सकते। उसके बाद भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेकसिंह अहलूवालिया यहीं नहीं रुके, उन्होंने आँकड़ों की शातिराना बाजीग़री से यह साबित करने की कोशिश की – ग़रीबों की संख्या 2.2 फीसदी दर से लगातार घट रही है और यह कि अब देश में सिर्फ 21.9 प्रतिशत यानी 27 करोड़ लोग ही ग़रीब हैं। अगर इसे सच मान लिया जाये तो इस लिहाज से वह दिन दूर नहीं जब ग़रीबी रेखा की जरूरत ही नहीं रहेगी। तब, जाहिर है, शासन व्यवस्था के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी कुछ बची-खुची असुविधाजनक कल्याणकारी योजनाओं और जनता को थोड़ी बहुत दी जानेवाली छूटों-रियायतों से छुटकारा पा लेने की राह आसान हो जायेगी। शतप्रतिशत सभी कुछ देशी-विदेशी पूँजी के हवाले। है न, खुला खेल फरूखाबादी? परन्तु हिसाब किताब बिठाने में मुब्तिला अहूलवालिया साहब यह एक बात तो भूल ही गये कि योजना आयोग के ही एक सदस्य अर्जुन सेन गुप्ता ने, अभी बहुत दिन नहीं हुए, अपने रिपोर्ट में बताया था कि 20 रु. या उससे भी कम रोजाना (27 या 33 रु. रोजाना नहीं) आय पर जीनेवालों की संख्या ही आज देश में 77 फ़ीसदी या 84 करोड़ से भी ज्यादा है। यदि 27-33 रु. आमदनीवाली आबादी को भी इसमें शामिल कर लिया जाये तो बिल्कुल साफ है कि यह संख्या और ज्यादा बढ़ जायेगी। भारतीय राज्य भूख सूचकांक के अनुसार भी 17 राज्यों में किये गये सर्वेक्षण में 12 राज्यों में भूख की स्थिति भयावह है।
ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उलटा
कुल मिलाकर यह सारा तमाशा आर्थिक सुधारों की जरूरत और उसके फायदे प्रमाणित करने की बदहवासी है। ऐसा नहीं है कि भाजपा का इससे कोई मतभेद है। राजनाथ सिंह और उनके चेले-चाटी अपने यहां इसके विरोध में चाहे जितनी गर्म-गर्म बातें करते रहे हों, अभी हाल ही में अमेरिकियों और अमेरिकी भारतीयों की बैठकों में जाकर वे इन आर्थिक सुधारों की पुरज़ोर वकालत कर आयें हैं। उस दौरान नरेन्द्र मोदी के लिए वीजा की भीख माँगने के सिलसिले में वे अमेरिका गये हुए थे। लिहाजा यह बिल्कुल शीशे की तरह साफ है – सरकार चाहें कोई भी चुनावबाज पार्टी बनाये वास्तव में वे पूँजीपतियों की बेलगाम लूट और मुनाफे की परिस्थियां ही तैयार करेंगी, उनके हित में राजकाज, पैदावार और बंटवारे की पूरे तंत्र को ही संचालित करेंगी। आम मेहनतकश जनता उनकी निगाह में इंसान नहीं पशु होगी जिसे वस्त्र, मकान इलाज और शिक्षा की जरूरत नहीं। बस पेट में डालने भर को जिसके लिए मुट्ठी भर अनाज काफी होगा और वह भी ग़रीबी रेखावाली शर्त पूरी करने के बाद।
मेहनतकश अवाम के लिए इस नारकीय स्थिति से निजात पाने का रास्ता बस एक ही है। क्रांतिकारी विकल्प की तैयारियों को तेज कर देना। अब और इसमें देर करना घातक होगा।
ग़र थाली आप की ख़ाली है
ग़र थाली आपकी ख़ाली है
तो सोचना होगा कि ख़ाना कैसे ख़ाओगे
ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उलटा
जब तक कि ख़ाली पेट नहीं भरता
अपनी मदद
आप करो
किसी का इन्तजार ना करो
यदि काम नहीं है और आप हो ग़रीब
तो ख़ाना कैसे होगा ये आप पर है
सरकार आपकी हो ये आप पर है
पलट दो उलटा सर नीचे और टाँगें ऊपर
आप पर है कि पलट दो सरकार को उलटा
तुम पर हँसते हैं कहते हैं तुम ग़रीब हो
वक़्त मत गँवाओ अपनेआप को बढ़ाओ
योजना को अमली जामा पहनाने के लिए
ग़रीब-गुरबा को अपने पास लाओ
ध्यान रहे कि काम होता रहे
होता रहे-होता रहे
जल्दी ही समय आयेगा जब वो बोलेंगे
कमज़ोर के आस-पास हँसी मँडरायेगी,
हँसी मँडरायेगी, हँसी मँडरायेगी
– बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (‘मदर’ नाटक से)
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2013
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन