क्या सारे किसानों के हित और माँगें एक हैं?
धनी फ़ार्मरों व कुलकों से अलग सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों की क्या माँगें हैं?

– अभिनव

किसान कौन है? यह सबसे पहला बुनियादी सवाल है।
जब हमारे देश में सामन्ती जागीरदारी की व्यवस्था हावी थी, तब हर तरह के और टोटे-बड़े सभी किसानों का एक साझा दुश्मन था। खेतिहर मज़दूरों व बँधुआ मज़दूरों का भी वही साझा दुश्मन था। यह दुश्मन था सामन्ती ज़मीन्दार। सामन्ती ज़मीन्दार वह ज़मीन्दार होता है, जो कि आम किसान आबादी से लगान वसूल करता है, गाँव में उसके पास सरकार जैसी शक्ति होती है, वह सिर्फ़ आर्थिक तौर पर नहीं लूटता, बल्कि उसकी आर्थिक लूट उसके राजनीतिक दबदबे और चौधराहट पर पर ही टिकी होती है। वह अपनी अय्याशी और ऐशो-आराम के मुताबिक मनमाना लगान वसूलता था। वह अपनी ज़मीन पर बाज़ार के लिए और मुनाफ़े के लिए खेती नहीं करवाता था, बल्कि वह पूरी तरह से किसानों से वसूले जाने वाले लगान पर निर्भर करता था।
यह सामन्ती ज़मीन्दार धनी किसान, मँझोले किसान, ग़रीब किसान व काश्तकार, और खेतिहर मज़दूर सबको लूटता और दबाता था और इन सभी का साझा दुश्मन था।
1957 के बाद देश में पूँजीवादी सत्ता क़ायम होने के बाद कहने के लिए ज़मीन्दारी उन्मूलन कानून बना। लेकिन इसे कुछ बेहतर तरीके से जम्मू-कश्मीर और केरल में ही लागू किया गया; बाकी राज्यों में इसे बहुत ही गये-बीते तरीके से लागू किया गया और कुछ राज्यों में तो नाममात्र ही लागू किया गया। लेकिन खेती को पूँजीवादी रूप में ढालना भारत के नये हुक्मरानों, यानी नये औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी था। नतीजतन, उनकी नुमाइन्दगी करने वाली नयी सरकार ने इन सामन्ती ज़मीन्दारों को ही पूँजीवादी ज़मीन्दार में तब्दील होने का मौका दिया।
पूँजीवादी ज़मीन्दार कौन होता है? पूँजीवादी ज़मीन्दार वह होता है, जो पूँजीवादी लगान वसूलता है। पूँजीवादी लगान क्या होता है? इस लगान को पूँजीवादी ज़मीन्दार अपने मन-मुआफिक नहीं तय कर सकता है। फिर यह लगान कैसे तय होता है? पूँजीवादी लगान तीन कारकों से तय होता है: पूरी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर, अलग-अलग ज़मीन के प्लाटों की उत्पादकता और मुनाफ़े की दर और खेती का एक ऐसे संसाधन पर निर्भर करना, जो कि कुदरती संसाधन है और सीमित है: यानी ज़मीन। ज़मीन किसी ने बनाई नहीं है। यह कुदरती संसाधन है। लेकिन यह सीमित मात्रा में है और यह पूँजीवादी ज़मीन्दारों के एक वर्ग की सम्पत्ति है। जैसे-जैसे भोजन व अन्य खेती उत्पादों की माँग बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे कम उपजाऊ ज़मीन पर खेती ज़रूरी बनती जाती है। इन खेती उत्पादों की माँग यह तय करती है कि सबसे ख़राब ज़मीन पर खेती करने वाले पूँजीवादी फ़ार्मर को भी औसत मुनाफ़े से अधिक मुनाफ़ा हो, वरना वह पूँजीवादी भूस्वामी से ज़मीन किराये पर लेकर खेती क्यों करेगा? अगर उसे औसत मुनाफ़ा ही मिल रहा है, और उसे उसमें से ज़मीन का किराया/लगान पूँजीवादी भूस्वामी को निकालकर देना है, तो वह अपनी पूँजी अर्थव्यवस्था में कहीं और लगायेगा, जहाँ उसे औसत मुनाफ़े की दर हासिल हो सके। इसलिए खेती में उत्पाद की कीमत सबसे ख़राब ज़मीन और सबसे ख़राब उत्पादन की स्थितियों से तय होती है और ख़राब से ख़राब ज़मीन को कुछ अतिरिक्त मुनाफ़ा तभी मिल सकता है, जबकि खेती में पैदा हो रहा समूचा मूल्य (यानी उत्पाद में बदल चुका श्रम) खेती के क्षेत्र में ही रहे, जो कि आम तौर पर अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मिल रहे औसत मुनाफ़े से ऊँचा ही होता है क्योंकि वहाँ पर खेती के मुकाबले मशीनें ज़्यादा होती हैं और प्रति इकाई मशीन मज़दूर कम होते हैं। नतीजतन, खेती में श्रम भी ज्यादा सघन होता है और मूल्य भी ज़्यादा पैदा होता है। मतलब यह कि पूँजीवादी ज़मीन्दार भी अगर इतना लगान माँगेगा कि पूँजीवादी फ़ार्मर के पास औसत मुनाफ़े जितना भी न बचे तो पूँजीवादी फ़ार्मर अपनी पूँजी को किसी और क्षेत्र में लगाना पसन्द करेगा; और अगर पूँजीवादी फ़ार्मर खेती में पूरी अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफ़े के ऊपर मिल रहे ‘अतिरिक्त मुनाफ़े’ को लगान के रूप में पूँजीवादी भूस्वामी के हवाले नहीं करता, तो पूँजीवादी भूस्वामी अपनी ज़मीन किराये पर पूँजीवादी फ़ार्मर को देगा ही नहीं।
खाद्यान्न व अन्य खेती उत्पादों की बढ़ती माँग और ज़मीन की सीमित मात्रा के कारण यह होता है कि पूँजीवादी फ़ार्मर ज़मीन किराये पर ले, औसत मुनाफ़ा अपने पास रखे और ‘अतिरिक्त मुनाफ़ा’ लगान के रूप में पूँजीवादी ज़मीन्दार के हवाले करे। यानी कि पूँजीवादी भूस्वामी मनमाना लगान नहीं ले सकता है और यह लगान बाज़ार के लिए उत्पादन, औसत मुनाफ़े की दर, खेती में उत्पादकता आदि कारकों से तय होती है। जहाँ पर पूँजीवादी फ़ार्मर ही स्वयं ज़मीन का मालिक होता है, वहाँ यह ‘अतिरिक्त मुनाफ़ा’ लगान के रूप में किसी पूँजीवादी ज़मीन्दार के पास नहीं जाता है, बल्कि उसकी जेब में जाता है। बहरहाल, यह होता है पूँजीवादी लगान, जो कि सामन्ती लगान से भिन्न होता है। जब एक बार खेती में पूँजीवादी लगान की शुरुआत हो जाती है, तो खेती में उत्पादन सम्बन्धों का चरित्र मूलत: और मुख्यत: पूँजीवादी बन जाता है और हमारे देश में कई दशकों पहले ऐसा हो चुका है।
पूँजीवाद का विकास हो जाने के बाद, खेती में भी बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलती है, खेतिहर मज़दूरों का शोषण करती है, उनके द्वारा पैदा बेशी मूल्य को मुनाफ़े के लिए हड़पती है।
पूँजीवादी फ़ार्मर (धनी किसान) कौन होता है? पूँजीवादी फ़ार्मर वह होता है जो कि पूँजी का निवेश करके खेती के उपकरणों, मशीनों, कच्चे माल आदि को खरीदता है, मज़दूरों की श्रमशक्ति को खरीदता है और बाज़ार के लिए उत्पादन करवाता है। मज़दूरों द्वारा पैदा बेशी मूल्य को वह मुनाफ़े के रूप में अपनी जेब के हवाले करता है, उसके एक हिस्से का उपभोग करता है और मुनाफ़े और बाज़ार की स्थितियाँ अच्छी होने पर उसे खेती में ही वापस लगाता है, या अन्य किसी क्षेत्र में निवेश कर देता है। अगर उसने ज़मीन किसी पूँजीवादी ज़मीन्दार से किराये पर ली है, तो वह खेती में औसत मुनाफ़े के ऊपर मिलने वाले बेशी मुनाफ़े को पूँजीवादी ज़मीन्दार को लगान के रूप में देता है और अगर ज़मीन उसकी अपनी होती है, तो यह बेशी मुनाफ़ा भी उसकी जेब में जाता है। जिन्हें हम भारत में धनी किसान और उच्च मध्यम किसान कहते हैं, वह यही पूँजीवादी कुलक-फ़ार्मर है। ये आम तौर पर वे किसान हैं, जिनके पास 4 हेक्टेयर (लगभग 10 एकड़) या उससे अधिक ज़मीन है। हालाँकि देश के अलग-अलग राज्यों की स्थितियों में कुछ अन्तर भी है, लेकिन देश के पैमाने में फिलहाल इस औसत से काम चलाया जा सकता है।
इसके बाद, ऐसे किसानों का वर्ग आता है जिनके पास इतनी पूँजी (और अक्सर इतनी ज़मीन भी) नहीं होती कि वे उजरती मज़दूरों को काम पर रखें, बड़े पैमाने पर मशीनें, उपकरण, उन्नत बीज, खाद, व खेती में लगने वाली दूसतरी चीज़ें ख़रीदें। यह बिरले ही दो-चार मज़दूरों को काम पर रखते हैं और आम तौर पर अपने और अपने पारिवारिक श्रम से खेती करते हैं। इनके पास, अपनी ज़रूरतों के बाद बहुत ज़्यादा उपज नहीं बचती और वह थोड़ी ही उपज सरकारी मण्डियों में बेच पाते हैं। अक्सर वे स्थानीय धनी किसान, आढ़तियों, बिचौलियों को ही ये उपज कम दामों में बेच देते हैं क्योंकि उनके पास इस उपज को रखने की सुविधा भी नहीं होती और उधार आदि चुकाने के लिए तुरन्त पैसों की ज़रूरत होती है। चूँकि ये किसान ज़्यादातर मामलों में धनी किसानों, कुलकों, सूदखोरों, आढ़तियों आदि (जो कि अक्सर एक ही व्यक्ति होता है!) के कर्ज़ तले दबे होते हैं और दर्जनों प्रकार के आर्थिक बन्धनों के ज़रिये उन पर निर्भर होते हैं, इसलिए भी कम दाम पर अपनी अतिरिक्त उपज इन धनी किसानों-कुलकों के हवाले करना इनकी मजबूरी होती है। किसानों के इस हिस्से को हम निम्न-मँझोला किसान वर्ग कहते हैं। ये किसान अक्सर धनी किसानों-कुलकों के लिए ठेका खेती भी करते हैं। इस व्यवस्था में एमएसपी से नीचे तय किये गये दाम पर ये धनी किसानों-कुलकों के लिए धान या गेहूँ उगाते हैं और उन्हें बेचते हैं। कई बार ये ज़मीन भी इन्हीं धनी किसानों-कुलकों से किराये पर लेते हैं। ज़्यादातर मामलों में खेती के लिए चालू पूँजी भी सूद पर इन निम्न मँझोले किसानों को कुलकों-धनी किसानों से ही मिलती है और फिर अन्त में अपनी उपज को एमएसपी (और बाज़ार दर) से कम दाम पर ये इन्हीं धनी किसानों-कुलकों को बेचते हैं। धनी किसान-कुलक केवल कॉरपोरेट कम्पनियों के ठेका खेती में घुसने के खिलाफ हैं, न कि आम तौर पर ठेका खेती के। क्योंकि वे ख़ुद ग़रीब किसानों से ठेका खेती करवाते हैं।
यानी कि ये धनी किसान-कुलक, निम्न-मँझोले किसान को पूँजीवादी ज़मीन्दार के रूप में लगान लेकर, सूदख़ोर के रूप में ब्याज लेकर, पूँजीवादी फ़ार्मर के रूप में मुनाफ़ा लेकर और साथ ही आढ़ती-बिचौलिये के रूप में कमीशन लेकर लूटते हैं। इन निम्न-मँझोले मालिक किसानों व काश्तकारों, दोनों के पास इतना भी नहीं बचता कि वे अपने घर का नियमित ख़र्च चला सकें। नतीजतन, इन्हीं के घरों से लोग प्रवासी मज़दूर बनकर दूसरे गाँवों में या शहरों में जाते हैं, ताकि घर की अर्थव्यवस्था चल सके।
इन निम्न मँझोले किसानों को पंजाब और हरियाणा में सरकारी मण्डियों तक काफ़ी हद तक पहुँच हासिल है, क्योंकि वहाँ सरकारी मण्डियों का नेटवर्क बाकी देश से कहीं बेहतर है। लेकिन चूँकि उनके पास बेचने योग्य उपज की मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती है और चूँकि साल भर में वे जितना अनाज एमएसपी पर बेचते हैं, उससे ज़्यादा ख़रीदते हैं, इसलिए उन्हें एमएसपी बढ़ने का कोई फ़ायदा नहीं बल्कि नुकसान होता है। मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना व केरल में भी कुछ निम्न मँझोले किसानों की एमएसपी तक पहुँच है, लेकिन पंजाब व हरियाणा के मुकाबले कम। और बाकी राज्यों में तो एमएसपी और सरकारी मण्डियों तक उनकी पहुँच नगण्य है। लेकिन जिन मामलों में एमएसपी व सरकारी मण्डियों तक उनकी पहुँच है भी, वहाँ भी एमएसपी का उन्हें नुकसान ज़्यादा होता है, क्योंकि वे मुख्य रूप से खेती उत्पाद के ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं।
इसके बाद उन किसानों का वर्ग आता है जिन्हें हम सीमान्त व छोटा किसान, या सीधे ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा कह सकते हैं। यह वह किसान है जो कभी उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है, बल्कि अपने और अपने पारिवारिक श्रम से ही खेती करता है और उससे उसकी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती हैं। ऐसे किसान देश की कुल किसान आबादी का 92 प्रतिशत हैं। उनके पास 2 हेक्टेयर (लगभग 5 एकड़) से भी कम ज़मीन है और अपनी खेती ही नहीं बल्कि रोज़ाना की घरेलू ज़रूरतों के लिए भी ये कर्ज़ लेने को मजबूर होते हैं। ये चाहें तो भी कभी एमएसपी का फ़ायदा नहीं उठा सकते हैं। देशभर के आँकड़ों के मुताबिक इनकी पारिवारिक आय का केवल 15 प्रतिशत खेती से आता है। अब आप स्वयं ही समझ लें कि ये कितना उत्पाद कहीं भी बेच पाते हैं, सरकारी मण्डी तो दूर की बात है। इनकी गृहस्थी मूलत: मज़दूरी से चलती है क्योंकि इनकी पारिवारिक आय का 85 फीसदी मज़दूरी से ही आता है। इन ग़रीब और सीमान्त किसानों का शोषण पूँजीवादी फ़ार्मर और भूस्वामी ही करते हैं और गाँव में रहने वाला कोई भी व्यक्ति इस सच्चाई को जानता है, चाहे कोई इससे कितना भी मुँह क्यों न मोड़े।
सबसे निचले संस्तर पर है खेतिहर मज़दूर वर्ग। गाँवों में अब खेतिहर मज़दूरों की संख्या कुल किसान आबादी (जिसमें सीमान्त, छोटे व निम्न मँझोले किसान भी शामिल हैं) से ज़्यादा है। 2011 में ही भारत की खेती में लगी आबादी में से 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे, जबकि किसानों की संख्या 11.8 करोड़ रह गयी थी। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़ूदर बनने की की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। इस खेतिहर मज़दूर आबादी का करीब आधा हिस्सा दलित आबादी से आता है। इनके शोषण को अतिशोषण में तब्दील करने में इनकी जातिगत स्थिति का भी एक योगदान है। पंजाब और हरियाणा वे प्रदेश हैं, जहाँ दलित आबादी कुल आबादी का 25 प्रतिशत से भी ज़्यादा है। यदि प्रवासी मज़दूरों को छोड़ दें, तो पंजाब और हरियाणा के गांवों में खेतिहर मज़दूरी करने का काम मुख्यतया यही आबादी करती है।
पंजाब और हरियाणा में जब लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों का आना रुक गया था, तो मज़दूरी बढ़ने लगी थी क्योंकि श्रम की माँग बढ़ रही थी। ऐसे में, पंजाब और हरियाणा के धनी किसानों-कुलकों ने अपनी पंचायतें और खापें बुलाकर खेतिहर मज़दूरी पर एक सीलिंग फिक्स की थी। किसी भी मज़दूर को उससे ज़्यादा मज़दूरी नहीं दी जा सकती थी। यदि कोई माँगता तो उसका सामाजिक बहिष्कार होता। इन मज़दूरों को अपने गाँव से बाहर जाकर मज़दूरी करने की भी इजाज़त नहीं थी। जहाँ तक बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड आदि से पंजाब और हरियाणा में जाने वाले प्रवासी मज़दूरों की बात है, उनके शोषण और उत्पीड़न में भी धनी किसानों-कुलकों का वर्ग कोई कसर नहीं छोड़ता है।
ये हैं खेती में लगे वर्गों का एक विवरण: पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर (मालिक व किरायेदार), निम्न मँझोला किसान, सीमान्त व छोटे किसान, और खेतिहर मज़दूर। इसके बाद आढ़तियों व व्यापारियों का वर्ग भी है, जिनकी भूमिका कम-से-कम पंजाब में ज़्यादातर स्वयं पूँजीवादी भूस्वामी व पूँजीवादी फ़ार्मर ही निभाते हैं।
क्या इन वर्गों के एक हित हो सकते हैं?
जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज निम्न मँझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है? वे हैं गाँव के पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, सूदखोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। इस शोषक वर्ग की माँगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गाँव के ग़रीबों की माँगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।
इसलिए जब आपसे कोई “किसान के हित” की बात करे, तो सबसे पहले पूछिये: कौन-सा किसान? उजरती श्रम का शोषण करके, लगान वसूलकर, सूद लूटकर ग़रीब और निम्न मँझोले किसानों को निचोड़ने वाला धनी किसान व कुलक? या फिर 92 प्रतिशत वे किसान जिनकी आय का 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा अब मज़दूरी से आता है, न कि खेती से? इन दोनों की माँगें एक कैसे हो सकती हैं? इसलिए हम मज़दूरों और ग़रीब किसानों को सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि किसान कोई एक वर्ग नहीं हैं। ये स्वयं कई वर्गों में बंटा हुआ समुदाय है जिनके अलग-अलग हित और अलग-अलग माँगें हैं। एक शोषक है, तो दूसरा शोषित है।
देश के कुल किसानों में से केवल 6 प्रतिशत को लाभकारी मूल्य का लाभ मिलता है। बेशक यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। पंजाब और हरियाणा में और एक हद तक (अगर गेहूँ की बात की जाय) तो मध्यप्रदेश में यह प्रतिशत ज़्यादा है। लेकिन पंजाब में भी एक-तिहाई किसानों के पास 2 हेक्टेयर तक ही ज़मीन है। वहाँ भी ग़रीब व सीमान्त किसानों के वर्ग को लाभकारी मूल्य का फ़ायदा इसलिए नहीं मिलता क्योंकि वे प्रमुख रूप से अनाज के ख़रीदार हैं, विक्रेता नहीं। पंजाब के खेतिहर मज़दूरों को इसका कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि नुक्सान होता है। प्रवासी मज़दूरों को भी इसका नुकसान ही होता है क्योंकि उनके लिए अनाज और खेती पर आधारित दूसरी चीज़ें महँगी हो जाती हैं।
इसका लाभ मुख्य तौर पर सबसे बड़े व उच्च मध्यम किसानों को होता है, जो पंजाब में कुल किसान आबादी का करीब एक-तिहाई हैं। पंजाब में कुलक, धनी किसान व उच्च मध्यम किसानों का घनत्व कुल किसान आबादी में देश के मुकाबले ज़्यादा है। इसकी वजह यह है कि ‘हरित क्रान्ति’ के दौरान पूँजीवादी धनी किसानों के एक पूरे वर्ग को राजकीय संरक्षण और समर्थन के साथ खड़ा करने का काम यहीं किया गया था। दूसरे नम्बर पर इस मामले में हरियाणा आता है। एमएसपी पर होने वाली कुल ख़रीद का करीब 70 फीसदी इन्हीं दो राज्यों से आता है। यानी लाभकारी मूल्य के रूप में कृत्रिम रूप से ऊँची मुनाफ़ा दर यहीं के धनी किसानों-कुलकों के वर्ग को दी जा रही है और सरकारी ख़रीद भी सबसे ज्यादा इन्हीं दो राज्यों से हो रही है।
लाभकारी मूल्य या एमएसपी क्या होता है? सरकार का एक आयोग है जिसे कृषि लागत व मूल्य आयोग कहा जाता है। यह आयोग नियमित अन्तराल पर कृषि की व्यापक लागत तय करता है जिसमें खेती में लगने वाले यंत्र, उपकरण, खाद, बीज, लेबर के खर्च को जोड़ा जाता है, फिर किसान के परिवार के सदस्यों के श्रम (धनी किसान के लिए यह बोनस है क्योंकि उसके परिवार के लोग खेत पर काम नहीं करते हैं) के दाम को जोड़ा जाता है, ब्याज को जोड़ा जाता है और लगान को भी जोड़ा जाता है (हालाँकि भारत में अधिकांश मामलों में ज़मीन के मालिक स्वयं पूँजीवादी धनी किसान ही हैं)। इसे सम्पूर्ण या व्यापक लागत कहा जाता है और सरकार इसके ऊपर 30 से 50 फीसदी ऊँचे सरकारी दाम, यानी एमएसपी तय करती रही है। यानी, लागत के ऊपर 30 से 50 प्रतिशत तक का मुनाफ़ा।
इस ऊँचे सरकारी दाम के कारण कम-से-कम धान, गेहूँ, कपास, मक्का और कुछ दलहनों की बाज़ार कीमतें भी ऊँची हो जाती हैं। ये वे चीज़ें हैं जिन्हें व्यापक आबादी नियमित रूप से खान-पान के लिए इस्तेमाल करती है। नतीजतन, भोजन पर व्यापक आबादी का ख़र्च बढ़ता है, उनके पोषण का स्तर गिरता है, अन्य आवश्यक वस्तुओं पर ख़र्च कम होता है और कुल मिलाकर उनका जीवन-स्तर नीचे चला जाता है।
इसके साथ ही, एमएसपी बढ़ने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी लाभ नहीं बल्कि नुकसान होता है। भारत में खाद्यान्न का भारी रिज़र्व भण्डार होने के बावजूद अच्छी-ख़ासी आबादी के भूखा रहने का यह भी कारण है कि एमएसपी पर सरकारी ख़रीद के बाद सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये ज़रूरतमन्दों तक इसे पहुँचाने के बजाय उसे पूँजीपतियों को बेचना पसन्द करती है। इसके अलावा, एमएसपी के कारण बाज़ार कीमतें भी बढ़ जाती हैं और जमाखोरी इसमें और इज़ाफ़ा कर देती है।
इसलिए, लाभकारी मूल्य या एमएसपी सीधे-सीधे आम शहरी व ग्रामीण मज़दूरों, शहरी निम्न मध्यवर्ग और साथ ही सीमान्त, छोटे व निम्न मँझोले किसानों के हितों के विरुद्ध है। लाभकारी मूल्य की माँग मूलत: और मुख्यत: धनी किसानों-कुलकों और उच्च मध्यम किसानों की ही माँग है। यह तथ्य है। लेकिन तमाम कम्युनिस्ट इस सच्चाई से मुँह मोड़े खड़े हैं, क्योंकि उन्हें धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन में जगह पानी है और उसके नेतृत्व की पूँछ पकड़कर घिसटना है। इसके लिए व्यापक मेहनतकश आबादी के हितों को तिलांजलि देने से भी उन्हें गुरेज़ नहीं है।

धनी फ़ार्मरों व कुलकों से अलग सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों की क्या माँगें हैं?

धनी किसानों की माँगें और ग़रीब किसानों की माँगें एक नहीं हैं।
फिर सवाल यह है कि सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों, यानी ग़रीब किसानों व अर्द्धसर्वहारा की अलग माँगें क्या हैं?
सबसे पहले हम विशिष्ट माँगों की बातें करेंगे।
विशिष्ट माँगों में सबसे प्रमुख यह है कि खेती को दी जाने वाली सब्सिडी का बड़ा हिस्सा खेती में बुनियादी ढाँचा बनाने पर खर्च किया जाय, जिसका सभी ग़रीब किसान इस्तेमाल करते हैं, न कि लाभकारी मूल्य के लिए, जिसका लाभ केवल 6 प्रतिशत धनी फ़ार्मरों को मिलता है। मिसाल के तौर पर, सभी ग़रीब किसान सिंचाई के लिए मॉनसून व नहरों के नेटवर्क पर निर्भर करते हैं। जिनके पास ये सुविधाएँ नहीं होतीं, वे धनी किसानों से पंपसेटों आदि के ज़रिए सिंचाई की सुविधा किराये पर लेते हैं और इसमें भी लूटे जाते हैं।
1980 के दशक की शुरुआत से पहले कृषि सब्सिडी का बड़ा हिस्सा एमएसपी पर नहीं बल्कि नहरों आदि के निर्माण पर ख़र्च किया जाता था। 1980 के दशक में कुलक-धनी किसानों के राजनीतिक नेतृत्व के दबाव में भारतीय राज्य ने लाभकारी मूल्य पर ख़रीद पर ख़र्च को लगातार बढ़ाया, जबकि खेती के बुनियादी ढाँचे पर ख़र्च कम होता गया। वह पहले भी अपर्याप्त था, लेकिन बाद में यह बहुत ही कम होता गया। इसका सबसे बुरा असर ग़रीब किसानों पर पड़ा।
पूँजीवादी फ्रेमवर्क में ग़रीब किसानों की एक दूसरी महत्वपूर्ण विशिष्ट माँग यह बनती है कि ग़रीब से ग़रीब किसान की संस्थागत ऋण तक पहुँच हो, यह राज्य की जिम्मेदारी है। ग़रीब किसानों को बैंकों आदि से ऋण न मिलने के कारण, वे खेती में आवश्यक चालू पूँजी के लिए भी धनी किसानों-कुलकों पर निर्भर रहते हैं। ये ऋण बेहद अन्यायपूर्ण ब्याज दरों पर दिये जाते हैं। ग़रीब किसानों की भारी आबादी के ज़मीन से उजड़ने और आत्महत्याओं के लिए भी ये अन्यायपूर्ण ऋण जिम्मेदार हैं। आज संस्थागत ऋण 30 प्रतिशत से भी कम किसानों को मिलता है और उसमें भी ज़्यादा लाभ सबसे ऊपर के 10 प्रतिशत किसानों को मिलता है। जब कोई कर्ज़-माफ़ी भी होती है, तो उसका बड़ा लाभ भी इन्हीं धनी किसानों को मिलता है। लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि सूदख़ोरी करने वाले गाँव के किसी धनी किसान, कुलक या आढ़तिये ने ग़रीब किसानों व अर्द्धसर्वहारा के लिए कर्ज़-माफ़ी की हो?
एक अन्य महत्वपूर्ण माँग यह है कि सरकार धनी किसानों व आम तौर पर सभी धनी वर्गों पर प्रगतिशील कर लगाये और उसके आधार पर समूची किसान आबादी को उचित दरों पर सरकारी माध्यम से बीज, खाद आदि उपलब्ध कराये, वैज्ञानिक खेती के लिए सरकारी प्रशिक्षण सुनिश्चित करे। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में ये माँगें ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों की महत्वपूर्ण माँगें हैं और उन्हें तात्कालिक तौर पर सहायता पहुँचाती हैं। हमने यहाँ प्रगतिशील कर प्रणाली की माँग इसलिए जोड़ी है क्योंकि उसके बिना यदि खेती की लागतों का मूल्य कम करने की माँग उठायी जाती है, तो वह व्यापक सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ जाती है। सरकार खेती की लागतों के उत्पादन में लगी मज़दूर आबादी की वास्तविक औसत मज़दूरी को कम किये बिना उपरोक्त कार्य तभी कर सकती है, जब वह धनी किसानों-कुलकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग पर प्रगतिशील कर लगाये।
इन विशिष्ट माँगों के अलावा छोटे, सीमान्त व निम्न मँझोले किसानों की एक आम माँग है जो कि खेतिहर व शहरी मज़दूरों के साथ साझा है: रोज़गार गारण्टी की माँग। 2012-13 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में ही आधे किसानों ने कहा था कि छोटी जोत की खेती का कोई भविष्य नहीं है और वह पहला मौका मिलते खेती छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन पक्की और सरकारी नौकरी के बिना वह खेती छोड़ भी नहीं पा रहे हैं।
यह सच है कि भारत में उत्पादकता के स्तर के अनुसार अच्छी-ख़ासी खेतिहर आबादी की खेती में कोई आवश्यकता नहीं रह गयी है, लेकिन वह प्रच्छन्न बेरोज़गारी, अर्द्धभुखमरी और ऋण के हालात में उसी में जीती रहती है क्योंकि उसके पास और कोई विकल्प नहीं है। नतीजतन, एक भारी ग़रीब किसान आबादी के लिए रोज़गार गारण्टी एक महत्वपूर्ण अधिकार है और उसकी माँग बनती है कि राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी कानून पारित कराया जाय और ‘काम के हक़’ को कानूनी तौर पर बाध्यताकारी बनाने के लिए लड़ा जाये।
एक अन्य महत्वपूर्ण आम माँग जो कि ग़रीब किसानों की माँग भी है और समस्त मज़दूर वर्ग की माँग भी है, वह है सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली की माँग। भारत में सीमान्त व ग़रीब किसान परिवारों की औसत मासिक आय अक्सर मज़दूरों की औसत आय से भी कम है। कहने को वे एक छोटी सी जोत के मालिक हैं, लेकिन यह छोटी जोत की खेती उन्हें कुछ देती नहीं है, बस पीती जाती है। उनके घरों से कुछ प्रवासी मज़दूर बाहर काम करके कमाकर कुछ घर भेजते भी हैं, तो वह खेती और कर्ज़ में चला जाता है। ऐसे में, ये परिवार भयंकर खाद्य असुरक्षा में भी जीते हैं। सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली उनकी एक अहम आम माँग बनती है।
इन सभी माँगों का ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों के बीच प्रचार किया जाना चाहिए और उन्हें इन पर धनी फ़ार्मरों व कुलकों से स्वंतत्र तौर पर संगठित किया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यदि ये माँगें पूरी हो जायें तो भी वे ज़्यादा से ज़्यादा कुछ तात्कालिक राहत ही दे सकती हैं और जिस हद तक वे ऐसा कर सकती हैं, उसके संघर्ष में हम कम्युनिस्ट बिना शर्त आपके साथ हैं, आपको संगठित करने और आपकी अगुवाई के लिए तैयार हैं।
लेकिन सच्चाई यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था के रहते ग़रीब व निम्न मँझोले किसान अनन्त काल तक अपनी छोटी जोत की खेती को बचाये रखने की उम्मीद नहीं रख सकते हैं। सामूहिक व सहकारी खेती और समाजवादी राजकीय खेती की व्यवस्था के तहत ही वे एक वर्ग के तौर पर अपनी ज़मीन को पूँजीपतियों के हाथों में जाने से बचा सकते हैं, जैसा कि लेनिन ने अपनी शानदार पुस्तिका ’गाँव के ग़रीबों से’ में लिखा है। इसलिए इन तात्कालिक माँगों के लिए धनी किसानों व कुलकों तथा कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग दोनों से ही संघर्ष करते हुए हमें अपने दूरगामी लक्ष्य, यानी समाजवाद के लक्ष्य को कभी नहीं भूलना चाहिए। केवल एक समाजवादी व्यवस्था में ही ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों व खेतिहर मज़दूरों को बेहतर जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा और निश्चितता मिल सकती है। यदि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट उपरोक्त अल्पकालिक राहत देने वाली माँगों पर ग़रीब किसानों व निम्न मध्यम किसानों को संगठित करते हुए उन्हें यह सच्चाई नहीं बताते और समाजवाद के लिए दूरगामी संघर्ष के लिए संगठित नहीं करते, तो वे उनके साथ धोखा करेंगे।
बहरहाल, ये वे माँगें हैं जो कि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में तात्कालिक तौर पर व्यापक सीमान्त, छोटी और निम्न-मँझोली किसान आबादी की विशिष्ट और आम माँगें हैं। क्या मौजूदा धनी किसान आन्दोलन इन माँगों को उठायेगा? नहीं! क्योंकि उसके हित और माँगें बिल्कुल अलग हैं। यहाँ भी हम देख सकते हैं कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का चार्टर और उसकी माँगों का वर्ग चरित्र क्या है। यह स्पष्ट रूप से धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन है। हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में पहले ही विस्तार से लिख चुके हैं कि ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों की एक अच्छी-ख़ासी संख्या भी किस प्रकार राजनीतिक चेतना की कमी, विविध प्रकार के आर्थिक बन्धनों में धनी फ़ार्मरों-कुलकों से बँधे होने के कारण, और कोई स्वतंत्र मज़बूत राजनीतिक संगठन न होने के कारण किस प्रकार धनी फ़ार्मरों के इस आन्दोलन में भागीदारी कर रही है। लेकिन इससे इस धनी फ़ार्मर आन्दोलन का वर्ग चरित्र तय नहीं होता है। किसी भी आन्दोलन का वर्ग चरित्र उसकी विचारधारा, राजनीति और वर्ग चरित्र से तय होता है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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