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करावल नगर मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मज़दूरों की शानदार जीत
असंगठित क्षेत्र के बादाम मज़दूरों ने 60 से ज्यादा फ़ैक्ट्रियों में 6 दिन की हड़ताल से मालिकों को झुकाया
दिल्ली के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र करावलनगर में स्थित बादाम सफाई (प्रसंस्करण) के 60 से ज्यादा गोदाम (फैक्ट्री) हैं, जिनमें लगभग 5000 मज़दूर परिवार समेत काम करते हैं। बादाम प्रसंस्करण का इलाका करावलनगर के प्रकाश विहार, न्यू सभापुर गुजरान, भगत सिंह कॉलोनी, अंकुर एंकलेव, सादतपुर आदि में यानि 5-6 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। कैलीफोर्निया, आस्ट्रेलिया, कनाड़ा में पैदा होने वाला बादाम सफाई के लिए मुम्बई पोर्ट से होता हुआ दिल्ली की खारी बावली मार्केट से करावलनगर में आता है। नब्बे के दशक से जब से उदारवाद की नीतियाँ लागू की गयीं, उसी समय से यह उद्योग धीरे-धीरे बसने लगा। आज यह बादाम प्रसंस्करण का सबसे बड़ा क्षेत्र बन गया है, जिसका टर्नओवर अरबों में होता है। असंगठित क्षेत्र के इस बड़े उद्योग में ज्यादातर महिलाएँ हैं और मज़दूरों की बड़ी आबादी बिहार से है।
(बादाम उद्योग की कई रिपोर्टें ‘बिगुल’ के पुराने अंकों में देख सकते हैं)
हड़ताल की ज़मीन का तैयार होनाः-
ज्ञात हो दिसम्बर 2008 में बादाम मज़दूरों की 16 दिन की हड़ताल चली थी जिसमें मज़दूरों की आंशिक जीत हुई थी। उसके बाद बादाम उद्योग में मशीनीकरण हुआ और बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी हुई, मज़दूरों की एकता कमज़ोर हुई, और बड़े पैमाने पर पैदा हुई बेरोजगारी का फायदा मालिकों ने उठाया। मज़दूरों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुल्म भी बढ़ गया । मज़दूरों की अतिरिक्त आबादी धीरे-धीरे दूसरे उद्योग में काम करने लगी और मज़दूरों की एक निश्चित संख्या बादाम उद्योग में काम करने लगी। पिछले तीन-चार साल में महंगाई लगभग दोगुनी हो चुकी है और मज़दूरों से तीन साल पुराने रेट पर ही काम कराया जा रहा था।
19 जून से हुई हड़ताल की सुगबुगाहट इलाके में पिछले दिनों हुई रैली के बाद शुरू हो गई थी। 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर इलाके के विभिन्न पेशों के मज़दूरों ने अपना ज्ञापन बनाकर श्रम विभाग को सौंपा था। उसके बाद मज़दूर अधिकार रैली निकाली, इसमें बादाम मज़दूर, भवन निर्माण मज़दूर, फैक्ट्री मज़दूर, स्त्री मज़दूर शामिल थे। मज़दूरों ने अपनी न्यायपूर्ण माँगों को लेकर इलाके के विधायक मोहन सिंह बिष्ट के घर का घेराव किया था और माँगपत्रक के साथ ज्ञापन सौंपा था। इस सबके दौरान इलाके के अन्य मज़दूरों में भी लड़ने का हौसला पैदा हुआ।
दूसरी तरफ 2008 की हड़ताल के बाद से ही यूनियन द्वारा मज़दूर पाठशालाओं का चलाना और उनके बीच राजनीतिक प्रचार लगातार चलाते रहना, सुधार के कामों जैसे बच्चों को पढ़ाना, बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाना, बीमार पड़ने पर दवा इलाज में मदद करना या मालिकों द्वारा पैसा रोके जाने की स्थिति में मज़दूरों को उनके पैसे दिलवाना आदि काम जारी थे। किसी किस्म के दमन के ख़िलाफ यूनियन का संघर्ष जारी रहा।
2008 की हड़ताल के बाद ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ ने इलाके के दूसरे पेशों के मज़दूरों को संगठित करने और व्यापक पैमाने पर अपनी इलाकाई एकता कायम करने की ज़रूरत को समझा और इस दिशा में काम करते हुए 23 मार्च 2010 को ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ का नाम बदल कर ‘करावल नगर मज़दूर यूनियन’ रखा गया ताकि इलाके के अलग-अलग पेशे के मज़दूरों की व्यापक इलाकाई एकता बनायी जाय। इलाके में मौजूद पेपर प्लेट की 7 फैक्ट्रियों में 2011 की हड़ताल में पेपर प्लेट मज़दूरों का साथ इलाके के अन्य पेशे के मज़दूरों ने भी दिया, जो कि हड़ताल की सफलता का एक कारण था। इन सबके कारण के-एम-यू- ने इलाके के मज़दूरों के एक हिस्से में अपनी पकड़ को मजबूत बनाया।
हड़ताल की शुरूआत के तात्कालिक कारकः-
बढ़ी हुई महंगाई ने मज़दूरों का जीना दूभर कर दिया था और कभी-कभी काम करने के बाद समय से पैसे नहीं मिलने से मज़दूरों के अन्दर गुस्सा भी बहुत था। इसी दौरान भगतसिंह कॉलोनी की कुछ बादाम फैक्ट्रियों में पैसे का विवाद हुआ। 28-29 मई को मज़दूरों ने एक फैक्ट्री में काम करना बन्द कर दिया। उसके बाद एक-दो और फैक्ट्रियों में मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया और बादाम तोड़ने का रेट 2 रुपये करने की माँग रखी। इस दौरान कुछ फैक्ट्रियों में अभी काम पूर्ण रूप से बन्द नहीं हुआ था। कुछ मालिकों का काम थोड़ा प्रभावित हुआ था। जून में यूनियन ने मज़दूरों की एक बैठक बुलायी थी, जिसमें यह फैसला हुआ था कि जब तक व्यापक मज़दूर आबादी लड़ने के लिए तैयार नहीं होती तब तक हड़ताल सफल नहीं हो सकती। इसलिए अभी दूसरी फैक्ट्रियों के मज़दूरों को भी साथ लिया जाय और मज़दूरों का माँगपत्रक बनाकर उसपर सबको सहमत किया जाय। यूनियन में एक राय यह भी आयी थी कि दिसम्बर के माह में हड़ताल की जाय, जब काम सबसे तेज होता है और उसके लिए अभी से तैयारी की जाय। कुछ फैक्ट्रियों में आंशिक रूप से काम बन्द रहा लेकिन इसका प्रभाव धीरे-धीरे दूसरी फैक्ट्रियों के मज़दूरों पर भी पड़ने लगा। 15 जून को मज़दूरों की एक बड़ी संख्या यूनियन कार्यालय आयी और बताया कि बादाम मज़दूरों की बड़ी संख्या अब हड़ताल के पक्ष में है। इसके बाद यूनियन ने हड़ताल के माँगपत्रक को तैयार किया जिसमें बादाम सफाई का रेट 1 रुपये से 3 रुपये किया जाय, वेतन का भुगतान माह के पहले सप्ताह में हो, मशीन से तोड़ने का रेट 8 रुपये प्रति बोरी हो, सभी फैक्ट्रियों में साफ पीने के पानी और शौचालय की व्यवस्था हो और सभी मज़दूरों को पहचान कार्ड व वेतन के साथ वेतन पर्ची मिले आदि प्रमुख माँगें थीं। इन मांगों का मांगपत्रक बनाकर सभी बादाम मालिकों तक पहुंचा दिया गया। करावल नगर मज़दूर यूनियन ने 19 जून की सुबह बादाम मज़दूरों की आम सभा बुलायी और उसी सभा में आम हड़ताल का ऐलान किया।
हड़ताल के दौरान का घटनाक्रमः-
19 जून की सुबह मज़दूरों की सभा में हड़ताल की औपचारिक घोषणा कर दी गई थी। इलाके में मज़दूरों की बड़ी रैली निकाली गयी जिसमें बड़ी संख्या में स्त्री मज़दूर एवं बच्चे भी थे। रैली में बादाम मज़दूरों के अलावा भवन निर्माण मज़दूर व अन्य पेशों से जुड़े मज़दूर भी शामिल हुए और इलाके के मुख्यतः बादाम उद्योग क्षेत्र में प्रचार कर सभी मज़दूरों को फैक्ट्री न जाने व हड़ताल स्थल पर इक्ट्टठा होने का आह्वान किया गया। रैली के बाद 20-25 की संख्याओं वाले महिला एवं पुरूष मज़दूरों के दस्ते बनाये गये जो इलाके के मज़दूरों को एकजुट करने तथा जिस भी फैक्टरी में चोरी-छिपे काम करवाया जा रहा था उसे बन्द करवाने के लिए गये। 2008 की हड़ताल 16 दिन चली थी जिसके अन्त में मज़दूर टूटने लगे थे और एक आंशिक जीत पर समझौता करना पड़ा था। उससे सीख लेते हुए यूनियन ने इस ओर ध्यान दिलाया कि इस बार की हड़ताल महीनों चल सकती है और जिनके घर में खाने की समस्या आयेगी उनके लिए सामूहिक रसोई चलायी जायेगी लेकिन हड़ताल तब तक जारी रहेगी जब तक एक सम्मानपूर्ण समझौता नहीं हो जाय। सभा में उपस्थित सभी मज़दूरों ने लम्बी लड़ाई का हाथ उठाकर गर्मजोशी से समर्थन किया। लम्बी हड़ताल की योजना ने मालिकों को मनोवैज्ञानिक रूप से भयभीत कर दिया था क्योंकि बाजार में बादाम की माँग जोरों पर थी। दूसरा, बादाम को ज्यादा दिन तक फैक्ट्री में रख नहीं सकते, क्योंकि बादाम के खराब होने की सम्भावनाएँ थी। तीसरी बात, जो छोटे मालिक थे जिन्होंने फैक्ट्री किराये पर ले रखी हैं और इनकी पकड़ बाजार में बहुत कमजोर है ये ज्यादा परेशान थे।
20 जून से स्त्री मज़दूरों की अगुवाई में मज़दूरों के दस्तों ने उन फैक्ट्रियों का घेराव करना शुरू किया जहाँ पर थोड़ा बहुत काम चल रहा था, इस दौरान मालिकों और माहिलाओं में छिटपुट झड़पें भी हुई लेकिन मज़दूरों की बड़ी संख्या के सामने मालिकों और उनके चमचों की एक न चली। इलाके में हो रही हड़ताल की खबर सुनकर पुलिस सकते में आयी और यूनियन के लोगों को डराने धमकाने और मालिकों की सेवा के लिए अपनी मौजूदगी इलाके में दिखाने लगी। दूसरी तरफ पुलिस के आला अधिकारी इस पूरे मसले का शान्तिपूर्ण समाधान चाह रहे थे क्योंकि यह पूरा उद्योग ही ग़ैर-कानूनी है और इस ग़ैर-कानूनी काम को इलाके में जारी रखने के लिए इनको मोटी रकम मालिकों से नियमित तौर पर मिलती भी है। हड़ताल की खबर पहले दिन से कुछ अखबारों में आनी शुरू हो गयी जिससे पुलिस-प्रशासन पर भी एक दवाब बन रहा था। वे चाहते थे कि इस मुद्दे को जल्द से जल्द निपटाया जाय नहीं तो प्रशासन की ‘‘छवि’’ खराब होगी। 20 जून की शाम को मालिकों के एक गुट ने वार्ता के लिए 21 की सुबह बुलाया। अगले दिन सुबह जब वार्ता शुरू हुई तो इलाके का एस.एच.ओ. भी वार्ता में आया था। मालिक सफाई का रेट 1.50 रुपये देने तथा अन्य कुछ माँगों पर सहमत हुए। किन्तु यूनियन की तरफ से रखा गया कि सफाई का रेट कम से कम 2 रुपये तथा अन्य सभी मांग जिसमें वेतन का भुगतान माह के पहले सप्ताह में हो, मज़दूरों को वेतन पर्ची दी जाय, प्रत्येक फैक्ट्री में पीने के साफ पानी व शौचालय की व्यवस्था हो। यूनियन द्वारा 2 रुपये की घोषणा का फैसला मज़दूरों की सहमति से लिया गया था। इसके अलावा अन्य माँगों पर भी जब तक स्पष्ट निर्णय नहीं होता तब तक हड़ताल जारी रहेगी। वार्ता विफल होने के बाद प्रशासन की तरफ से एक और प्रस्ताव आया जिसमें इलाके के एस.सी.पी. के दफ़्तर में मालिकों और मज़दूरों के प्रतिनिधियों को वार्ता के लिए 2 बजे बुलाया। वहाँ भी वार्ता में कोई हल नहीं निकला। 22 की सुबह फैसला लिया गया कि हड़़ताल चौक पर बैठने के बजाय किसी भी मालिक की फैक्ट्री के सामने बैठा जाय। इसके बाद वासुदेव मिश्रा की फैक्टरी के सामने बैठने का फैसला हुआ। ज्ञात हो 2008 की हड़ताल में वासुदेव मिश्रा ने कुछ महिलाओं पर हाथ उठाया था जिसका जवाब महिलाओं ने चप्पल से दिया था औैर इस केस में वासुदेव मिश्रा को माफीनामा लिखकर मुकदमा बन्द करवाना पड़ा था। असल में उसके डर का कारण ये भी था कि वह इलाके का कांग्रेसी छुटभैया नेता भी है। इसलिए इस बार भी वासुदेव मिश्रा मज़दूरों से किसी भी प्रकार से उलझना नहीं चाहता था और चाहता था कि कोई जमावड़ा उसकी फैक्ट्री के सामने न हो। उसी दिन हजारों मज़दूरों का जमावड़ा फैक्ट्री के गेट पर जाम लगा कर बैठ गया। जिससे वासुदेव मिश्रा व अन्य मालिकों पर दवाब बढ़ा क्योंकि इस जाम से इलाके की मुख्य सड़क ही बन्द हो गयी। दूसरा, इस घेराव से वासुदेव मिश्रा की छवि भी धूल में मिल रही थी। 21 जून की शाम को मज़दूरों ने आम सभा में 23 जून को इलाके के बीजेपी विधायक मोहन सिंह बिष्ट के घर का घेराव करने का फैसला लिया। दिल्ली में हाल ही में चुनाव होने वाले हैं और विधायक जी जो गली-गली में अपने नाम की होर्डिंग लगा रहे हैं, उनके घर के सामने इलाके के हजारों मज़दूर जमा हों और उनकी पोल पट्टी खोलकर रख दें, ऐसा वे कदापि नहीं चाहेंगे। ज्यादातर बादाम मालिक भी बीजेपी से जुड़े हुए हैं। विधायक के घर के घेराव की बात सुनते ही मालिको ने फिर से वार्ता के लिए बुलाया। 22 जून को वासुदेव मिश्रा की फैक्टरी के घेराव से दवाब और भी बढ़ गया था, इस शाम मालिकों ने तीसरी दफा वार्ता की और 1.75 रुपये पर रेट तय किया। लेकिन यूनियन ने हड़ताल को जारी रखने का फैसला किया। प्रिण्ट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया में खबर आने से मालिकों और प्रशासन की परेशानी और बढ़ गयी थी।
23 जून को सुबह हजारों मज़दूर जिसमें इलाके के अन्य पेशों के मज़दूर भी बड़ी संख्या में मज़दूर संघर्ष रैली में शामिल हुए। हजारों मज़दूर ‘हड़ताल चौक’ से रैली की शुरूआत करके करावलनगर फैक्ट्री इलाके होते हुए दयालपुर में विधायक के घर पहुँचे। विधायक को दो दिन पहले ही सूचित किया गया था लेकिन विधायक ने अपने ही क्षेत्र के मज़दूरों से मिलने से मना कर दिया। कुछ मज़दूरों में विधायक को लेकर जो भ्रम था कि विधायक मज़दूर हितैषी है वह भी दूर हो गया और उसका मज़दूर विरोधी चेहरा तब और बेनकाब हो गया जब उसने वहाँ शान्तिपूर्वक सभा करने से मना करवा दिया और पुलिस बल की तैनाती घर के सामने करवा दी। लेकिन इस घटना के बाद मालिकों पर दवाब और बढ़ गया था। शाम को मज़दूर सभा में यह निर्णय लिया गया कि जो भी मालिक सफाई का रेट 2 रुपये देने व अन्य मांगों पर समझौता करने को तैयार होगा वहाँ काम शुरू करवाया जायेगा। यूनियन ने छोटे मालिकों को संदेश भेजा कि जो भी मालिक इस पर राजी होंगें वे एकजुट हों और समय व स्थान बताएँ जहाँ वार्ता की जा सके। जब इलाके के बड़े मालिकों को यह बात पता चली तो उन्होंने गुट बनाकर कुछ छोटे मालिकों की पिटाई कर दी। अब तक मालिकों की कुत्ताघसीटी जो बंद कमरों में हो रही थी वह खुले आम सड़कों पर होने लगी। दोपहर को बड़े मालिकों के गुट ने शाम के समय वार्ता का प्रस्ताव रखा। 24 जून की रात 8 बजे यूनियन और मालिकों के बीच 6 मांगों पर समझौता हुआ। जिन मांगों पर समझौता हुआ वे इस प्रकार हैं:-
1- बादाम सफाई का रेट 2 रुपये प्रतिकिलो होगा।
2- प्रत्येक साल जून में वेतन में दस प्रतिशत की वृद्धि की जायेगी।
3- प्रत्येक बादाम की फैक्ट्री पर साफ पीने के पानी व शौचालय की व्यवस्था होगी।
4- वेतन का भुगतान प्रत्येक महीने के पहले सप्ताह तक कर दिया जायेगा।
5- मालिक-मज़दूर के बीच के विवाद का निपटारा यूनियन की उपस्थिति में किया जायेगा।
6- प्रत्येक मज़दूर को उपस्थिति कार्ड दिया जायेगा।
रात साढ़े 9 बजे इलाके में विजय जुलूस निकालकर हड़ताल करने की घोषणा की गयी।
हड़ताल के निष्कर्षः-
सकारात्मक पहलू: 2008 की हड़ताल दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की बड़ी हड़तालों में से एक थी, लेकिन 2013 की हड़ताल ज्यादा सुसंगठित और इसमें मज़दूरों की एकता ज्यादा ताकतवर थी, क्योंकि अन्य पेशों के मज़दूरों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन था। दूसरी बात पिछली हड़ताल की गलतियों से मज़दूरों ने सीख लिया था कि मज़दूरों की व्यापक एकता और सही नेतृत्व ही उन्हें जीत दिला सकता है। केएमयू की पकड़ मज़दूरों में व्यापक और गहरी हुई थी इसकी वजहें थीं, मज़दूरों के बीच सतत राजनीतिक प्रचार करना, मालिक द्वारा पैसा रोके जाने या पुलिस या दबंगों द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर मज़दूरों को संगठित करके संघर्ष करना। इसके अलावा इलाके में सुधार कार्य करना। इन सब कामों से केएमयू पर मज़दूरों का विश्वास बढ़ा था। इलाके में मौजूद दलाल ट्रेड यूनियन एक्टू का पूरी तरह से सफाया हो जाने का जिसके लोग मज़दूरों में भ्रम फैलाने और दलाली में लगे रहते थे, केएमयू को फायदा हुआ। अन्य पेशे के मज़दूरों जिनमें मुख्य रूप से भवन निर्माण मज़दूर, पेपर प्लेट मज़दूर, वॉकर फैक्ट्री मज़दूर आदि के खुलकर बादाम मज़दूरों के संघर्ष में साथ आने से मज़दूरों की इलाकाई एकता मजबूत हुई है। इलाके के अन्य पेशे के मज़दूरों का मौन समर्थन संघर्ष को मज़बूती दिये हुए था। इन सब वजहों से इलाके के चुनावी नेता, ‘‘रसूखदार’’ लोग और आरएसएस के तत्व जो पिछली हड़ताल में खुलकर मालिकों का साथ दे रहे थे इस बार मालिकों की मदद खुलकर नहीं कर पाए। मज़दूरों के बीच जातिगत भेदभाव या भाषागत भेदभाव भी कम हुए हैं। बादाम मज़दूरों की बड़ी आबादी बिहार के नालन्दा जिले से है। जो मज़दूर मुजफ़्फरपुर, समस्तीपुर जिले से हैं जिन्हें मालिक अपना रिश्तेदार या अपने गाँव का कहते हैं, ने इस बार की हड़ताल में मालिकों का साथ नहीं दिया। क्योंकि ये मज़दूर 3-4 साल में समझ गये हैं कि मालिक कहीं का हो वो एक है उसी प्रकार मज़दूरों को भी एक होकर ही कुछ हासिल हो सकता है। जातिगत तौर पर मज़दूरों का बड़ा हिस्सा पिछड़ी जाति से है और एक हिस्सा दलित जाति से और छोटा सा हिस्सा स्वर्ण जाति से भी है। जातिगत भेदभाव न तो पिछली हड़ताल के दौरान था और न ही इस हड़ताल के दौरान। लेकिन धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाज में जातिगत भेदभाव देखने को मिलता है पर अब यह भी तेजी से धूमिल हो रहा है। यूनियन का विस्तार इलाके की अल्पसंख्यक आबादी में होने से मुस्लिम आबादी का एक हिस्सा जो मज़दूर है खुलकर मज़दूरों के संघर्ष में साथ आया। यूनियन में सामूहिक फैसला लेने और प्रत्येक दिन के कार्यक्रम का समय तय करने और आगे की योजना पर सभी साथियों से सलाह लेने का काम अच्छी तरह से किया गया। महिलाओं की पहलकदमी खोलने से और मज़दूरों की शक्ति का योजनाबद्ध तरीके से उपयोग करने से हड़ताल को संगठित और मजबूत बनाया जा सका।
नकारात्मक पहलू: हड़ताल की सफलता के बावज़ूद बादाम उद्योग में लगे उत्तराखण्ड और यूपी के मज़दूर जो बादाम मज़दूरों की कुल संख्या का छोटा सा ही हिस्सा है, हड़ताल के दौरान खुलकर साथ नहीं आया। यूपी के मज़दूरों का एक हिस्सा साथ था जोकि पिछली हड़ताल से ज्यादा था लेकिन इन मज़दूरों का बड़ा हिस्सा चुपचाप घर बैठा था या एक हिस्सा काम भी कर रहा था। केएमयू की पकड़ अभी भी इन मज़दूरों में कम है और इनके बीच सघन प्रचार नहीं किया गया है। आन्दोलन के दौरान कुछ जगह पर जहाँ सामूहिक रूप से बातचीत होने पर फैसला लिया जाना चाहिए था वहाँ नेतृत्व ने अपने मन मुताबिक भी फैसला लिया जो कि सामूहिकता का निषेध और व्यक्तिवाद को दर्शाता है। मज़दूरों के बीच पैदा हो रहे आक्रोश और संघर्ष के लिए तैयार होती परिस्थितियों का सही आकलन भी यूनियन की कोर टीम को नहीं था। इस वजह से बादाम मज़दूरों की कुछ अन्य माँगों को ठीक से नहीं उठाया जा सका जिसमें बादाम मज़दूरों में स्टॉफ का काम करने वाले मज़दूरों की मांग थी। दिल्ली के असंगठित मज़दूर क्षेत्र में बादाम मज़दूरों की 6 दिन चली हड़ताल में हुई जीत यह दिखलाती है कि मज़दूरों की इलाकाई एकता और जुझारू नेतृत्व के जरिये ही मज़दूर संघर्षों को जीता जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2013
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