विस्ट्रॉन आईफ़ोन प्लाण्ट हिंसा
अमानवीय हालात के ख़ि‍लाफ़ मज़दूरों का विद्रोह!

  • अखिल कुमार

देश के औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों को मुनाफ़े की चक्की में जिस क़दर पेरा जाता है, उनके सभी गिले-शिकवों को कम्पनी प्रबन्धन से लेकर सरकारी प्रशासन तक जिस तरह से अनसुना करता है, ऐसी स्थिति में अगर लम्बे समय से इकट्ठा हो रहा उनका ग़ुस्सा लावा बनकर हिंसक विद्रोह में फूट पड़ता रहा है, तो इसमें हैरानी कैसी! पिछले 15-20 सालों में ऐसी कितनी ही घटनाएँ घट चुकी हैं जब मज़दूरों का ग़ुस्सा हिंसक विद्रोह में तब्दील हो गया, चाहे वह 2005 की होण्डा गुडगाँव प्लाण्ट की घटना हो, 2008 में ग्रेटर नोएडा में ग्राज़ि‍यानो की घटना हो, मारुति-सुज़ुकी मानेसर प्लाण्ट की 2012 की घटना हो, 2013 की नोएडा की दो दिवसीय प्रतीकात्मक हड़ताल के समय की घटना हो या ऐसी अन्य ढेरों घटनाएँ हों। ऐपल कम्पनी के आईफ़ोन असेम्बल करने वाली कम्पनी विस्ट्रॉन इन्फ़ोकॉम के कोलार प्लाण्ट में पिछले महीने हुआ हिंसक विद्रोह भी इन्हीं घटनाओं की अगली कड़ी है।
12 दिसम्बर को विस्ट्रॉन इन्फ़ोकॉम के नारासापुरा इण्डस्ट्रियल एरिया, कोलार (कर्नाटक) स्थित प्लाण्ट में ठेका मज़दूरों के ग़ुस्से ने हिंसक रुख़ अख़्तियार कर लिया। हुआ यूँ कि 12 दिसम्बर को रात की शिफ़्ट के 500 के क़रीब मज़दूर अपनी लिखित शिकायत लेकर कम्पनी के मानव संसाधन विभाग में गये। इस लिखित शिकायत में उनकी लम्बे समय से ज्यों की त्यों बनी हुई तमाम दिक़्क़तें शामिल थीं, जैसे तय वेतन से कम वेतन मिलना, कभी भी समय पर वेतन न मिलना, ओवरटाइम के बदले में अतिरिक्त वेतन न मिलना, 12-12 घण्टे की शिफ़्ट और हाज़िरी में धाँधली आदि। बजाय इसके कि कम्पनी प्रबन्धन इत्मीनान से उनकी शिकायत सुनता और उनकी लम्बे समय से बनी हुई परेशानियाँ हल करता, हुआ वही जो हमेशा होता आया था। कम्पनी प्रबन्धन ने फिर से सभी दिक़्क़तों का ठीकरा ठेका कम्पनियों के सिर फोड़ने की कोशिश की और मज़दूरों को ठेका कम्पनियों के पास जाने को कहा और उन्हें कमरे से बाहर निकालकर दरवाज़ा बन्द कर लिया। रात भर की कोशिों के बाद लम्बे समय से परेशानहाल मज़दूरों का ग़ुस्सा बेक़ाबू हो गया और सुबह 6 बजे उन्होंने कम्पनी में तोड़-फोड़ कर अपना गुस्सा प्रकट करना शुरू कर दिया।
महीनों से कम्पनी में हो रहे अन्याय पर कान में तेल डालकर सोसा हुआ प्रशासन इस घटना का पता चलते ही फ़ौरन जागकर चाक-चौबन्‍द हो गया। पूरा सरकारी लाव-लश्कर विद्रोही मज़दूरों का दमन करने में जुट गया। लगभग 150 मज़दूरों को हिरासत में ले लिया गया और 3000 अज्ञात मज़दूरों के ख़िलाफ़ एफ़.आई.आर दर्ज करा दी गयी। कर्नाटक के मुख्यमंत्री से लेकर अन्य बड़े अधिकारियों की ओर से विस्ट्रॉन कम्पनी के पक्ष में आश्वासन आने शुरू हो गये, जिनका कुल निचोड़ यही था कि पूँजीपति फ़िक्र न करें, मज़दूरों को ऐसा सबक़ सिखाया जायेगा कि उनकी आने वाली पुश्तें भी कभी ऐसा करने के बारे में नहीं सोचेंगी! अख़बारों और ख़बरिया चैनलों ने घटना को बढ़ा-चढ़ाकर और ढेरों झूठ जोड़ते हुए मज़दूरों को गुण्डे-बदमाश-बलवाईयों के रूप में पेश करना शुरू कर दिया। पूरे पूँजीवादी मीडिया में यह रोना-धोना शुरू हो गया कि इस घटना से विदेशी पूँजीपति भारत में निवेश करने से डरेंगे और मेक इन इण्डिया पर बुरा असर पड़ेगा। इस तरह की ख़बरें उछाली गयीं कि मज़दूरों ने हज़ारों आईफ़ोन चोरी कर लिये। जब इस सब दुष्प्रचार से भी बात नहीं बनी तो महिला मज़दूरों के साथ यौन हिंसा तक का फ़र्ज़ी इल्ज़ाम मज़दूरों पर लगा दिया गया। लेकिन, किसी ने भी यह जानने की कोशिश तक नहीं की कि आख़िर मज़दूरों के इस ग़ुस्से के पीछे के हालात क्या थे; आख़िर क्यों वे कम्पनी में तोड़-फोड़ करने को मजबूर हुए। आइए उन हालातों के बारे में जान लेते हैं।
विस्ट्रॉन इन्फ़ोकॉम मूल रूप से एक ताइवानी कम्पनी है। इसके कोलार स्थित प्लाण्ट में ऐपल कम्पनी के महँगे आईफ़ोन असेम्बल करने का काम होता है। विस्ट्रॉन के इस प्लाण्ट में लगभग 10,000 मज़दूर काम करते हैं, जिनमें से केवल 1343 ही स्थायी मज़दूर हैं, बाक़ी सब ठेका मज़दूर हैं। इन ठेका मज़दूरों को कम्पनी सीधा काम पर ना रखकर ठेका कम्पनियों के ज़रिये काम पर रखती है, जिससे कम्पनी इन मज़दूरों के प्रति अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेती है। मज़दूरों को जब भी कोई दिक़्क़त पेश आती है तो न तो ठेका कम्पनी उनकी सुनवाई करती है, न ही विस्ट्रॉन। यह पूँजीवाद के मौजूदा नव-उदारवादी दौर में आम चलन है, फिर चाहे वह कोई भी सेक्टर क्यों न हो।
विस्ट्रॉन के उक्त प्लाण्ट में लम्बे समय से अक्सर ऐसा हो रहा था कि मज़दूरों को तय वेतन से कम वेतन दिया जाता था। इसके अलावा उन्हें समय पर वेतन ना मिलना भी एक आम समस्या थी। यहाँ तक कि कुछ मज़दूरों के मुताबिक़ उन्हें कई बार 2-2 महीने तक वेतन नहीं मिला। मज़दूरों से प्रति दिन 100 रुपये अतिरिक्त देने के नाम पर ओवरटाइम करवा लिया जाता था लेकिन जब भी वेतन उनके खाते में जमा होता तो पता चलता कि ओवरटाइम का पैसा तो क्या मिलना था, उनका बेसिक वेतन भी उन्हें नहीं मिला। हाज़िरी में धाँधली इस क़दर थी कि जो मज़दूर छुट्टी वाले दिन भी काम पर आते थे, उन तक की हाज़िरी कम दिखायी जाती थी, जिसके नतीजे के तौर पर उनका वेतन काट लिया जाता था। मज़दूरों से बिना ओवरटाइम वेतन के 12-12 घण्टों की शिफ़्टों में हाडतोड़ काम करवाया जाता था। ऊपर से मज़दूरों की कभी कोई सुनवाई नहीं होती थी। कई महीनों से मज़दूर कभी ठेका कम्पनी के प्रबन्धन, तो कभी विस्ट्रॉन के प्रबन्धन के पास चक्कर लगा रहे थे, लेकिन दोनों ही समस्या का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ उन्हें टरकाने में लगे हुए थे। यहाँ तक कि मज़दूर कई बार प्रशासन के पास भी अपनी शिकायत लेकर गये, लेकिन जैसा कि आम तौर पर होता है, उन्हें वहाँ से भी निराशा ही हाथ लगी। अक्टूबर में ही मज़दूर कोलार ज़िले की डीसी से भी मिले, लेकिन ज़बानी आश्वासन के अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला। कोरोना काल में भी समय पर और पूरा वेतन न मिलने से मज़दूरों की ज़ि‍न्‍दगी की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। इस पूरे घटनाक्रम से आसानी से समझा जा सकता है कि 12 दिसम्बर को कम्पनी प्रबन्धन से मिलते वक़्त मज़दूरों की मनोदशा क्या रही होगी। घटना के बाद पुलिस प्रशासन कम्पनी मालिकान की सेवा जारी रखते हुए यह दावा कर रहा था कि 12 दिसम्बर की हिंसा मज़दूरों की सोची-समझी साज़िश थी, लेकिन सच्चाई यह है कि कम्पनी प्रबन्धन से मिलने के बाद मज़दूरों की उसी दिन 11 बजे डीसी दफ़्तर पर प्रदर्शन करने की योजना थी। लेकिन, कम्पनी प्रबन्धन के उस दिन के संवेदनहीन रवैये ने मज़दूरों के ग़ुस्से की बारूद में चिंगारी का काम किया।
घटना के बाद विस्ट्रॉन लगातार मज़दूरों की समस्याओं की पर्दापोशी में लगी हुई है। कभी यह दावा किया जा रहा है कि ठेका कम्पनियों को समय पर पूरा भुगतान कर दिया जाता था तो कभी यह मज़ाक़िया दावा किया जा रहा है कि हाज़िरी में गड़बड़ी इसलिए हो रही थी क्योंकि हाज़िरी लगाने के लिए जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जा रहा था, उसके सॉफ़्टवेयर में दिक़्क़तें थीं।
इसके अलावा, विस्ट्रॉन ने अपनी पुलिस शिकायत में 12 दिसम्बर की घटना के कारण 437 करोड़ रुपये के नुक़सान का झूठा दावा किया था, जिसकी पोल जल्द ही खुल गयी। एक ओर जहाँ घटना स्थल पर पहुँची बीमा कम्पनी ने विस्‍ट्रॉन के इस दावे को ग़लत ठहराया, वहीं दूसरी ओर विस्ट्रॉन ने ख़ुद भी अपनी साख़ बचाने के लिए बाद में नुक़सान की राशि को घटाकर 52 करोड़ रुपये तक कर दिया। दरअसल, जहाँ शुरू में कम्पनी इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही थी, बाद में इस डर से इस पर पर्दा डालने लगी कि कहीं ऐपल कम्पनी उसका सप्लायर लाइसेंस रद्द न कर दे। इसी डर से बाद में विस्ट्रॉन ने कुछ हद तक अपनी ग़लती मानते हुए कम्पनी की भारतीय शाखा के उपाध्यक्ष को बर्ख़ास्त करने की खानापूर्ति भी कर दी।
असल में, अन्य बड़ी कम्पनियों की तरह ही ऐपल के उत्पाद भी उसके अपने कारख़ानों में नहीं बनते, बल्कि उसके उत्पादों के अलग-अलग भागों को बनाने से लेकर उन्हें आईफ़ोन, आईपैड या अन्य किसी उत्पाद के तौर पर असेम्बल करने का काम उसके सप्लायर करते हैं। ऐपल के इन सप्लायरों में सबसे बड़े हैं: फ़ॉक्सकॉन, पेगाट्रॉन और विस्ट्रॉन। ये सभी मज़दूरों के बर्बर शोषण के लिए कुख्यात हैं। 2010 व 2012 में चीन में फ़ॉक्सकॉन के कई मज़दूरों ने वहाँ के हालातों से तंग आकर ख़ुदकुशी तक कर ली थी। इसी तरह, पिछले वर्ष नवम्बर में ही ऐपल ने पेगाट्रॉन का सप्लायर लाइसेंस रद्द कर दिया था। कारण यह था कि पेगाट्रॉन कम्पनी छात्रों से ट्रेनिंग के नाम पर बिना वेतन दिये दिन-रात काम करवा रही थी। इस बार भी अपनी छीछालेदर होने पर
ऐपल ने विस्ट्रॉन को आज़माइश अवधि (प्रोबेशन पीरियड) पर डाल दिया है और उसे दिये जाने वाले सभी नये ऑर्डर रद्द कर दिये हैं। ऐसी हर घटना के बाद ऐपल अपने सप्लायर कोड ऑफ़ कण्डक्ट के उल्लंघन का हवाला देकर सप्लायर का लाइसेंस रद्द कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। लेकिन सवाल यह है कि आख़िर ऐपल या इसी तरह की अन्य दैत्यकार कम्पनियाँ स्थायी मज़दूर रखकर काम करवाने के बजाय अपना काम ठेके पर क्यों करवाती हैं? इसकी वजह सभी जानते हैं कि ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि कम से कम लागत पर अपने उत्पाद तैयार करवाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हासिल किया जा सके। अपने कारख़ानों में स्थायी मज़दूर रखने पर इन कम्पनियों की उनके प्रति सीधी जवाबदेही होगी। मज़दूरों को न्यूनतम वेतन, पी.एफ़., बोनस, ओवरटाइम आदि न मिलने पर सीधा इन्हीं कम्पनियों पर सवाल खड़ा होगा, जिससे इनके कारोबार पर भी असर पड़ेगा। लेकिन, सप्लायरों के मार्फ़त काम करवाने पर भले ही मज़दूरों को कितना ही क्यों न निचोड़ा जा रहा हो, श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ क्यों न उड़ायी जा रही हों, इन कम्पनियों को मज़दूरों के ग़ुस्से का सेंक लगने की सम्भावना कम रहेगी। और, सेंक लगेगा भी तो सारा ठीकरा सप्लायर के सिर फोड़कर उनका लाइसेंस रद्द कर किसी अन्‍य सप्लायर के मार्फ़त यही काम बदस्तूर जारी रहेगा।
विस्‍ट्रॉन की घटना या इसी तरह की अन्य घटनाओं के पीछे एक और प्रमुख कारण है मज़दूरों का असंगठित होना। विस्ट्रॉन में कोई यूनियन ही नहीं है जो मज़दूरों के आक्रोश को सही दिशा देकर उनकी माँगों को लेकर एक जुझारू संघर्ष छेड़ सके। ऐसे में यह ताज्‍जुब की बात नहीं है कि उनका ग़ुस्‍सा एक अराजक विद्रोह के रूप में फूटा। आज मज़दूरों को एक क्रान्तिकारी मज़दूर यूनियन की सख्‍़त ज़रूरत है। मज़दूरों की अपनी क्रान्तिकारी यूनियन ही उन्हें जुझारू संघर्ष के लिए तैयार कर सकती है और अन्य फ़ैक्टरियों के मज़दूरों को भी संघर्ष में शामिल करके फ़ैक्टरी स्तर के संघर्ष को सेक्टर स्तर और इलाक़ा स्तर के संघर्ष में तब्दील कर सकती है। ऐसे जुझारू संघर्षों के दौरान ही मज़दूर वर्ग को यह समझ विकसित होगी कि जब तक पूँजीवाद रहेगा वे आबाद और ख़ुशहाल नहीं हो सकते और तभी वे पूँजीवाद का विकल्‍प खड़ा करने के बारे में सोचेंगे।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021


 

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