भूख और कुपोषण के साये में जीता हिन्दुस्तान
- अविनाश
हर गुजरते दिन के साथ मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था बेनकाब होती जा रही है। भूख-कुपोषण, मँहगाई, बेरोज़गारी आदि से परेशानहाल जनता को ‘अच्छे दिन आएंगे’ का सपना बेचकर सत्ता में पहुंची फ़ासीवादी मोदी सरकार की हर नीति आम जनता पर कहर बनकर टूट रही है। कोरोना महामारी में मोदी सरकार का कुप्रबंधन हज़ारों मेहनतकशों की ज़िन्दगी पर भारी पड़ा और समय गुजरने के साथ हर नया आंकड़ा मेहनतकशों के बर्बादी का हाल बयान कर रहा है।
दुनिया के “सबसे बड़े लोकतंत्र” का डंका भुखमरी और कुपोषण के मामले में भी दुनियाभर में बज रहा है। हाल ही में आयी वर्ल्ड हंगर इंडेक्स-2020 और नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की पहले चरण कि रिपोर्ट के इस बात का प्रमाण है कि भारत का मेहनतकश आज़ादी के 73 साल बाद भी भूख और कुपोषण के साये में जीने को मजबूर है। वर्ल्ड हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट के मुताबिक बात-बात पर पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्लाने वाली भाजपा के राज में भुखमरी के मामले में पाकिस्तान की तुलनात्मक स्थिति भी भारत से अच्छी है। इस रिपोर्ट के अनुसार पकिस्तान के अलावा म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका भारत से बेहतर स्थिति में हैं। 2020 के विश्व भूख सूचकांक में शामिल कुल 107 देशों की सूची में भारत (94वें पायदान पर) की स्थिति अफ्रीका के कुछ बेहद गरीब देशों से ही बेहतर है।
13 दिसम्बर 2020 को जारी पाँचवे नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस -5) के पहले चरण की रिपोर्ट (जिसमें 17 राज्य और 5 केन्द्रशासित प्रदेश शामिल हैं) मोदी सरकार के विकास के तमाम दावों के ढोल की पोल खोल रही है। रिपोर्ट में सामने आए तथ्यों पर आने से पहले मोदी सरकार की इस कारगुजारी पर ध्यान देना जरूरी है कि बेरोज़गारी के आंकड़े की तरह ही मोदी सरकार एनएफएचएस -5 के आंकड़ों को भी जनता के बीच जाने से रोकने की कोशिश में लगी है। 12 राज्यों और 2 केन्द्र शासित प्रदेशों में होने वाले दूसरे चरण के सर्वे में जानबूझकर देरी की जा रही है।
एनएफएचएस -5 रिपोर्ट के पहले चरण के आंकड़े दिखाते है कि पाँच वर्ष तक के बच्चों में कुपोषण से सम्बंधित चार मानक कम ऊँचाई, पोषक तत्वों की कमी, कम वजन और शिशु मृत्यु दर के मामले में कुछ राज्यों को छोड़ दे तो अन्य की स्थिति पहले से भी भयानक हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक 6 महीने से 2 साल के बच्चों में से औसतन 15 फीसदी से भी कम बच्चों को संतुलित और पर्याप्त आहार मिल पा रहा है। मतलब देश के लगभग 85 प्रतिशत नवजात भूख की मार झेल रहे हैं। इस भयानक स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मामले में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाला राज्य मेघालय है और वहाँ भी हर तीन बच्चों में से केवल एक को ही संतुलित और पर्याप्त आहार मिल रहा है, और सबसे फिसड्डी राज्य गुजरात है जहां हर 17 में से केवल एक बच्चे की संतुलित और पर्याप्त आहार तक पहुँच है। इसका असर बच्चों के मानसिक तथा शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक देश पाँच वर्ष से काम उम्र के औसतन 60 फीसदी से ज़्यादा बच्चे खून की कमी के शिकार हैं (लद्दाख में 92.5 फीसदी और गुजरात में 80 फीसदी बच्चे एनीमिया के शिकार हैं)। पैदा होने के 28 दिनों में ही औसतन 1000 में से 15 से ज़्यादा नवजातों की मौत हो जाती है (बिहार में 34.5 और गुजरात में 22) और 1000 में से लगभग 24 बच्चे 1 साल और 35 बच्चे 5 साल की उम्र से पहले ही काल के गाल मे समा जाते हैं। हर साल दुनिया में 1 साल से कम उम्र में होने वाली मौतों में से 15 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा भारत के केवल चार राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, और राजस्थान से आता है। 15-49 वर्ष की आधी से ज़्यादा महिलाएं (लद्दाख की 92 फीसदी, पश्चिम बंगाल की 74.1 फीसदी, गुजरात की 65 फीसदी बिहार की 63.5 फीसदी) और देश का हर तीसरा पुरुष एनीमिया से ग्रसित है। वहीं ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट-2020 के मुताबिक भारत में 4.66 करोड़ बच्चे कुपोषित हैं और इस मामले में भारत दुनियाभर में अव्वल है। यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन 2019” के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में 69 प्रतिशत मौतों का कारण कुपोषण है। असल में यह व्यवस्था द्वारा की जाने वाली हत्या है जिसपर कोई कभी आवाज नहीं उठती है। किसी भी लोकतंत्र के लिए गरीबी और भूख से मौत शर्म की बात है, लेकिन भारतीय हुक्मरानों की निर्लज्जता की हद यह है कि भुखमरी-कुपोषण के रोकथाम की जगह नयी संसद बनाने के ‘सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’ में बीस हज़ार करोड़ रुपये होम कर रहे हैं। यह संकट खाद्यान्न की कमी से पैदा नहीं हुआ है (अगर होता तो भी यह सवाल खड़ा होता कि जो सरकार कारपोरेट घरानों का 1.45 लाख का कर्ज माफ कर सकती है क्या वो लोगों के लिए खाद्यान की व्यवस्था नही कर सकती?)। देश में यह स्थिति तब बनी हुई हैं जब लॉकडाउन के चार महीनों में एफसीआई के गोदामों में लगभग 65 लाख टन अनाज़ सड़ गया। इससे स्पष्ट है कि देश में भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिये संसाधनों या सामर्थ्य की कमी नहीं है। दरअसल समस्या पूँजीवादी व्यवस्था की है जो अपनी स्वाभाविक गति से एक तरफ विलासिता का टापू बना रही है तो दूसरी तरफ आँसुओ का समंदर।
इस पूँजीवादी सड़ांध को देखने के बाद भगतसिंह की ये बात बरबस ही दिमाग मे आ जाती है कि- “अगर कोई सरकार जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का यह अधिकार ही नहीं बल्कि आवश्यक कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी सरकार को बदल दे या समाप्त कर दे।”
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन