बोलते आँकड़े चीख़ती सच्चाइयाँ
- कृषि में पूँजीवादी विकास के साथ ही किसान आबादी के बीच ध्रुवीकरण की प्रक्रिया चलती रही है। धनी किसानों-कुलकों-फ़ार्मरों की एक छोटी-सी आबादी अमीर हुई है और उसके पास ज़मीन बढ़ती गयी है जबकि अपनी ज़मीन से उजड़कर मज़दूर बनने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ती गयी है। हरित क्रान्ति के बाद यह सिलसिला तेज़ हुआ और पिछले पाँच दशकों से लगातार जारी है।
- 2011 में भारत की खेती में लगी आबादी में से 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे, जबकि किसानों की संख्या 11.8 करोड़ रह गयी थी। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़ूदर बनने की की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच रही थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से नीचे।
- कारपोरेट पूंजी के प्रवेश से पहले 1971 से 1980 के बीच 2 करोड़ किसान सर्वहारा की तादाद में शामिल हुए। यही प्रक्रिया आजतक जारी है। इस बर्बादी के पीछे कॉरपोरेट पूंजी नहीं थी बल्कि आढ़तियों-सूदख़ोरों-कुलकों की मुनाफाख़ोरी, सूदख़ोरी और लगानख़ोरी थी। यदि धनी किसानों की जगह कॉरपोरेट पूँजी का वर्चस्व होगा तो भी ग़रीब किसानों की सर्वहारा वर्ग में शामिल होने की प्रक्रिया जारी रहेगी।
- वर्ष 2013 में जनगणना की रिपोर्ट के आधार पर जारी डेटा के मुताबिक पिछले एक दशक के दौरान किसानों की संख्या में 86 लाख की कमी आयी। इसी डेटा के अनुसार पिछले 10 वर्षों में खेतिहर मज़दूरों की संख्या में 3 करोड़ 70 लाख की बढ़ोत्तरी हुई।
- वर्ष 2014 में समाज विकास अध्ययन केन्द्र (सीएसडीएस) की ओर से देश के 18 राज्यों में 5000 किसान परिवारों के बीच किये गये एक व्यापक अध्ययन में पाया गया कि 76 प्रतिशत किसान खेती छोड़कर कोई दूसरा काम करना चाहते हैं। बड़ी संख्या में किसानों ने आढ़तियों और धनी किसानों से लिये क़र्ज़ों के बोझ को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया।
- करीब 92 प्रतिशत किसानों की आय का 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा अब मज़दूरी से आता है, न कि खेती से।
- नाबार्ड के अनुसार देश के 87 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर (करीब 5 एकड़) से भी कम ज़मीन है। 37 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 0.4 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है और 30 प्रतिशत के पास 0.41 से 1 हेक्टेयर के बीच ज़मीन है। सिर्फ़ 13 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 2 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन है।
इनमें से भी केवल 6 प्रतिशत को लाभकारी मूल्य यानी एमएसपी का फ़ायदा मिलता है। यह प्रतिशत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। पंजाब और हरियाणा में और एक हद तक मध्यप्रदेश में यह प्रतिशत ज़्यादा है। लेकिन पंजाब में भी एक-तिहाई किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम ही ज़मीनें हैं। - एमएसपी पर होने वाली कुल ख़रीद का करीब 70 फ़ीसदी पंजाब और हरियाणा में ही होता है।
शहरी और खेतिहर मज़दूर मिलाकर मज़दूर आबादी करीब 57 से 59 करोड़ बैठती है; ग़रीब किसान करीब 10 करोड़ के आस-पास हैं। इसकी तुलना में धनी और उच्च मध्यम किसान आबादी मुश्किल से 3 से 4 करोड़ है। फिर भी उनके आन्दोलन को नेताओं से लेकर समाज के तमाम मानिन्द लोगों का जैसा समर्थन मिला है, वैसा आज तक मज़दूरों के किसी भी आन्दोलन को नहीं मिला, यह सोचने का विषय है। - वर्ष 2001 से 2011 के बीच, खेतिहर मज़दूरों की संख्या में हरियाणा में 50 प्रतिशत, आन्ध्र प्रदेश में 48 प्रतिशत और कर्नाटक में 53 प्रतिशत की वृद्धि हुई और लगभग इसी दर से किसानों की संख्या में गिरावट आयी, जबकि इन राज्यों में अच्छी या ठीकठाक एपीएमसी मण्डी प्रणाली है। इसी बीच पश्चिम बंगाल में किसानों के मज़दूर बनने की दर सिर्फ़ 31 प्रतिशत थी, जबकि इस राज्य में ठेका खेती का काफ़ी विकास हुआ है। इसी दौरान, बिहार में खेतिहर मज़दूरों की संख्या 49.27 लाख बढ़ कर 1.83 करोड़ हो गयी जोकि हरियाणा में खेतिहर मजदूरों की वृद्धि दर से काफ़ी धीमी रही।
- 2001 और 2011 के बीच बिहार में किसानी छोड़ने वालों की दर 12.17 प्रतिशत थी, जबकि हरियाणा में इसी दौरान यह दर 17.80 प्रतिशत थी। ज़ाहिर है कि ये छोटे और ग़रीब किसान ही हैं जो उजड़े और मज़दूर बने हैं।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन