कोरोना काल में आसमान छूती महँगाई और ग़रीबों-मज़दूरों के जीवन की दशा

– रूपा

सेठों-व्यापारियों और समाज के उच्‍च वर्ग के लिए महँगाई मुनाफ़ा कूटने का मौक़ा होती है, मध्‍यवर्ग के लिए महँगाई अपनी ग़ैर-ज़रूरी ख़र्च में कटौती का सबब होती है और अर्थशास्त्रियों के लिए महँगाई विश्‍लेषण करने के लिए महज़ एक आँकड़ा होती है। लेकिन मेहनत-मजूरी करने वाली आम आबादी के लिए तो बढ़ती महँगाई का मतलब होता है उन्‍हें मौत की खाई की ओर ढकेल दिया जाना। वैसे तो देश की मेहनतकश जनता को हर साल महँगाई का दंश झेलना पड़ता है लेकिन कोरोना काल में उसके सिर पर महामारी और महँगाई की दुधारी तलवार लटक रही है। मोदी सरकार ने बिना किसी योजना के सख्‍़त लॉकडाउन लगाकर ग़रीबों और मेहनतकशों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया था। लॉकडाउन ख़त्‍म होने के बाद भी महँगाई लगातार बढ़ती ही जा रही है। आलू, प्याज, टमाटर, दाल, गेहूँ और चावल की क़ीमतें आसमान छू रही हैं जिसकी वजह से वे ग़रीबों की थाली से ग़ायब होती जा रही हैं।
लखनऊ के मेहनतकशों के रिहायशी इलाक़ों में जनकार्यों के दौरान हमें ग़रीबों व मेहनतकशों के जीवन की मुश्किलों को क़रीब से जानने-समझने का मौक़ा मिलता है। खदरा इलाक़े में एक सज्‍जन रिक्शा चलाते हैं। उनके परिवार में पाँच सदस्य हैं जिनका ख़र्चा वे रिक्शा चलाकर ही निकालते हैं। उन्होंने हमें बताया कि जब से कोरोना संकट आया और लॉकडाउन लगा तब से उनके परिवार का पेट बड़ी मुश्किल से भर पा रहा है। हर चीज़ में कटौती करनी पड़ रही है। उन्‍हें यह याद नहीं है कि दाल खाये कितने दिन हो गये हैं। वे सब्‍ज़ी मण्‍डी में उस समय जाते हैं जब वह बन्‍द होने वाली होती है ताकि बची–खुची सब्ज़‍ियाँ सापेक्षत: कम क़ीमत पर ख़रीद सकें। अब तो बच्चों के दूध में भी कटौती करनी पड़ रही है। अगर उनके परिवार का कोई सदस्‍य बीमार पड़ जाता है तो कुछ दिन तो बिना दवा के ही ठीक होने का इन्तज़ार करते हैं।
हमारी मुलाक़ात एक अन्‍य शख्‍़स से हुई जिनके परिवार में उनकी पत्‍नी और तीन बच्चे हैं। वे दिहाड़ी पर काम करते हैं। जब सामान्य दिन थे तब भी उनके यहाँ रोज़ शाम को चूल्हा नहीं जल पाता था। किसी तरह बच्चों को शाम का खाना खिलाकर माँ-बाप भूखे ही सो जाते थे। लॉकडाउन के दौरान यह परिवार मरते-मरते बचा। मोहल्ले के कुछ लोगों और कुछ रिश्तेदारों ने मदद की, तब किसी तरह इस परिवार का वजूद बच सका।
इन दो दास्‍तानों से हमें यह झलक मिलती है कि महामारी और महँगाई के इस आलम में एक ग़रीब के लिए अपना पेट भरना कितना मुश्किल होता जा रहा है। शिक्षा, मनोरंजन और तमाम सुख-सुविधाओं की तो बात करना ही बेमानी है। उसकी पूरी उर्जा सिर्फ़ दो जून की रोटी कमाने में खप जाती है।
महँगाई के कारण बहुत-से लोग नियमित दाल, हरी सब्‍ज़ी, अण्‍डे आदि खाना या चाय पीना छोड़ चुके हैं। कोरोना से मरने वालों के आँकड़े तो सरकार बता रही है लेकिन इसका कोई आँकड़ा नहीं है कि महामारी के इस दौर में कितने लोग रोज़ाना सही समय पर दवा-इलाज न मिलने की वजह से मर रहे हैं या मरने की कगार पर पहुँच जा रहे हैं। डॉक्टर की फ़ीस, दवाओं, जाँचों सब में दो से तीन गुना का इज़ाफ़ा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 63 फ़ीसदी भारतीय बच्चे भूखे सोते हैं। यह सोचकर ही सिहरन होती है कि इन बच्‍चों का कोरोना काल में क्‍या हाल होगा।
देश की आर्थिक स्थिति तो पहले से ही डाँवाडोल थी, कोरोना संकट के समय हालात और भी दुश्‍वार हो गये हैं। जो मज़दूर लॉकडाउन के दौरान गाँव लौट गये थे वे भुखमरी और अभाव की वजह से वापस शहरों की तरफ़ आ रहे हैं। लेकिन इन मज़दूरों के रहने-खाने, दवा-इलाज की व्यवस्था करने वाला कोई नहीं है।
भारत को आत्‍मनिर्भर व आर्थिक महाशक्ति बनाने की लम्बी चौड़ी डींगें हाँकने का सिलसिला महामारी के दौर में भी थमा नहीं है। लेकिन सच तो यह है कि देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी प्रति दिन सिर्फ़ 30 से 40 रुपये पर गुज़ारा करती है। इनके भोजन में पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन जैसे ज़रूरी तत्व सन्तुलित मात्रा में नहीं रहते। देश के क़रीब 55 करोड़ असंगठित मज़दूरों की आबादी का पेट बमुश्किल भर पाता है लेकिन उन्हें पौष्टिक खाना तो कभी नहीं मिलता। सरकारी नियम के अनुसार औद्योगिक मज़दूरों को 2700 कैलोरी और भारी काम करने वाले को 3000 कैलोरी भोजन मिलना चाहिए। अधिकांश आबादी को तो इतना भोजन पहले ही नहीं मिल पाता था, महामारी के दौर में तो और भी मुश्किल हो गया है।
वास्‍तव में महँगाई मुनाफ़े की अन्तहीन हवस पर टिके पूँजीवादी ढाँचे में ही निहित है। सरकारी नीतियाँ भी महँगाई के लिए ज़ि‍म्मेदार होती हैं। भोजन सामग्री में महँगाई की असली वजह ये है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, आढ़तियों, दलालों, सटोरियों और कालाबाज़ारि‍यों का क़ब्ज़ा है। किसी आपदा की वजह से आपूर्ति में कमी के अतिरिक्त चीज़ों के दाम तय करने में इन बिचौलियों की कारगुज़ारियों की भी बड़ी भूमिका होती है। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने तीन कृषि क़ानून पारित करवाये हैं जिनमें तीसरा क़ानून ‘आवश्यक वस्तु संशोधन क़ानून’ आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी वस्तुओं को हटाने के लिए लाया गया है जिससे इन बेहद ज़रूरी चीज़ों की जमाख़ोरी को बढ़ावा मिलेगा जिससे खाद्य पदार्थों की क़ीमत में और ज़्यादा बढ़ोतरी होगी। इस समय प्याज 80 रुपये, आलू 40 रुपये, दालें 120 रुपये के आसपास हैं। सोचने की बात है कि जो लोग मज़दूरी या छोटा-मोटा काम करके, रिक्शा चलाकर, ठेला लगाकर या दिहाड़ी करके किसी तरह हर महीने 5000 से 6000 रुपये कमा पाते हैं वे किस तरह ये सब चीज़ें ख़रीद पायेंगे। ऊपर से तुर्रा यह कि आये दिन पेट्रोल, डीज़ल, गैस सिलेण्डर की क़ीमतें बढ़ती रहती हैं जिसकी वजह से बाक़ी सामानों की क़ीमतें भी आसमान छूने लगती हैं। होना तो यह चाहिए था कि पूरे लॉकडाउन के दौरान सरकार लोगों के खाने-पीने, दवा-इलाज का पूरा इन्तज़ाम करती लेकिन हमारे प्रधान सेवक अगर ऐसा करते तो अपनी अय्याशी के लिए 1300 करोड़ रुपये का हवाई जहाज़ कैसे मँगा पाते!
आज सिर्फ़ मज़दूरी बढ़ाने की लड़ाई लड़ना ही पर्याप्‍त नहीं है क्योंकि अगर मज़दूरी कुछ बढ़ भी जाये तो दूसरी तरफ़ महँगाई बढ़ जाने से हालात और भी बदतर हो जाते हैं। जब तक मुनाफ़े के लिए उत्पादन होगा तब तक महँगाई पर पूरी तरह से क़ाबू नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इस मुनाफ़े की व्यवस्था के ख़ात्मे की तैयारी करनी होगी।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments