लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई
पूँजीवादी संकट की लाइलाज बीमारी का लक्षण है

– अखिल

अपने एसी कमरों तक महदूद बुद्धिजीवियों को समाज में लगातार बढ़ रही असमानता नज़र नहीं आती, लेकिन हम मेहनतकश लोग इसे अपने निजी अनुभवों से बख़ूबी जानते हैं। हम कारख़ाने में काम करते हों, आलीशान इमारतें बनाने का काम करते हों, घरों में काम करते हों, रेहड़ी-खोमचा लगाते हों या कहीं भी मेहनत-मज़दूरी करते हों, अपने रोज़मर्रा के जीवन में हम क़दम-क़दम पर इस असमानता को जीते हैं। ऊँची-ऊँची इमारतों में बने पूँजीपतियों और धन्नासेठों के महलों जैसे आलीशान घर और हमारे बदबूदार-घुटनभरे दड़बेनुमा कमरे समृद्धि के तलघर में नरक के अँधेरे की तरह हैं। हमारी हाडतोड़ मेहनत और उनकी अकल्पनीय अय्याशियाँ इस असमानता की जीती-जागती तस्वीर हैं। मोदी सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के जल्दबाज़ी में लागू किये गये लॉकडाउन के दौरान हमें और हमारे परिवारों को जिन भयानक दुःख-तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा, उससे भी मौजूदा समाज की असमानता साफ़ नज़र आती है। जहाँ एक तरफ़ हम मज़दूरों को भूखे पेट दर-दर भटकने, सड़कों-पटरियों पर भूख या बीमारी से तड़प-तड़प कर मरने, पुलिस के डण्डे खाने और ज़िल्लत सहने के लिए छोड़ दिया गया, वहीं धन्नासेठों और उनकी औलादों को सभी सुख-सुविधाओं के साथ विशेष हवाई उड़ानों के ज़रिये विदेशों से लाया गया। इस असमानता की खाई को केवल आँकड़ों से महसूस नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी कुछ प्रातिनिधिक आँकड़ों से इस असमानता की तस्‍वीर समझने में मदद ज़रूर मिलती है।
हाल ही में कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस सम्बन्ध में दिलचस्प जानकारी जुटायी है। उन्होंने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के सूचकांक निफ़्टी 50 की सूची में शामिल 42 कम्पनियों की वेतन सम्बन्धी जानकारी इकट्ठा की है। इसके मुताबिक़, वित्तीय वर्ष 2020 के दौरान इन कम्पनियों के सबसे ऊपरी अधिकारियों जैसे सीईओ, मैनेजिंग डायरेक्टर आदि का औसत वेतन, इन्हीं कम्पनियों में काम करने वाले कर्मचारियों के औसत वेतन से 259 गुना था। मिसाल के लिए, इस सूची में शामिल कम्पनी हीरो मोटरकॉर्प के सीईओ को इस दौरान अपने कर्मचारियों के औसत वेतन का 752 गुना वेतन यानी हर महीने 7 करोड़ रुपये मिला था! ग़ौरतलब है कि यहाँ कर्मचारी का मतलब इन कम्पनियों में स्‍थायी रूप से काम करने वाले मैनेजरों, इंजीनियरों और प्रबन्धकीय व प्रशासकीय काम करने वाले अन्य लोगों से है, जिनका अपना वेतन भी हम मज़दूरों की मज़दूरी से कई गुना ज़्यादा होता है। इसलिए, आप ख़ुद ही समझ सकते हैं कि हमें मिलने वाली मज़दूरी के मुक़ाबले ये आँकड़ा कहाँ पहुँच जायेगा। इस सूची में हीरो मोटरकॉर्प, टेक महिन्द्रा, बजाज ऑटो, हिण्डाल्को इण्डस्ट्रीज़, आयशर मोटर्ज़, मारुति सुज़ुकी जैसी कम्पनियाँ भी शामिल हैं, जिन्हें हम मज़दूर, ख़ासकर ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूर, अच्छी तरह से जानते हैं। हम में से कितने ही मज़दूर इन या इनकी सहायक कम्पनियों में खटते हैं। और, दिनोरात खटने के बाद भी हम में से कितने मज़दूर होंगे जिन्हें महीनाभर जीतोड़ मेहनत करने के बदले 10,000 रुपये भी मिलते होंगे। नेशनल सैंपल सर्वे 2017-18 के एक आँकड़े के मुताबिक़ केवल 17 फ़ीसदी पुरुष मज़दूरों को 10,000 रुपये महीना से ज़्यादा मज़दूरी मिलती है। स्त्री मज़दूरों की हालत तो इससे भी बदतर है। वहीं दूसरी तरफ़, हमारी मेहनत से निचोड़े गये मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा धन्नासेठों और इनके चाकरों की जेबों में चला जाता है, जिसके दम पर ये लोग हमारी ही पैदा की हुई दुनिया-जहान की सुख-सुविधाओं का लुत्फ़ उठाते हैं।
यही नहीं, कई कम्पनियाँ ऐसी भी हैं जिनका सीईओ ख़ुद उनका मालिक ही है, मसलन रिलायंस। रिलायंस का मालिक मुकेश अम्बानी इसका सीईओ भी है। ये धनपशु अपनी कम्पनी के मज़दूरों की मेहनत को लूटकर अकूत मुनाफ़ा तो हड़पता ही है, लेकिन उससे इसका पेट नहीं भरता, ये अपनी ही कम्पनी से बतौर सीईओ मोटी तनख़्वाह भी लेता है। इनकी विलासिता की अट्टालिका की एक-एक ईंट हमारे ख़ून-पसीने की बदौलत है, लेकिन इसका रत्तीभर हिस्सा भी हमें मयस्सर नहीं है। पूँजीपतियों के रक्तपिपासु कारख़ानों-कम्पनियों के शीर्ष प्रबन्‍धन में काम करने वाले सर्वश्रेष्ठ चाकर ही ये तरक़ीबें गढ़ते हैं कि कैसे हम मज़दूरों को कम से कम मज़दूरी में ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ा जा सके, कैसे इनकी कम्पनियों में एक ही मज़दूर से कई-कई मज़दूरों का काम लेकर मुनाफ़ा बढ़ाया जा सके, कैसे हम मज़दूरों को एकजुट होने से रोका जा सके, हमारी हड़तालों को कुचला जा सके और हमारे ही बनायी हुई चीज़ों को ज़्यादा से ज़्यादा दाम में बेचा जा सके। यही कारण है कि एक तरफ़ लॉकडाउन के दौरान गहराते आर्थिक संकट से बिलबिला रहा पूँजीपति वर्ग अपने कारख़ानों-कम्पनियों से लगातार मज़दूरों-कर्मचारियों की छँटनी कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ इनके सर्वश्रेष्ठ चाकरों के पहले जैसे ही ठाठ हैं, बल्कि कई मामलों में तो इनके वेतन बढ़ ही रहे हैं।
पूँजीवादी थिंकटैंक ऑक्सफ़ैम इण्डिया का आँकड़ा भी बढ़ती असमानता की भयावह तस्वीर पेश करता है। इसकी जनवरी 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक़ हमारे देश के सबसे अमीर 1 फ़ीसदी धन्नासेठों के पास नीचे के 70 फ़ीसदी लोगों की कुल सम्पत्ति की भी 4 गुना से ज़्यादा धन-दौलत है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश की कुल सम्पदा का 70 फ़ीसदी हिस्सा ऊपर के 10 फ़ीसदी धन्नासेठों के हाथ में है। इसके बावजूद, ये पूँजीपति और इनके चाकर आर्थिक संकट का रोना रोते हुए अपनी “मैनेजिंग कमेटी” यानी सरकार से मदद की गुहार लगाते रहते हैं। 2014 से ही मोदी सरकार जी-जान से इनकी सेवा में जुटी हुई है। हमारी और हमारे पुरखों की मेहनत के पैसे से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को तो कौड़ियों के भाव पूँजीपतियों को बेचा ही जा रहा है। इसके साथ ही, पूँजीपतियों को लाखों करोड़ के बेलआउट पैकेज दिये जा रहे हैं। ये लाखों करोड़ रुपये कहाँ से आते हैं? ये लाखों करोड़ रुपये उन अप्रत्यक्ष करों से आते हैं, जो हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ों के दाम में जुड़े रहते हैं और यही सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत भी है।
यह है इस मानवद्रोही ढाँचे की असलियत। इसमें हर सुख-सुविधा, आलीशान घर, बेहतरीन स्कूल, वर्ल्ड क्लास अस्पताल, विलासिता की हर चीज़, सबकुछ पूँजीपतियों-धन्नासेठों और उनके परिवारों के लिए है। हम लोगों के लिए है बस बचपन से ही हाडतोड़ मेहनत और ज़िल्लत। और जब तक समाज के तमाम संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों का मालिकाना रहेगा तब तक हमारी हालत ऐसी ही रहेगी।
हमारे लिए यह भी समझना ज़रूरी है कि यह भयावह असमानता अपने-आप में समस्या की जड़ नहीं है, बल्कि असली समस्या के तमाम लक्षणों में से एक है। पूँजीवादी बुद्धिजीवी असमानता को ही समस्या की जड़ बताते हुए इसे कम करने के कुछ नुस्ख़े सुझाते रहते हैं। दरअसल, उनकी चिन्ता का कारण असमानता होता ही नहीं है। उन्हें डर सताता रहता है कि असमानता के इस क़दर बढ़ जाने से सालों से सुलग रहा जनता के ग़ुस्‍से का ज्वालामुखी कहीं फूट न पड़े। इसलिए, ये बुद्धिजीवी इसी ढाँचे में कुछ पैबन्दसाज़ी करके इसकी उम्र लम्बी करने की जुगत भिड़ाते हैं। मसलन, इनके अनुसार सबसे ज़्यादा अमीर लोगों पर टैक्स बढ़ा देना चाहिए और ग़रीबों को कुछ ख़ैरात बाँटनी चाहिए। लेकिन, हम मज़दूरों को ये भली-भाँति पता होना चाहिए कि बढ़ती असमानता का कारण मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचा है और जब तक मुनाफ़ा आधारित मौजूदा ढाँचे को तबाह कर मज़दूर राज क़ायम नहीं हो जाता, इस बढ़ती असमानता से निजात नहीं मिल सकती बल्कि पूँजीपतियों-धन्नासेठों और मेहनतकशों के बीच की यह खाई और बढ़ती ही जायेगी।
मज़दूर राज में ही इस असमानता को ख़त्म करने का सिलसिला शुरू हो पायेगा। यानी समाजवाद, जिसमें समाज की सम्पदा पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का नहीं बल्कि मज़दूरों-मेहनतकशों का मालिकाना होगा। हालाँकि, समाजवादी समाज स्थापित होते ही असमानता रातों-रात ख़त्म नहीं हो जायेगी। असमानता की खाई को कुछ ही समय में काफ़ी हद तक कम कर दिया जायेगा। लेकिन, मानसिक और शारीरिक श्रम का भेद लम्बे समय तक रहेगा और लम्बी प्रक्रिया के बाद एक ऐसी मंज़िल आयेगी, जब हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार काम करेगा और आवश्यकता के अनुसार हासिल करेगा। आज हम मज़दूरों को ऐसे ही समाज की स्थापना के लिए कमर कसनी होगी।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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