भारत-अमेरिका रक्षा समझौता देश की सम्प्रभुता और सामरिक आत्मनिर्णय से समझौता है!

अपूर्व

जब से देश में 56 इंच सीने वाली मोदी सरकार आयी है तब से ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा है जहाँ हताशा-निराशा, विफलता हाथ न लगी हो। फ़ासीवादी राज्य के दमन-हिंसा, अराजकता के साथ देश की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक पतनशीलता, वैदेशिक और कूटनीतिक सम्बन्धों की इन छः सालों में जो दुर्गति हुई है वो किसी से भी छिपी नहीं है। अपनी इन्हीं “सफलताओं” को आगे बढ़ाते हुए मोदी सरकार ने अमेरिका से ‘बेका’ (BECA) रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करके एक और काला अध्याय जोड़ दिया है। ‘बेका’ समझौता किस तरह भारतीय सम्प्रभुता और भारत के सामरिक आत्मनिर्णय के लिए ख़तरा है इसको समझने से पहले अमेरिकी रक्षा समझौतों की शर्तों को समझना होगा।

अमेरिका के साथ रक्षा समझौता मुख्यतः चार फ़ाउण्डेशनल एग्रीमेण्ट से पूरा होता है। पहला ‘जिसोमिया’ (GSOMIA), दूसरा ‘लिमोआ’ (LEMOA), तीसरा ‘कॉमकासा’ (COMCASA) और चौथा ‘बेका’ (BECA) । इन चार बुनियादी समझौतों में पहला समझौता 2002 में तत्कालीन एनडीए सरकार ने ही शुरू किया था। उस समय अटल बिहारी की सरकार में रक्षा मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडीज़ ने ‘जिसोमिया’ समझौता किया था। इसके तहत सैन्य सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ अमेरिकी हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त का रास्ता साफ़ हुआ था। यूपीए शासनकाल में बाक़ी के तीन समझौते आगे नहीं बढ़ सके। इन समझौतों की शर्तों और भारतीय सैन्य सूचनाओं की गुप्तता के लीक हो जाने के ख़तरों के कारण यूपीए सरकार कोई निर्णय नहीं ले सकी। लेकिन 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद ही इन समझौतों की प्रक्रिया शुरू हो गयी। 2016 में ‘लिमोआ’, 2018 में ‘कॉमकासा’ और अक्टूबर 2020 में ‘बेका’ पर हस्ताक्षर के साथ ये चारों समझौते पूरे भी हो गये।

क्या हैं ये समझौते!

हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी दुनिया में कोई भी समझौता बराबरी का नहीं होता। एक बड़े साम्राज्यवादी देश का छोटे साम्राज्यवादी देश से या एक विकसित पूँजीवादी देश का कम विकसित या पिछड़े पूँजीवादी देश से होने वाला कोई भी समझौता हमेशा बड़े और ताक़तवर देश के हित में ही ठहरता है। लेकिन इसका मतलब ये कत्तई नहीं है कि बड़े साम्राज्यवादी या विकसित देश से कोई भी समझौता किया ही नहीं जाना चाहिए। समझौता किया जाना चाहिए लेकिन अपनी सम्प्रभुता या आत्मनिर्णय के अधिकार को खोकर नहीं! अमेरिका जैसा साम्राज्यवादी देश अगर किसी देश से रक्षा समझौता करता है तो उसका उद्देश्य सिर्फ़ अपने हथियारों को बेचना ही नहीं बल्कि अपने सैन्य ठिकानों के विस्तार के साथ ही उस राष्ट्र के सामरिक और राजनीतिक हितों में हस्तक्षेप करना भी होता है। ये किसी से छिपा नहीं है कि जिन-जिन देशों से अमेरिका ने रक्षा समझौता किया है, उन देशों में अमेरिका का राजनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप बढ़ा ही है।

2002 के ‘जिसोमिया’ समझौते के बाद से मोदी सरकार ने जो अन्य तीन समझौते हड़बड़ी में किये हैं उनमें ‘लिमोआ’ समझौते के तहत दोनों देश एक दूसरे के सैन्य संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। यानी एक दूसरे के जहाजों और विमानों को ईंधन की आपूर्ति या अन्य ज़रूरी सामान मुहैया कराना, उसके बंदरगाहों, हवाई अड्डों या नौ सेना के जहाजों पर विमानों आदि का ठहराव इत्यादि। ‘कॉमकासा’ समझौते के तहत अमेरिका भारत को गोपनीय संदेश वाले उपकरण मुहैया करा सकता है। इसके माध्यम से शान्ति या युद्ध के समय दोनों देश निर्बाध रूप से गोपनीय बातचीत कर सकते हैं। ‘बेका’ समझौते के तहत भारत को किसी पर निशाना लगाने या अपने दुश्मन की गतिविधियों की सटीक जानकारी के लिए अमेरिकी रक्षा मंत्रालय द्वारा विकसित जीपीएस सिस्टम से मदद मिल सकेगी। मिसाइल को निशाना लगाने के लिए सिर्फ़ भू-स्थानिक जानकारी ही नहीं बल्कि भौगोलिक स्तर पर चुम्बकीय और गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी जानकारी की भी ज़रूरत होती है। ये जानकारी भी ये जीपीएस सिस्टम देता है। ये उसी तरह काम करता है जिस तरह हम कहीं जाने के लिए गूगल मैप का इस्तेमाल करते हैं और मैप हमें रास्ता बताता है। लेकिन कभी-कभी वो हमें भटका भी देता है। लेकिन अमेरिकन जीपीएस सिस्टम हमारे द्वारा अभी इस्तेमाल किये जाने वाले जीपीएस सिस्टम से कई गुना अधिक सटीकता के साथ जानकारी देता है। साथ ही ये गतिमान लक्ष्य को ट्रेस कर अंतिम सेकेंड तक मिसाइल को सूचना देता रहता है, जिससे निशाना चूकने की सम्भावना बहुत ही कम हो जाती है।

एक बारगी आपको भी लग रहा होगा कि वाह! इतनी विकसित तकनीक हमें मिल रही है तो इसमें बुरा क्या है! और इसमें भारतीय सम्प्रभुता और सामरिक आत्मनिर्णय में हस्तक्षेप का सवाल कहाँ से आ गया!

असल मामला ये है कि ‘बेका’ समझौते के तहत जो अमेरिकी जीपीएस सिस्टम मिलेगा उसे इस्तेमाल करने के लिए भारत को उस तकनीक को सपोर्ट करने वाले सॉफ़्टवेयर अपने क्रूज़ और बैलिस्टिक मिसाइलों में लगाना होगा या हमें उस तकनीक को सपोर्ट करने वाली मिसाइलें अमेरिका से लेनी होंगी। इन दोनों ही सूरतों में भारतीय मिसाइलों की संख्या से लेकर उसकी लोकेशन और पोजीशन तक की सभी सूचनाएँ अमेरिका को होंगी। दूसरी बात ये है कि इतना होने के बावजूद भी निशाना लगाते समय हमें अमेरिकी उपग्रह और उसके सैन्य संचालकों का सहारा लेना होगा और उन्हीं के माध्यम से भारत को एन्क्रिप्टेड डेटा प्राप्त होगा। यानी अगर भारत को किसी पर निशाना लगाना है तो उसके लिए भी अमेरिका की सहमति आवश्यक होगी। कुल मिलाकर भारतीय सैन्य तंत्र का ढाँचा और युद्ध सामग्री अमेरिका की निगरानी में चली जायेगी। और ये बिल्कुल सम्भव है कि अमेरिका भारत के किसी सैन्य निर्णय को आसानी से प्रभावित कर सके। यह किसी भी सूरत में एक सम्प्रभु राष्ट्र के लिए और उसके सामरिक आत्मनिर्णय के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है।

इस पूरे रक्षा समझौते से एक बात निकल कर आ रही है कि दक्षिण एशिया में भारत और अमेरिका की सैन्य रणनीतियाँ एक ही होने जा रही हैं। ये सारी क़वायद हिन्द-प्रशांत महासागर में चीन की गतिविधियों पर नज़र रखने और अंकुश लगाने की है। लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि भारत और अमेरिका के अलग-अलग देशों से कूटनीतिक सम्बन्ध और हित अलग-अलग हैं। पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान जैसे मसलों पर भारत की राय अमेरिका से बिल्कुल भिन्न है। वहीं चीन के मसले पर भी दोनों देशों के बीच मतभेद हैं। तो भारतीय सैन्य सिस्टम को अमेरिका से जोड़ने पर भारत को क्या हासिल हो जायेगा! लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ अमेरिका की चित्त भी अपनी और पट्ट भी अपनी है। भारत दुनिया का दूसरे नम्बर का हथियार ख़रीदार है। अभी तक भारत का लगभग सत्तर फ़ीसदी हथियार रूस का है। अमेरिका को अपने हथियार सप्लाई के लिए एक बड़े बाज़ार की भी ज़रूरत है। इस समझौते से ये रास्ता भी साफ़ हो गया है। वहीं दूसरी तरफ़ ‘लिमोआ’ समझौते के तहत हिन्द महासागर में अमेरिका भारत के सैन्य संसाधनों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों आदि का बख़ूबी इस्तेमाल कर सकता है। इसमें आश्चर्य नहीं कि चीन पर निगरानी के बहाने भारत में अमेरिकी गुप्तचर और खुफ़िया एजेंसियों की घुसपैठ भी बढ़ सकती है। इस समझौते से उसे उसके दुनिया भर में बिखरे आठ सौ से भी ज़्यादा सैन्य ठिकानों के विस्तार का भी रास्ता साफ़ हो गया है।

कुल मिलाकर इन चार बुनियादी रक्षा समझौतों से भारतीय सम्प्रभुता और सामरिक आत्मनिर्णय को प्रभावित किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि ये समझौते भारतीय शासक वर्ग ने मजबूरी में किये हैं। भारतीय शासक वर्ग की पश्चिमी साम्राज्यवादियों के प्रति झुकाव और निकटता उसके जूनियर पार्टनर के रूप में नव उदारवादी नीतियों के बाद से ही शुरू हो गयी थी। ये समझौता उसी निकटता का नतीजा है। साथ ही ये समझौता स्वदेशी नाम जपने वाले, साम्राज्यवादियों के सामने साष्टांग दण्डवत होने वाले संघी हाफ़पैंण्टियों (अब फ़ुल पैण्ट) की अपने वास्तविक आक़ाओं के प्रति वफ़ादारी का भी मामला है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि ये चारों समझौते जल्दीबाज़ी में भाजपा की सरकार में ही हुए हैं। इसमें एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि अमेरिका में सिर्फ़ उच्च रक्षा तंत्र के हथियार ही नहीं बनते बल्कि जनता के आन्दोलनों का बर्बर दमन करने वाले घातक छोटे हथियार भी बहुतायत में बनते हैं जिन्हें भविष्य में यहाँ के आन्दोलनों का दमन करने के लिए भी इस्तेमाल किया जायेगा।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020


 

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