सिडकुल (हरिद्वार) के कारख़ानों में मज़दूरों के बीच फैलता कोरोना, काम के बिगड़े हालात

– अंगद

जिस तरह मोदी सरकार द्वारा बिना किसी योजना के लॉकडाउन करने के कारण सबसे ज़्यादा संकट का सामना मज़दूरों को करना पड़ा उसी तरह बिना किसी योजना के लॉकडाउन खोलने के कारण सबसे ज़्यादा मज़दूरों की ही ज़िन्दगी ख़तरे में है। देश के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाली मज़दूर आबादी की ही तरह सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों को भी मोदी सरकार द्वारा योजनाविहीन लॉकडाउन और अनलॉक की वजह से संकट का सामना करना पड़ रहा है। वो चाहे पैदल चलकर अपने गाँव लौटने की बात रही हो, पुलिसिया ज़ुल्म हो, भुखमरी हो या अब कोरोना से संक्रमित होने का जोखिम।
 सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाली ज़्यादातर आबादी प्रवासी मज़दूरों की है जो यू.पी. के सीतापुर, लखीमपुर खीरी, शाहजहाँपुर, हरदोई, सहारनपुर, मुज़फ़्फ़रनगर आदि ज़िलों व बिहार के कई ज़िलों की रहने वाली है। कोरोना महामारी में मज़दूरों को कारख़ाना मालिकों और सरकार द्वारा जिस तरह मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया गया। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि शहरों की गन्दी बस्तियों-झुग्गियों में रहकर केवल ज़िन्दा रहने भर की मज़दूरी पाकर हड्डी गलाने वाली करोड़ो मेहनतकश आबादी के लिए पूँजीवादी व्यवस्था नर्क और गुलामी के सिवाय कुछ भी नहीं है। सरकार पूँजीपतियों की चाकरी करने के लिए ही होती है यह बात इस तथ्य से फिर साबित हुई कि 18 मई को, जबकि कोरोना संक्रमण तेज़ी से बढ़ता जा रहा था, सरकार ने मज़दूरों को मौत के मुँह में धकेलकर कारख़ाने खोलने की अनुमति दे दी।
इन कारख़ानों में कोरोना से मज़दूरों की सुरक्षा  का कोई इन्तज़ाम नहीं किया गया या जो इन्तज़ाम किया गया था वह केवल दिखावा ही साबित हुआ। सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में कारख़ाने खुलने के बाद कोरोना संक्रमण की वजह से मज़दूर बस्तियों में सील होने वाली गलियों की संख्या लगातार बढ़ती रही है। टेस्टिंग न होने की वजह से मई-जून तक मज़दूरों के संक्रमित होने की छिट-फुट ख़बरें सामने आ रही थीं। लेकिन जब 17 जुलाई को हिन्दुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड में कोरोना टेस्टिंग करायी गयी तो पहले 31 फिर 18 जुलाई को 22 मज़दूर संक्रमित पाये गये। इसके बाद प्लाण्ट के सभी मज़दूरों का टेस्ट कराया गया जिसमें 288 मज़दूर संक्रमित पाये गये। इसकी वजह से मज़दूर बस्तियों की लगभग 4000 आबादी के क्षेत्र को सील कर दिया गया।
हालात इतने भयानक होने के बावजूद सिडकुल के तमाम कारख़ानों में सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियाँ उड़ाकर मज़दूरों को मौत के मुँह में धकेलकर 100 प्रतिशत कार्यबल के साथ सामान्य दिनों में उत्पादन होने वाले स्पीड से ही उत्पादन जारी रहा। जिन कारख़ानों में कन्वेयर चलते हैं वहाँ स्पीड से सोशल डिस्टेन्सिंग का मामला जुड़ा हुआ है। क्योंकि ज़्यादा स्पीड होने पर मज़दूर एक दूसरे को धक्का देते-खाते ही अपना काम कर पाते हैं। इसका उदाहरण ‘नापिनो’ में देखा जा सकता है जो हीरो के लिए हारनेस और इण्डिकेटर बनाती है। इसी तरह सिडकुल हरिद्वार की एक और फ़ैक्ट्री आईटीसी में शिफ़्ट इंचार्ज के संक्रमित होने के बाद भी न तो प्लाण्ट को सेनेटाइज़ किया गया और न ही मज़दूरों को संक्रमण से बचाने के लिए कोई व्यवस्था की गयी। आईटीसी के मज़दूरों ने प्लाण्ट को सेनिटाइज़ न करने पर  एक शिफ़्ट का कार्य बहिष्कार भी किया लेकिन आईटीसी प्रबन्धन सेनिटाइज़ न करने की ज़िद पर अड़ा रहा। अंततः मज़दूरों को उसी हालात में काम करने को विवश होना पड़ा। अब तक हरिद्वार स्थित सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र की हिन्दुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड, आईटीसी के अलावा ब्रिटानिया, केकेजी, महिन्द्रा, एंकर, जेबीएल, एकम्स, बन्दना सहित दर्जनों कारख़ानों में मज़दूर संक्रमित हो चुके हैं।
उत्तराखण्ड सरकार द्वारा अनलॉक 3 के तहत जारी एसओपी में कहा गया है कि कम संख्या में मज़दूरों के संक्रमित होने पर कारख़ाने नहीं बन्द किये जायेंगे और अधिक संख्या में संक्रमित होने पर अधिकतम 2 दिन के लिए ही कारख़ाने बन्द होंगे। इससे समझा जा सकता है कि उत्तराखण्ड सरकार पूरी तरह से पूँजीपतियों के साथ है और मज़दूरों की बलि चढ़ाने में पूँजीपतियों के साथ सरकार बराबर की भागीदार है। केन्द्र की मोदी सरकार और उत्तराखण्ड की त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार उद्योगपतियों के लिए क़दम-क़दम पर सरकारी ख़ज़ाने लूट रही है, श्रम क़ानूनों को बदल रही है लेकिन बेरोज़गारी और भुखमरी की मार झेल रहे मज़दूरों के लिए कोई व्यवस्था करना तो दूर उल्टे मज़दूरों की सुरक्षा के लिए बचे- खुचे श्रम क़ानूनों को ही ख़त्म कर मज़दूरों को ग़ुलामी में धकेलने में जी जान से लगी हुई है।
जिस तरह उत्तर प्रदेश की योगी सरकार सहित अन्य राज्यों की सरकारों द्वारा श्रम क़ानूनों को 1000 दिनों के लिये निलम्बित कर दिया गया उसी तर्ज पर उत्तराखण्ड सरकार भी 11 जुलाई को “श्रम सुधारों” के नाम पर शर्म क़ानूनों को ही ख़त्म करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेज चुकी है। वैसे आज की हालत में भी सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में नाममात्र के श्रम क़ानून कारख़ानों में लागू हैं। यहाँ के ज़्यादातर कारख़ानों की एक शिफ़्ट 10 से 12 घण्टे की है। कोरोना महामारी के इस दौर में बढ़ती बेरोज़गारी का फायदा उठाकर मज़दूरी घटा दी गयी है। प्रिया गोल्ड, बिस्किट बनाने वाली कम्पनी है, इसमें इस समय 11 घण्टे 30 दिन काम करने पर साढ़े आठ से नौ हजार ही मज़दूरी है। कोरोना महामारी के बाद एकम्स सहित कई दवा बनाने वाली कम्पनियाँ 12 घण्टे चलनी शुरू हो गयी हैं जबकि मज़दूरी में बहुत मामूली बढ़ोत्तरी हुई है। 12 घण्टे के स्टैंडिंग कार्य दिवस के बीच केवल 30 मिनट का खाना खाने के लिए ब्रेक मिलता है। बर्बरता-अमानवीयता-असंवेदनशीलता जैसे शब्द कारख़ानों की हालत बयान करने में छोटे साबित हो चुके हैं। मज़दूरों के भीतर फ़ैक्ट्री प्रबंधन का ख़ौफ़ इस क़दर है कि गाली या बदतमीज़ी का सामना न करना पड़े, इसलिए 30 मिनट के बाद पहले सेकेण्ड तक मज़दूर अपने काम पर वापस पहुँच जाते हैं।
सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र में कुल मज़दूर आबादी का लगभग 40 से 50 प्रतिशत स्त्री मज़दूर हैं। स्त्री मज़दूरों की मज़दूरी पहले से ही कम थी लेकिन कोरोना महामारी के इस दौर में स्त्री मज़दूरों की मज़दूरी में और कटौती की गयी है। यहाँ के कई कारख़ानों में स्त्री मज़दूरों की मज़दूरी 10 घण्टे, 30 ड्यूटी के पाँच से छह हज़ार है। इस तरह से जहाँ एक तरफ़ मेहनतकश आबादी कोरोना से जूझ रही वहीं दूसरी तरफ़ सरकार और पूँजीपति मिलकर मज़दूरों को गुलामी के नर्क में धकेलने में लगे हुए हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए मज़दूरों को अपनी एकजूटता बनानी पड़ेगी।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-सितम्बर 2020


 

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