सावधान! राज्यसत्ता आपके जीवन के हर पहलू पर नज़र रख रही है!
रूपा
हाल के वर्षों में देश की सुरक्षा और आतंकवाद के बहाने भारत की राज्यसत्ता देश के हर नागरिक की निजता को तार-तार कर रही है। लोगों में आतंकवाद और आन्तरिक सुरक्षा पर ख़तरे का भय पैदा करके वास्तव में सरकार लोगों की निजता पर हमला बोल रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत निजता का अधिकार हमारा मूलभूत अधिकार है और उसकी रक्षा करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। लेकिन हुक्मरानों को हमेशा से जनता का भय सताता रहा है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तब उसे भी भय सता रहा था। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 में सबसे पहले कांग्रेस ने संशोधन किये। कांग्रेस सरकार ने सुरक्षा की दृष्टि से कुछ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को फ़ोन कॉल्स, मोबाइल डेटा या कम्प्यूटर डेटा के ज़रिये किसी भी नागरिक की जासूसी करने की ताक़त दे दी थी। लेकिन भाजपा सरकार ने तो 10 एजेंसियों को इसकी खुली छूट दे दी है। पहले ये सब काम गृह मंत्रालय के अधीन था लेकिन अब इसे दस एजेंसियों के हवाले कर दिया गया है।
ब्रिटिश राज के समय सरकार को ये भय था कि कहीं भारत में उसकी चूलें न हिल जायें। उस समय ब्रिटिश सरकार ने 1885 में भारत में लोगों की जासूसी करने के लिए भारतीय टेलीग्राफ़ अधिनियम पारित करवाया था। इसके सेक्शन 5 के अनुसार आपातकालीन परिस्थिति में सार्वजनिक सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकार नागरिकों के बीच की निजी बातचीत भी खंगाल सकती है।
भारतीय टेलीग्राफ़ अधिनियम 1885 के तहत केन्द्र सरकार या राज्य सरकार को आपातकाल या लोक-सुरक्षा के हित में फ़ोन सन्देश को प्रतिबन्धित करने एवं उसे टेप करने तथा उसकी निगरानी का अधिकार हासिल था। भारतीय टेलीग्राफ़ (संशोधन) नियमों के नियम 419 एवं 419 ए में टेलीफ़ोन सन्देशों की निगरानी एवं पाबन्दी लगाने की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इसके तहत केवल सरकारी एजेंसियों को ही यह अधिकार हासिल है कि वह गृह मंत्रालय से पूर्व इजाज़़त लेकर किसी भी व्यक्ति का फ़ोन टेप कर सकती हैं।
हालाँकि वित्त मंत्रालय एवं सीबीआई को यह अधिकार है कि वो बिना गृह मंत्रालय के इजाज़त के भी किसी व्यक्ति की फ़ोन कॉल 72 घण्टे तक टेप कर सकती है।
यही नहीं सेन्ट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम के अस्तित्व में आने से न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश को बिल्कुल ही ख़ारिज कर दिया है। यह एक डेटा संग्रह प्रणाली है जिसका संचालन भारत सरकार द्वारा किया जाता है। इसे भारतीय संसद में 2012 में प्रस्तावित किया गया है तथा इसने अप्रैल 2013 से काम करना शुरू कर दिया। इसे अमेरिकी सरकार के विवादास्पद प्रोग्राम ‘प्रिज़्म’ की तरह लोगों के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने वाला बताया जा रहा है। यह भारत सरकार को फ़ोन पर हो रही बातचीत पढ़ने, फ़ेसबुक ट्विटर या लिंक्डइन के पोस्ट पर निगरानी रखने और गूगल की खोजों पर नज़र रखने में मदद करता है।
दिसम्बर 2008 में यूपीए सरकार ने सुरक्षा एजेंसियों को किसी व्यक्ति की जासूसी करने का असीमित अधिकार भी दे दिया। इसी तरह 20 दिसम्बर 2018 को गृह मंत्रालय के आदेश के अनुसार सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2002 की धारा 69 के उपखण्ड 1 और सूचना प्रौद्योगिकी नियमावली 2009 के नियम 4 की शक्तियों का उपयोग निम्नलिखित सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियाँ कर सकती हैं और उनके डेटा का खुलासा कर सकती हैं। इसके लिए दस एजेंसियाँ अधिकृत की गयी हैं – इन्टेलीजेन्स ब्यूरो, नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टैक्सेज़, डायरेक्टोरेट ऑफ़ रेवेन्यू इन्टेलीजेन्स, सीबीआई, नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी, कैबिनेट सचिवालय, रॉ, डायरेक्टोरेट ऑफ़ सिग्नल इन्टेलिजेन्स और कमिश्नर ऑफ़ दिल्ली पुलिस। पहले केवल गृह मंत्रालय टेलीफ़ोन कॉल ट्रेस कर सकता था लेकिन अब आपके कम्प्यूटर में जो कुछ भी है, जो कुछ भी उससे भेजा गया है, जो कुछ भी कम्प्यूटर में स्टोर है या मिटाया जा चुका है, उसे इन्टरसेप्ट करने की एजेंसियों को खुली छूट है। नये क़ानून के मुताबिक़ सब्सक्राइबर, सर्विस प्रोवाइडर, या कोई भी व्यक्ति जिसके पास कम्प्यूटर है उसे एजेंसियों को सारी जानकारी देनी होगी और न देने पर सात साल की जेल हो सकती है।
हाल के वर्षों में पुलिस बलों ने नियमित रूप से फ़िंगरप्रिण्ट और चेहरे पहचानने के सॉफ़्टवेयर का प्रयोग शुरू कर दिया है। हाल ही में सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शनों के दौरान मनमाने ढंग से लोगों की जासूसी और निगरानी की गयी। दिल्ली पुलिस ने चेहरे पहचान करने वाले सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल किया। चेन्नई में प्रदर्शनों पर निगरानी रखने के लिए ड्रोनों का इस्तेमाल किया गया। हैदराबाद में पुलिस ने पैदल यात्रियों को रोककर उनके अतीत की आपराधिक गतिविधियों की जाँच करने के लिए फ़िंगरप्रिंट का इस्तेमाल किया।
इस तरह देखा जाये तो भारत में हर नागरिक की निजता पर ख़तरे की तलवार लटक रही है। सरकार हर तरह से निगरानी रखने का काम कर रही है। इस प्रकार वह अपने ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को उठने से पहले ही दबा देने का काम कर रही है। कहने को तो संविधान में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी है लेकिन उस आज़ादी की असलियत अब हमारे सामने है। आप सच बोलकर देखिए आपके मुँह पर ताले जड़ दिये जायेंगे या फिर आप पर ग़लत तरीक़े से आरोप लगाकर आपका समाज में निकलना दूभर हो जायेगा।
अभी बहुत पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है, आज फ़ोन कॉल, फ़ोटो, फ़ेसबुक पोस्ट और फ़ेसबुक वीडियो के आधार पर बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ़्तार किया जा रहा है, यहाँ तक कि फ़ेसबुक पोस्ट डालने की वजह से किसी व्यक्ति की मॉब लिंचिंग कर दी जाती है।
निगरानी अधिनियमों को ढीला करके भाजपा सरकार ने पूरे देश को एक निगरानी राज्य के अधीन कर दिया है, जहाँ कोई व्यक्ति सरकार के ख़िलाफ़ या व्यवस्था के ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं बोल सकता है, जबकि दूसरी तरफ़ भाजपा ने लाखों आईटी सेल खोल रखे हैं, जो बड़े पैमाने पर झूठ फैला रहे हैं, गन्दे ट्वीट्स कर रहे हैं, पूरे देश में नफ़रत के बीज बोने का काम कर रहे हैं।
अभी दिल्ली के दंगों में भाजपा के कपिल मिश्रा के एक ज़हरीले भाषण से उकसावा मिला जिसे आईटी सेल ने बड़े पैमाने पर वायरल किया। यह सोचने वाली बात है कि ऐसे भड़काऊ भाषण सुरक्षा एजेसियों की नज़र में क्यों नहीं आते और क्यों नहीं ऐसे भाषण देने वालों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई होती है। दूसरी ओर लखनऊ में सीएए का विरोध कर रहे लोगों की होर्डिंग लगाकर उनको सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है और उनके ख़िलाफ़ हमले को उकसाया जाता है। एक बात साफ़ है कि मोदी सरकार लोगों के दिमाग़ों पर, उनकी ज़िन्दगी पर पूरी तरह क़ब्ज़ा करना चाहती है। वो भारत को एक ऐसा देश बना देना चाहती है जहाँ उसके ख़िलाफ़ एक भी आवाज़ बाहर न आने पाये। जहाँ लोग उसके हिसाब से सोचें ताकि नफ़रत के बीज बोकर देश को बाँटने और हिन्दू राष्ट्र बनाने के एजेण्डा को गति मिल सके।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2020
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