कश्मीर में 7 महीने से जारी पाबन्दियों से जनजीवन तबाह
– अनिता
कश्मीर घाटी में पूर्ण नाकेबन्दी के सात महीने पूरे हो गये हैं। 70 लाख की आबादी वाली कश्मीर घाटी में पिछले 7 महीनों में जो तबाही हुई है उसका अन्दाज़ा दूर से लगाना बहुत मुश्किल है। अभी भी वहाँ इण्टरनेट और मोबाइल सेवाएँ पूरी तरह बहाल नहीं हुई हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाला भारत अब दुनिया में सबसे ज़्यादा लम्बे समय तक इण्टरनेट पर पाबन्दी लगाने वाला लोकतंत्र बन चुका है। 2G इण्टरनेट सेवा कुछ समय तक आंशिक रूप से बहाल हुई थी, लेकिन इस बहाली को भी 17 मार्च तक रोक दिया गया है। लोगों की शिकायत है कि मात्र 2G सेवा से कोई भी काम नहीं हो पायेगा। इण्टरनेट पर एक अरब से ज़्यादा वेबसाइट होने के बावजूद मात्र चौदह हज़ार वेबसाइट को एक्सेस करने की अनुमति दी जा रही है। सोशल साइटों से लेकर अन्य सभी काम की वेबसाइटों पर प्रतिबन्ध से लोग हैरान हैं। लोग वीपीएन के ज़रिये कुछ दिनों तक इण्टरनेट इस्तेमाल कर पा रहे थे, लेकिन सरकार ने वीपीएन फ़ायरवाल के ज़रिये वो रास्ता बन्द कर दिया। ऐसी भी ख़बरें आयीं कि लोगों को वीपीएन के ज़रिये सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने पर गिरफ़्तार तक किया गया। इन सब घटनाओं से सरकार की मंशा ज़ाहिर होती है कि कैसे बिना कश्मीरी लोगों की फ़िक्र करे अपनी सत्ता थोपने पर उतारू है। कश्मीरी आवाम की ज़िन्दगी के हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर बनते जा रहे हैं। मोबाइल सेवाएँ भी अभी पूरी तरह बहाल नहीं हुई हैं।
इन सात महीने में कश्मीर में पाबन्दियों के दौरान वहाँ के अस्पतालों में तमाम मरीज़ों ने समय पर इलाज़ न हो पाने की वजह से दम तोड़ दिया क्योंकि डॉक्टर दवाओं और इलाज सम्बन्धी राय मशविरा के लिए इण्टरनेट पर निर्भर रहते हैं। तमाम कश्मीरी बच्चे स्कूल जाने को तरस गये और युवा अपने भविष्य के लिए रोज़गार और उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए कहीं बाहर आवेदन नहीं कर पाये। एक अनुमान के मुताबिक़ क़रीब एक लाख पचास हज़ार युवाओं को आई.टी. क्षेत्र से सम्बन्धित रोज़गार खोना पड़ा। विश्वविद्धालय के छात्र-छात्राओं और रिसर्च स्कॉलर्स को छात्रावृत्ति फ़ॉर्म भरवाने और रिसर्च करने के मार्ग ही बन्द हो गये हैं। पढ़ाई में ज़रूरी सूचना के अभाव में विद्धार्थियों की परिक्षा प्रभावित हुई। पत्रकारों के पास करने को कुछ काम नहीं रहा तो वे अपना पेट भरने के लिए दिहाड़ी मज़दूरी करने को मजबूर हो गये। अच्छे दिन और विकास के नारे देनेवाली भाजपा सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाने के निर्णय के बाद कश्मीर में मात्र आई.टी. क्षेत्र में 450 से 500 करोड़ की क्षति हुई। और कश्मीरी चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स के अनुसार नाकेबन्दी की वजह से कश्मीर की अर्थव्यवस्था में पाँच महीने में 1.78 लाख करोड़ की क्षति हुई।
कश्मीर को महज़ ज़मीन का एक टुकड़ा समझने वाली केन्द्र सरकार के लिए यह तथ्य कोई मायने नहीं रखता कि कश्मीर के हर एक इन्सान के लिए एक-एक पल कितना यातनाप्रद और ख़ौफ़नाक है। कश्मीरी अर्थव्यवस्था की नींव पर्यटन उद्योग बर्बादी के कगार पर खड़ा है क्योंकि पिछले सात महीने में वहाँ पर्यटकों का आना बिल्कुल बन्द हो गया है। तमाम होटल, हाउस बोट और बाज़ार ख़ाली पड़े हैं। होटल कर्मियों, टूरिस्ट गाइड, हस्तशिल्पियों और कारीगरों का गुजरबसर करना मुश्किल हो गया है। सेब से होनेवाली आय में भी भारी गिरावट आ रही है। जब सेब की फ़सल तैयार थी उसी समय भारी मात्रा में हुई सैनिक तैनाती के डर से लोग फ़सल को सुरक्षित नहीं कर पाये जिससे बहुत ज़्यादा नुक़सान हुआ। इसी तरह अखरोट की फ़सल भी प्रभावित हुई। इण्टरनेट की पाबन्दी के चलते आई.टी. उद्योग पूरी तरह तबाह हो गया। ईकॉर्मस के ज़रिये छोटे व्यवसाय कर रहे तमाम लोगों के सामने वजूद का संकट पैदा हो गया।
कहने को तो कश्मीर घाटी में सुरक्षा के मद्देनज़र 7 लाख सैनिक तैनात हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था के ठप हो जाने की वजह से वहाँ लोगों की ज़िन्दगी पहले से ज़्यादा असुरक्षित होती जा रही है। तमाम लोग इन अभाव और भय की माहौल की वजह से अवसाद और मानसिक रोगों के शिकार हो रहे हैं। कई लाख लोग बेरोज़गार बन गये जिनको रोज़ी-रोटी के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। केवल कश्मीरी ही नहीं, कश्मीर घाटी में यूपी-बिहार से गये लाखों मज़दूर वापस लौटने को बाध्य हो गये। उनकी भी रोज़ी-रोटी छिन गयी। ग़रीब और मेहनतकश कश्मीरी और रोज़गार के सिलसिले में कश्मीर में मौजूद हरेक इन्सान का जीवन तबाह हो रहा है। इस दौरान 2000 से अधिक लोगों को गिरफ़्तार करके डिटेन्शन सेन्टर में डाला गया और तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित लगभग सभी प्रमुख कश्मीरी नेताओं को गिरफ़्तार या नज़रबन्द किया गया है। कश्मीर के हालात इतने ख़राब हो चुके हैं कि वहाँ चुनाव आयोग पंचायत के बाई-इलेक्शन तक नहीं करवा पा रहा है।
अन्तरराष्टीय स्तर पर अब तक भारत कश्मीर को अपना आन्तरिक मसला कहकर बहस से बचता आया है। लेकिन कश्मीर की अभूतपूर्व नाकेबन्दी के बाद भारत सरकार के निरंकुश क़दम के ख़िलाफ़ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी आवाज़ें उठने लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में कश्मीर मसले पर दो बार बहस हो चुकी है। इसी तरह अमेरिका की संसद में भी सरकार के निर्णय का विरोध किया गया। सरकार कश्मीर में सबकुछ सामान्य होने का कितना भी दावा करे लेकिन उसकी ख़ुद की कारगुज़ारियाँ चीख़-चीख़कर कश्मीर के दर्दनाक हालात बयान कर रही हैं। घाटी में सुरक्षा बलों और केन्द्र सरकार की ज़्यादती के साथ ही कश्मीरी आवाम में भारत से अलगाव की भावना भी बढ़ती चली आ रही है। इतने लम्बे समय तक इण्टरनेट और मोबाइल पर पाबन्दी लगाने के पीछे सरकार की मंशा यह है कि इससे आज़़ादी के विचार फैलना थम जायेंगे क्योंकि ये विचार सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप के ज़रिये लोगों के बीच तेज़ी से फैल रहे थे। लेकिन विचार रोकने के इस निरंकुश तरीक़े से लोगों के अन्दर पहले से भी ज़्यादा नाराज़गी और ग़ुस्सा पल रहा है। प्रचार किया जा रहा है कि अब कश्मीर पूर्णतः भारत के अधीन आ गया, लेकिन सच्चाई तो यह है कि कश्मीरियों का भारत से अलगाव पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ गया है और उन्हें भारत से जोड़ने के सभी रास्ते सरकार ख़ुद ही बन्द कर रही है। सरकार कितना भी दावा कर ले, कश्मीर में हालात तब तक सामान्य नहीं हो पायेंगे जब तक कि कश्मीरी जनता को सुना और समझा नहीं जायेगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2020
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