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दिल्ली की शाहाबाद डेयरी बस्ती में एक और बच्ची की निर्मम हत्या
बच्चों और स्त्रियों को बचाने के लिए चौकसी दस्ते बनाओ
मज़दूर बिगुल संवाददाता
तमाम विरोध-प्रदर्शनों, पुलिस की तथाकथित चौकसी और मीडिया में लगातार खबरें आने के बावजूद देशभर में बच्चियों और स्त्रियों के प्रति वहशियाना घटनाओं में कमी नहीं आ रही है। बल्कि, ऐसा प्रतीत होता है कि बीमार मानसिकता से ग्रस्त इन वहशियों की हिम्मत दिन-ब-दिन और बढ़ती जा रही है। ऐसी ही एक जघन्य घटना बीती जुलाई में बाहरी दिल्ली के शाहाबाद डेयरी इलाके में हुई जहाँ एक छह वर्षीय बच्ची की छाती पर किसी भारी चीज से लगातार वार करके उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी। मां-बाप एफआईआर दर्ज कराने के लिए थाने के चक्कर काटते रहे, लेकिन तब तक प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई जब तक कि स्थानीय लोगों और सामाजिक संगठनों ने थाने पर हंगामा नहीं किया। जाँच भी लंबे समय तक टाली जाती रही, और बाद में जाँच का दबाव बढ़ने पर एक आरोपी लड़के को पकड़ा भी तो उसके परिवार वालों और इलाके के दबंग लोगों के दबाव में उसे छोड़ दिया गया।
बीती 13 जुलाई को शाहाबाद डेयरी के मो. रहीस की बच्ची पास के एक खाली मकान के बाथरूम में खून से लथपथ हालत में मिली। उसे अस्पताल भर्ती कराया गया जहाँ अगले दिन उसने दम तोड़ दिया। पाँच दिन तक तो पुलिस ने मामले में प्राथमिकी दर्ज ही नहीं, और परिवार वालों और सामाजिक संगठनों ने थाने पर हंगामा किया तो प्राथमिकी दर्ज की गयी। 30 जुलाई को एक आरोपी लड़के को पकड़ा गया, लेकिन लड़के के परिवार वालों और इलाके के दबंगो के दबाव में उसे छोड़ दिया गया। बाद उस लड़के के रिश्तेदारों ने रहीस और उनकी पत्नी को डरा-धमकाकर एक सादे कागज पर दस्तखत करा लिए और अंगूठे की छाप ले ली। रहीस का कहना है कि वे उन पर समझौता करने और लड़के को बेगुनाह बताने का बयान देने के लिए दबाव डाल रहे थे। अब जाँच उसी कछुआ रफ़्तार से चल रही है और बच्ची के मां-बाप ने आशंका जतायी है कि धीरे-धीरे इस पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।
लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे अपराध समाज में हो ही क्यों रहे हैं। इस समाज में स्त्रियां और बच्चियां महफ़ूज क्यों नहीं हैं। दरअसल, 1990 के बाद से देश में उदारीकरण की जो हवा बह रही है, उसमें बीमार होती मनुष्यता की बदबू भी समायी हुई है। पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है और इस व्यवस्था की कचरा संस्कृति से पैदा होने वाले जानवरों में इस ‘माल’ के उपभोग की हवस भर दी है। सदियों से हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता इसे हवा दे रही है, जो औरतों को उपभोग का सामान और बच्चा पैदा करने की मशीन मानती है, और पल-पल औरत विरोधी सोच को जन्म देती है। और ’90 के बाद लागू हुई आर्थिक नीतियों ने देश में अमीरी-ग़रीबी के बीच की खाई को अधिक चौड़ा किया है, जिससे पैसे वालों पर पैसे का नशा और ग़रीबों में हताशा-निराशा, अपराध हावी हो रहा है।
यूं तो स्त्री विरोधी अपराधों में धनपशु बड़ी संख्या में लिप्त होते हैं, लेकिन उनकी अय्याशियां और अपराध पाँच सितारा होटलों के झीनों परदों के पीछे छिपे रहते हैं, या पैसे के बूत वे अपने कुकर्मों को दबा देते हैं। गुड़गाँव में चलती कार में युवती के साथ बलात्कार की हालिया घटना या अन्य ऐसे कुकृत्यों के बहुत कम ही मामले प्रकाश में आते हैं। ज्यादातर मामलों में तो वे अपने रसूख से मामलों को दबा देते हैं और पुलिस भी उन्हीं का पक्ष लेती है। और यह कोई नई बात नहीं है।
लेकिन हमें भूलना नहीं होगा कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में मायूसी तंगहाली में दिन काट रही ग़रीबों-मेहनतकशों की आबादी का एक छोटा सा हिस्सा भी लम्पटीकरण की चपेट में आ रहा है। मौजूदा हालात ऐसे हैं कि ग़रीबों के कुछ बेटे इसे बदलने के बारे में, विद्रोह के बारे में सोच रहे हैं, नया रास्ता तलाश रहे हैं, तो कुछ तत्व मायूसी और अवसाद के चलते नशे की शरण में जा रहे हैं। इन्हीं में एक छोटा हिस्सा ऐसा भी है जो इससे भी आगे बढ़कर, अपराधी और लम्पट बन रहा है। ऐसे ही अपराधी-लम्पट हाल में बच्चियों और स्त्रियों के खिलाफ बर्बर अपराधों में शामिल रहे हैं। और ये तत्व मज़दूर बस्तियों तक में पाए जाते हैं। बस्तियों में शराब के वैध-अवैध अड्डे, मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर अश्लील क्लिपिंग डाउनलोड करने के अड्डे इन तत्वों में मानवद्रोही-वहशी संस्कृति को खाद-पानी देने का काम करते हैं। जहाँ तक पुलिस का सवाल है, तो पाँच-छह साल की बच्चियों तक से ये गैर-इंसानी वारदातें पुलिस की नाक के नीचे होती हैं। एक जगह तो बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने गयी लड़की से पुलिस ने दोबारा बलात्कार किया। गांधीनगर में बच्ची के साथ वहशी हरकत की रिपोर्ट लिखाने गए मां-बाप को पुलिस ने दो हजार रुपए देकर मुंह बन्द रखने की सलाह दी।
ऐसे में, हमें शाहाबाद डेयरी में छह वर्षीय मुस्कान की हत्या को भी इसी नजरिए से देखना होगा। मामला सिर्फ इस या उस घटना का नहीं है। सवाल तो उस समाज को बदलने का है जहाँ ये घटनाएं हो रही हैं। और इसके लिए अब आम जनता को ही आगे आना होगा। नेताओं-नौकरशाहों और पुलिस के भरोसे अब और नहीं बैठा जा सकता। जनता को अपने खुद के चौकसी दस्ते बनाने होंगे। ऐसे अपराधियों और उनके अड्डों को ध्वस्त करना होगा और इन्हें बढ़ावा देने वाले नशे के अड्डों और मोबाइल में अश्लील वीडियो डाउनलोड करने की दुकानों को भी नेस्तानाबूद करना होगा। लड़ाई लंबी है, लेकिन शुरुआत तो करनी ही होगी।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2013
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