जनता के मिज़ाज को भाँपने में फ़ासिस्ट सत्ता बुरी तरह नाकाम!
लोगों को बाँटने की फ़ासिस्ट साज़ि‍श के देशव्यापी प्रतिरोध को संगठित स्वरूप और दिशा देने की ज़रूरत

कहते हैं, जहाँ दमन है, वहाँ प्रतिरोध भी होगा! पिछले साढ़े पाँच वर्षों के दौरान मोदी सरकार और भगवा गिरोह ने देश की जनता के विरुद्ध जो चौतरफ़ा युद्ध छेड़ रखा था, उसके विरुद्ध इस देश के मेहनतकशों और नौजवानों ने लड़ना तो कभी बन्द नहीं किया था, लेकिन इस बार पूरे देश के लोगों के सब्र का प्याला छलक चुका है। भागवत, मोदी और शाह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि पाँच साल तक लगातार हिन्दू-मुस्लिम-पाकिस्तान के नाम पर ज़हर फैलाने के बाद भी उन्हें इस मुद्दे पर लोगों के ऐसे एकजुट विरोध का सामना करना पड़ेगा। उनको लगा था कि यह तो ऐसा मुद्दा है जिस पर लोगों को धर्म की बिना पर आसानी से बाँटकर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है। मगर जनता से कटे शासक, और सबसे बढ़कर फ़ासिस्ट अक्सर ही जनता के मिज़ाज को भाँपने में बुरी तरह नाकाम रहते हैं। ऐसा ही इस बार भी हुआ है।

उनकी सारी उम्मीदों को धता बताते हुए, बर्बर पुलिसिया दमन के बावजूद जनान्दोलन समाज में और गहराई तक पैठ गया है। देश के महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों-क़स्बों तक से लगातार ज़ोरदार विरोध-प्रदर्शनों की ख़बरें आ रही हैं।

बदहवास फ़ासिस्ट सत्ताधारी एक और तो टीवी चैनलों और रैलियों में तरह-तरह की सफ़ाइयाँ दे रहे हैं, दूसरी तरफ़ दमन-चक्र तेज़ कर दिया गया है। इसमें योगी और येदियुरप्पा की सरकारें सबसे आगे हैं। बिहार के औरंगाबाद में भी पुलिस और संघी गुण्डों ने मुसलमानों पर ख़ूनी हमले किये। उत्तर प्रदेश में योगी की “बदला लेने” की धमकी पर अमल करते हुए पुलिस ने आरएसएस के एजेण्ट की तरह काम करते हुए अनेक शहरों में दमन का जो ताण्डव मचाया उसने हैवानियत के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। पुलिस की गोलियों से कम से कम 20 लोग मारे गये और हज़ारों लोग गिरफ़्तार किये गये हैं। घायलों की संख्या सैकड़ों में हो सकती है। फ़र्ज़ी मुक़दमों और गिरफ़्तारियों का सिलसिला जारी है। लेकिन ये दमनात्मक कार्रवाइयाँ जन-प्रतिरोध की आग में घी डालने का ही काम कर रही हैं। दमन से ऐसे आन्दोलनों को कत्तई दबाया नहीं जा सकता।

टीवी चैनलों और भाजपा के पूरा ज़ोर लगाने के बावजूद आन्दोलन को ‘हिन्दू-मुस्लिम’ करके बाँटने की हर कोशिश अबतक नाकाम हुई है। कई शहरों में सड़कों पर उतरने वालों में मुस्लिमों से बड़ी संख्या हिन्दुओं की रही है। महानगरों में सड़कों पर भारी संख्या छात्रों-युवाओं की नज़र आ रही थी, पर अब छोटे-छोटे शहरों में भी बहुसंख्यक आम नागरिक सड़कों पर दीख रहे हैं। लगभग हर जगह आन्दोलन की सबसे जुझारू और मुखर शक्ति स्त्रियाँ हैं। दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाक़े में 15 दिसम्बर से कड़कड़ाती ठण्ड में दिनो-रात जारी धरने की जान वही हैं। यह धरना अब इस आन्दोलन का एक प्रतीक स्थल बन गया है जो देशभर में लड़ रहे लोगों को ताक़त दे रहा है।

अब ज़रूरत इस बात की है कि इस आन्दोलन को व्यापक और देशव्यापी नागरिक अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह की शक्ल दी जाये। छात्रों को कक्षाओं और परीक्षाओं के सामूहिक बहिष्कार का रास्ता पकड़ना चाहिए। कर्मचारियों का दफ़्तरों के बहिष्कार के लिए आह्वान किया जाना चाहिए। मज़दूर यूनियनों पर दबाव बनाया जाना चाहिए कि वे एकदिनी रस्मी हड़ताल का रास्ता छोड़कर लम्बी हड़तालों और घेराव के रास्ते पर उतरें और आम मज़दूरों में व्यापक प्रचार अभियान चलाकर उन्हें बताया जाना चाहिए कि एनआरसी जैसी चीज़ आम ग़रीबों के सामने कितनी मुश्किलें पैदा कर देगी। अगर आन्दोलन के लिए मोहल्ला कमेटियाँ बन पातीं तो लोगों को इस बात के लिए तैयार किया जा सकता था कि हर शहर की किसी सड़क या कचहरी-कलक्ट्रेट जैसे किसी स्थल को चुनकर वे सपरिवार बोरिया-बिस्तर सहित वहीं डेरा डाल दें। जैसा शाहीन बाग़ में हो रहा है। इस बात का भी अध्ययन किया जाना चाहिए कि सांतियागो या हांगकांग जैसे शहरों में लाखों की तादाद में प्रदर्शनकारी अपने प्रदर्शनों को हफ़्तों और महीनों तक कैसे जारी रख पाते हैं।

यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त है और इसका कोई संगठित क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं है, इसलिए ये सारी चीज़ें कठिन ज़रूर हैं, लेकिन इसमें सक्रिय प्रबुद्ध लोग और क्रान्तिकारी शक्तियाँ अगर इस बात को समझें और प्रयास करें तो ऐसा होना असम्भव भी नहीं है। संघर्ष के ऐसे रूप व्यापक जन-पहलक़दमी जागृत करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होंगे। असफलता की चिन्ता किये बिना ऐसी कोशिशें ज़रूर की जानी चाहिए। अलग-अलग कोशिशें हो भी रही हैं।

गोरख पाण्डेय की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ हैं :
वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद,
पुलिस-फ़ौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना
बन्द कर देंगे।

पिछले पाँच वर्षों के दौरान मोदी सरकार और संघी गुण्डों ने देशभर में जो आतंक फैला रखा था, हर तरह के विरोध को कुचलने के लिए गिरफ़्तारियों, झूठे मुक़दमों, हत्याओं और मॉब लिंचिंग के ज़रिये जो डर का माहौल पैदा किया था, उसे इस आन्दोलन ने एक झटके में हवा में उड़ा दिया है। अब डरने की बारी फ़ासिस्टों की है। उनका डर दिख भी रहा है। लेकिन लोगों को ज़रा भी असावधान नहीं होना चाहिए, क्योंकि अपनी बौखलाहट में ये जनद्रोही किसी भी तरह की घृणित हरकत कर सकते हैं। जागते और जगाते रहना होगा, और अपनी एकजुटता में दरार डालने की हर कोशिश को नाकाम करते रहना होगा।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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