पुलिस पर फूलों की वर्षा करने से पहले ज़रा ठहरकर सोचें
पुलिस हमारी रक्षक है या इस लुटेरी व्यवस्था की रक्षा में तैनात दमन-उत्पीड़न का हथियार?
– रूपा
हैदराबाद में पिछले महीने जिस युवा स्त्री डॉक्टर के साथ दरिन्दगी हुई, उसके परिजन जब मदद के लिए पुलिस के पास गये तो 10 घण्टे तक पुलिस उन्हें यहाँ-वहाँ दौड़ाती रही। चारों ओर से हो रही थू-थू के बीच अचानक ख़बर आयी कि पुलिस ने घटना के चारों आरोपियों को मुठभेड़ में मार गिराया। पुलिस की बतायी कहानी साफ़ तौर पर फ़र्ज़ी एनकाउण्टर की ओर इशारा कर रही थी मगर फिर भी देश में मध्यवर्गीय सफ़ेदपोशों के साथ ही प्रगतिशील माने जाने वाले अनेक बुद्धिजीवी भी पुलिस की शान में क़सीदे पढ़ते हुए पाये गये। हद तो तब हो गयी जब पुलिस पर फूल बरसाये गये।
हालाँकि इसके कुछ ही दिन बाद भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर को अदालत ने बलात्कार का दोषी ठहरा दिया। लेकिन अब कोई नेता या टीवी चैनल यह माँग नहीं उठा रहा है कि इसे भी गोली से उड़ा दिया जाना चाहिए! ज़ाहिर है, कोई भी इंसाफ़पसन्द व्यक्ति न इस माँग का समर्थन करेगा और न ही हैदराबाद के एनकाउण्टर का। हैदराबाद में जो कुछ हुआ वह ऐसी घटनाओं पर भड़के लोगों के ग़ुस्से को शान्त करने और पूरे मामले की लीपापोती करने की एक बर्बर कोशिश ही थी। पुलिस के लिए ऐसा करना आसान था क्योंकि पकड़े गये लोग सामज के हाशिए के लोग थे, किसी रसूख़दार परिवार की औलादें नहीं थे।
न्यायपालिका की अँधेरगर्दी से त्रस्त होकर अब तमाम लोग पुलिसिया ‘त्वरित न्याय’ की वकालत करने लगे हैं। लेकिन ज़रा ठण्डे दिमाग़ से सोचने पर पुलिस के असली चरित्र को समझने में देर नहीं लगेगी।
कहने को तो पुलिस का काम समाज में क़ानून व्यवस्था बनाये रखना और लोगों की रक्षा करना है। लेकिन सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। ‘सुरक्षा आपकी, ज़िम्मेदारी हमारी’ जैसे नारे सुनने में तो ख़ूब लुभावने लगते हैं। लेकिन हाल ही की एक घटना (जिसका ज़िक्र बहुत कम हुआ) कुछ और ही बयान करती है। उत्तर प्रदेश के हापुड़ में प्रदीप नाम के नौजवान को एक महिला की हत्या के मामले की पूछताछ के लिए पुलिस ने थाने में बुलाया और उसकी बेदर्दी से पाँच घण्टे तक पिटाई की जिससे उसकी मौत हो गयी। ऐसे प्रदीप जैसे लोग हमारे समाज में अक्सर ही पुलिस के दमनीय रवैये के चलते मरते रहते हैं और यातनाएँ सहते रहते हैं। लेकिन उन घटनाओं का ज़िक्र कम ही होता है या अधिकतर नहीं ही होता है। वर्ष 2017 में गुजरात के साबरकांठा ज़िले में 60 वर्षीय कोदर को कथित बैलहत्या के एक मामले में गिरफ़्तार किया गया, जिसकी पुलिस हिरासत में मौत हो गयी।
छात्र-युवा आन्दोलनों एवं मज़दूरों के आन्दोलनों को बर्बरता से कुचलने का पुलिस को ख़ास प्रशिक्षण दिया जाता है। हाल ही में जेएनयू में फ़ीस बढ़ोतरी को लेकर छात्रों के आन्दोलन का दिल्ली पुलिस ने बर्बरता से दमन किया। पुलिस की मार से सैकड़ों छात्र-छात्राएँ बुरी तरह से घायल हो गये। पटना के बीएन कॉलेज में एक छात्रा के गैंगरेप के विरोध में उतरे छात्र-छात्राओं को पुलिस ने बुरी तरह पीटा और उन्हें हवालात में बन्द कर दिया, जैसे कि वही दोषी हों। देशभ्र में नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में छात्रों, नौजवानों, महिलाओं के विरोध-प्रदर्शनों पर जिस तरह पुलिस कहर बरपा कर रही है क्या उसमें कहीं से भी पुलिस का रक्षक चेहरा दिखायी देता है? दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पुलिस ने जो आतंक फैलाया क्या वह लोगों की रक्षा के मक़सद से था? जिस बर्बरता से पुलिस ने होण्डा और मारूति सहित मज़दूरों के अनगिनत आन्दोलनों को कुचला, क्या उनमें कहीं भी पुलिस का मानवीय चेहरा किसी को नज़र आता है? जिस तरीक़े से इस देश के मुस्लिमों, दलितों और आदिवासियों पर किसी न किसी बहाने से पुलिस का डण्डा बरसता है क्या पुलिस किसी भी रूप में रक्षक नज़र आती है?
गिनाने को सैकड़ों नहीं हज़ारों घटनाएँ गिनायी जा सकती हैं, जिनमें पुलिस का रक्षक चेहरा बेनक़ाब हो जाता है और फिर पुलिस का जो चेहरा सामने आता है वह रक्षक का नहीं भक्षक का होता है। इस चेहरे को देखने के बाद पता चलता है कि पुलिस का काम कुछ और ही है। वह एक तरफ़ ग़रीबों, मज़लूमों को क़ानून का भय दिखाकर उनसे पैसा ऐंठती है, वहीं दूसरी तरफ़ पैसे वालों के फेंके गये रुपयों-पैसों को उठाकर उनके इशारों पर नाचने का काम भी करती है। जब देश की जनता रोज़ी-रोटी के सवाल पर सड़कों पर उतरती है, तब डण्डे के दम पर जनता की आवाज़ को दबाने के लिए सबसे पहले पुलिस ही आती है। मज़दूर आन्दोलनों को बर्बरता के साथ कुचलना, जनता के अधिकारों की रक्षा की जगह उनका हनन करना यह सब पुलिस का रोज़मर्रे का काम है। वैसे तो आतंकवादी गतिविधियों को रोकना पुलिस का काम बताया जाता है, लेकिन जब पुलिस ख़ुद ही आतंक का राज्य क़ायम करे तो उसे क्या कहा जा सकता है?
भारत में पुलिस का ढाँचा औपनिवेशिक क़ानून पर आधारित है। एक बात ग़ौर करने की है कि अंग्रेज़ी राज में लोगों को प्रताड़ित करने, तरह-तरह से यातना देने, थर्ड डिग्री टॉर्चर के ज़रिये लोगों को टॉर्चर करने के तमाम दमनकारी क़ानून लागू थे जो आज भी लागू हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि ऐसे क़ानून अब तक हटाये क्यों नहीं गये। क्या सरकार को अब भी इन क़ानूनों के सहारे की ज़रूरत है। अंग्रेज़ों के लिए भारत देश की जनता आतंकवादी थी, लेकिन क्या भारत सरकार के लिए भी भारत की जनता आतंकवादी है?
पुलिसवालों को जनता के सेवक के रूप में पेश आने का प्रशिक्षण मिलने की बजाय उन्हें जनता पर हमला करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। देश में ब्रिटिश शासन के ख़त्म होने के सात दशक बाद भी पुलिस प्रणाली जस-की-तस बनी हुई है। पुलिस में 85 फ़ीसदी कर्मचारी कान्स्टेबल हैं जबकि आपराधिक शिकायतों की जाँच के लिए उन्हें उचित प्रशिक्षण तक नहीं मिलता है। हक़ीक़त तो यह है कि पुलिसवालों का प्रशिक्षण और उनके काम की स्थितियाँ उनकी मानसिकता को मानवद्रोही, बीमार और हिंसक बना देती हैं। ऐसे में जनता उनके लिए शिकार होती है और वे हिंसक शिकारी!
सरकारी आँकड़े बताते हैं कि पुलिस की बर्बरता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। ‘एशियाविल’ की एक रिपोर्ट के अनुसार केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने लोकसभा में लिखित जवाब में बताया कि 2016 से लेकर 2018 के दौरान हर साल पुलिस कस्टडी में टॉर्चर के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। ये वो आँकड़े हैं जिन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पुलिस के ख़िलाफ़ लगे आरोपों के बाद सच पाया। हिरासत में पुलिस बर्बरता के ख़िलाफ़ 2016 में देशभर में कुल 429 मामले दर्ज हुए, 2017 में ये संख्या बढ़कर 520 और 2018 में 541 तक पहुँच गयी।
मानवाधिकार आयोग द्वारा संज्ञान लेने के बावजूद पुलिस के मंसूबों में कमी नहीं आयी। अलबत्ता पुलिस और ज़्यादा बेलगाम हो गयी। सरकारी आँकड़ों में बड़े राज्यों की पुलिस का क्रूर चेहरा सामने आता है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा की पुलिस इस मामले में सबसे बदतर है। 2018 में पुलिस हिरासत में हुई कुल 541 यातनाओं में से अकेले उत्तर प्रदेश में 269 मामले दर्ज हुए. इसके बाद दिल्ली में 51, हरियाणा में 39, बिहार में 30, राजस्थान में 24 और ओडिशा में 18 मामले दर्ज हुए। इनमें से हर राज्य की लगभग ऐसी ही कहानी है। 2018 में उत्तराखण्ड में टॉर्चर के मामलों में दोगुनी बढ़ोत्तरी देखने को मिली। 2017 में यहाँ 8 ऐसे मामले सामने आये थे, लेकिन 2018 में यह संख्या बढ़कर 16 हो गयी।
लेकिन इन मामलों में पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। आँकड़े बताते हैं कि 2016 से लेकर 2018 के दौरान देश में पुलिसिया यातनाओं के कुल 1,490 मामले सामने आये, लेकिन इन मामलों में से सिर्फ़ 9 में पीड़ितों को मुआवज़ा मिला। सरकार ने इन तीन वर्षों में पुलिसिया टॉर्चर के शिकार पीड़ितों को मात्र 11 लाख 60 रुपये की मदद दी। उत्तर प्रदेश में पाँच मामलों में सबसे ज़्यादा 7 लाख 75 हज़ार रुपये का मुआवज़ा दिया गया, दिल्ली में 2 मामलों में 60 हज़ार रुपये का, मध्य प्रदेश में एक मामले में 3 लाख रुपये का और राजस्थान में एक मामले में 25 हज़ार रुपये का मुआवज़ा मिला। यानी सिर्फ़ चार राज्यों में ही पीड़ितों को सरकार ने मदद पहुँचायी, वह भी नाम मात्र की।
सबसे ज़्यादा हैरत की बात यह है कि इन 1,490 मामलों में सरकार ने सिर्फ़ एक पुलिस कर्मी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की। यह कार्रवाई राजस्थान में हुई। राजस्थान में इन तीन वर्षों में कुल 95 मामले सामने आये। बाक़ी किसी भी राज्य में किसी भी पुलिसकर्मी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई।
मानवाधिकार संस्था ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2010 से 2015 के बीच भारत में पुलिस हिरासत में तक़रीबन 600 लोगों की मौत हुई है, लेकिन किसी भी मामले में किसी पुलिसकर्मी को कोई सज़ा नहीं मिली। 114 पन्नों की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों का कारण अक्सर बीमारी, भागने की कोशिश, ख़ुदकुशी और दुर्घटना बताती है।
इस रिपोर्ट में सरकारी आँकड़ों के हवाले से दावा किया गया है कि 2015 में पुलिस हिरासत में हुई 97 मौतों में से 67 में पुलिस ने या तो सन्दिग्ध को 24 घण्टे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश ही नहीं किया या फिर सन्दिग्ध की गिरफ़्तारी के 24 घण्टे के भीतर ही मौत हो गयी।
जीवन की स्वतंत्रता ऐसा मूलभूत अधिकार है जिससे किसी को भी वंचित नहीं किया जा सकता। संविधान के अनुसार भी कोई नागरिक जीवन जीने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े कहे जाने वाले लोकतंत्र में आये दिन पुलिस ख़ुद ही लोगों के इस अधिकार का उल्लंघन करती है। ख़ासकर ग़रीबों, मज़दूरों, अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति तो पुलिस का बर्ताव निहायत ही अमानवीय होता है। चूँकि पूँजीवादी समाज में पुलिस का मुख्य काम पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को क़ायम रखना है, इसलिए पुलिस के इस अमानवीय बर्ताव को समझा जा सकता है। दरअसल पुलिस पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों की रक्षक है और उसके लिए हर वह व्यक्ति सम्भावित अपराधी है जो इन उत्पादन सम्बन्धों की वजह से पिस रहा है और उसके ख़िलाफ़ विद्रोह कर सकता है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019
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