देशभर में होने जा रही 8 जनवरी की आम हड़ताल के प्रति हमारा नज़रिया क्या हो?

– सनी सिंह

केन्द्र सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ हर साल की तरह 2020 में भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने 8 जनवरी को एकदिवसीय हड़ताल का आह्वान किया है। ताज्जुब की बात यह है कि साल-दर- साल मज़दूरों पर हमलों की तीव्रता बढ़ाते हुए मोदी सरकार ने इस साल मज़दूरों का न्यूनतम वेतन कम करने का बिल संसद में पारित किया, पीएफ़ पर मालिकों द्वारा दिया जाने वाला फ़ण्ड कम किया, औद्योगिक निपटारा क़ानून को ख़त्म करने, हड़ताल करने को ग़ैरक़ानूनी बना देने का बिल संसद में पारित हुआ, परन्तु इस साल भी ये एक दिन की हड़ताल का ही आह्वान कर रहे हैं, जबकि पिछली बार इन्होंने दो दिन की हड़ताल का आह्वान किया था। आर्थिक मन्दी के नाम पर मोदी सरकार ने एक तरफ़ कॉरपोरेट घरानों को जमकर पैसे दिये हैं, वहीं दूसरी तरफ़ मज़दूरों की छँटनी और तालाबन्दी की घटनाओं में मज़दूरों के संघर्षों पर जमकर लाठियाँ चलवायी हैं। इसके बावजूद केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें महज़ एक दिवसीय रस्मी हड़ताल का आह्वान कर रही हैं।

क्या इस एकदिवसीय हड़ताल से सरकार किसी बिल को वापस लेगी? नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। इस बात की उम्मीद है कि सालाना त्योहार की तरह 8 जनवरी को औद्योगिक क्षेत्रों से लेकर सर्विस सेक्टर व यातायात विभाग में काम प्रभावित रहेगा। पिछले साल केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ही आकलन के अनुसार कुल मिलाकर 20 करोड़ मज़दूरों ने इस हड़ताल में भागीदारी की। देशभर में मज़दूरों को अपनी ताक़त का एहसास होगा, परन्तु इससे पहले कि इस ताक़त से कुछ ठोस नतीजा निकले, मज़दूरों को वापस फ़ैक्टरियों में जाना होगा और फिर से शोषण की चक्की में पहले की तरह अपना हाड़-माँस गलाना होगा।

तो हम क्या सिर्फ़ इस बात से सन्तोष कर लें कि हड़ताल में इतने मज़दूरों ने भागीदारी की और अपनी ताक़त दिखायी! क्या एक दिन मज़दूरों द्वारा फ़ैक्टरियों के गेट पर लाठी भाँजने से, कुछ जगह मालिकों और दलालों की पिटाई और एक बड़ी रैली निकाल लेने से मज़दूर वर्ग और मालिक वर्ग के बीच संघर्ष में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा?

पिछले साल हड़ताल के दौरान कई जगह लाठीचार्ज और गिरफ़्तारियाँ भी हुईं, लेकिन कहीं पर भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व ने इन गिरफ़्तारियों या मज़दूरों पर हुए लाठीचार्ज के ख़िलाफ़ इस हड़ताल को आगे बढ़ाने या किसी भी क़िस्म के ‘इण्डस्ट्रियल ऐक्शन’ का आह्वान नहीं किया था। इससे क्या नतीजा निकलता है? यही कि यह सब इसलिए ही होगा कि मज़दूर एक दिन अपनी भड़ास निकालें और व्यवस्था-विरोधी क़दम न उठायें और दूसरी तरफ़ तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन और उनकी आक़ा संसदमार्गी सामाजिक जनवादी पार्टी सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखें! हमें लगता है कि ये एक दिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है।

तो फिर इस हड़ताल के प्रति मज़दूरों का क्या रवैया होना चाहिए? हमारा मानना है कि हमें दो दिवसीय हड़ताल का बिना किसी आलोचना के समर्थन नहीं करना चाहिए और ना ही इससे दूर रहना चाहिए, बल्कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हड़ताल के इस्तेमाल को बेपर्दा करने के लिए हमें इसमें जमकर भागीदारी करनी चाहिए। इसमें भागीदारी करके हमें जहाँ भी सम्भव हो वहाँ पर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के हाथों से नेतृत्व को छीन लेना चाहिए क्योंकि हड़ताल सरीखे किसी भी एेक्शन में अगर ये संशोधनवादी नेता मज़दूरों को नेतृत्व देंगे तो यह मज़दूर आन्दोलन में भी मज़दूरों के नेतृत्व पर अपनी दावेदारी मज़बूत करते हैं। ठेका प्रथा का दंश झेल रहे मज़दूरों के एक सशक्त आन्दोलन को खड़ा करने या मज़दूरों के अधिकारों को हासिल करने के लिए कोई प्रोग्राम लेने की बजाय ऐसी ग़द्दार ट्रेड यूनियनें एक दिन की हड़ताल की नौटंकी से मज़दूरों के ग़ुस्से को शान्त करने की क़वायद में जुटी हुई हैं। 1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें केवल दिल्ली राज्य के स्तर पर नहीं बल्कि देश के स्तर पर क़रीब 20 बार ‘भारत बन्द’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ का आह्वान करती आयी हैं, परन्तु ये अनुष्ठानिक हड़तालें महज़ मज़दूरों के ग़ुस्से के फटने से पहले प्रेशर को कम करने वाले सेफ़्टी वॉल्व का काम कर इस व्यवस्था की ही रक्षा करती हैं।

यह हड़ताल किन यूनियनों द्वारा आयोजित करवायी जा रही है? हड़ताल का आयोजन देश के स्तर पर सीटू, एटक, एक्टू से लेकर एचएमएस व अन्य केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा किया जाता है। लेकिन दिल्ली-एनसीआर में मज़दूर सहयोग केन्द्र या इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र जैसे कुछ अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी संगठन, जो इनकी पूँछ पकड़कर चलते हैं, ऐसी एक दिन की हड़ताल में अपनी पूरी ताक़त झोंक देते हैं। ये मज़दूरों को यह भी नहीं बताते कि चुनावबाज़ पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें इस तरह के रस्मी प्रदर्शन या विरोध की नौटंकी ही करती हैं।

साथियों केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस व्यवस्था की रक्षक हैं जो इस तरह के प्रदर्शनों से व्यवस्था को संजीवनी प्रदान करती हैं। दूसरी बात यह कि 5 करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ये यूनियनें इन मज़दूरों के हक़ों को ही सबसे प्रमुखता से उठाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँगें इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती हैं और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की है, परन्तु ये न तो उनके मुद्दे ज़ोरदार ढंग से उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है।

एक दिवसीय हड़ताल को अनिश्चितकालीन हड़ताल में तब्दील करो

अगर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर-विरोधी संशोधानों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वायदे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है। मज़दूर ऐसी लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं, परन्तु ये यूनियनें ऐसा कभी नहीं करेंगी! रिको से लेकर मारुति के मज़दूरों के संघर्षों में ये लोग क्यों नहीं हड़ताल पर उतरे और 5 करोड़ सदस्यता को काम बन्द करने को क्यों नहीं कहा? अनाज मण्डी हत्याकाण्ड के बाद भी इन्होंने चक्का जाम का आह्वान क्यों नहीं दिया? एक महीने से हड़ताल पर बैठे होण्डा के मज़दूरों के समर्थन में इन्होंने चक्का जाम क्यों नहीं किया? क्योंकि इनका मक़सद मज़दूरों के हक़ों को जीतना नहीं बल्कि मज़दूरों का ग़ुस्सा हद से ज़्यादा बढ़ने से रोकना है।

इनके साथ ही इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र और मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन भी हैं जो वैसे ख़ुद को क्रान्तिकारी घोषित करते हैं और इन केन्द्रीय यूनियनों को दलाल बताते हैं, लेकिन इन एक दिन की हड़तालों में इनकी पूँछ पकड़कर चलते हैं और रस्म अदायगी में हिस्सेदारी करते हैं। ये भी अर्थवादी ही हैं पर इनके अर्थवाद का रंग ज़्यादा गहरा है। इनके इस दोगलेपन को भी मज़दूरों को समझना चाहिए।

हमारा मानना है कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एक दिनी हड़तालें मज़दूरों के ग़ुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। हम यह देख चुके हैं कि केवल एक दिन या दो दिन की हड़ताल के ज़रिये ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें पूँजीवादी व्यवस्था को संजीवनी बूटी देती हैं। परन्तु इस हड़ताल में मज़दूरों का सबसे उन्नत हिस्सा भी फ़ैक्टरियों को बन्द करवाने में और हड़ताल के दौरान निकाली जा रही रैली में शामिल होता है। इसलिए मज़दूर वर्ग के हिरावल को भी इन हड़तालों में शामिल होकर इस हड़ताल का इस्तेमाल केन्द्रीय ट्रेड यूनियन और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी राजनीति के भण्डाफोड़ हेतु करना चाहिए। अलग-अलग मज़दूर इलाक़ों और ट्रेड यूनियनों की ताक़त के अनुसार यह हर जगह अलग क़िस्म से लागू होगा परन्तु हमें इन संघर्षों में भागीदारी कर मज़दूरों के बीच संशोधनवादी राजनीति को नंगा करना चाहिए और मज़दूरों को इन संशोधनवादियों के नेतृत्व में एक दिन भी अकेले नहीं छोड़ना चाहिए।

पिछले साल नीमराना में डाइकिन कम्पनी के मज़दूरों ने 8 जनवरी को हड़ताल के समर्थन में रैली निकाली जिसके बाद डाइकिन कम्पनी गेट पर पुलिस और कम्पनी बाउंसरों ने मज़दूरों पर लाठीचार्ज किया और पत्थरबाज़ी की। इस घटना के विरोध में तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों और अपने को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का विकल्प बताते परन्तु उनकी पूँछ में कंघा करने वाले ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ और ‘इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने केवल क़ानूनी दाँवपेंच लड़े और अपने को सिर्फ़ ज्ञापन देने और तथ्यान्वेषण टीम तक ही सीमित रखा। अगर इस लाठीचार्ज के विरोध में गुड़गाँव, धारूहेड़ा, मानेसर से लेकर नीमराना में हज़ारों की सदस्यता वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें अनिश्चितकालीन हड़ताल का ऐलान कर देतीं तो इसकी सम्भावना अधिक थी कि प्रशासन मज़दूरों के ख़िलाफ़ दर्ज किये झूठे मुक़दमे वापस लेता और दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करता। परन्तु इस माँग को लेकर केवल ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्रियल काण्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन अभियान चलाती रही जिसे मज़दूरों में भारी समर्थन मिला, लेकिन न तो किसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन ने और न ही ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ और ‘इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने ऐसा आह्वान किया। पिछले साल के इस घटनाक्रम से भी यह निष्कर्ष निकलता है कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाने को हमें शिद्दत से बेपर्दा करना होगा। इसके लिए हमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आयोेजित आम हड़ताल में भी शामिल होकर मज़दूर वर्ग को नेतृत्व देना होगा और इस समझौतापरस्त राजनीति को मज़दूर आन्दोलन से ख़त्म करने की कोशिश करनी होगी। साथ ही हमें इनकी पूँछ पकड़कर मज़दूर आन्दोलन की सवारी करने निकले अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों की राजनीति की पोल भी खोलनी होगी।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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