‘मैं बड़े ब्रांडों के लिए बैग सिलता हूँ पर मुश्किल से पेट भरने लायक़ कमा पाता हूँ’ – अनाज मण्डी की जली फ़ैक्टरी में 10 साल तक काम करने वाले दर्ज़ी की दास्तान
दिल्ली के अवैध कारख़ाने की आग ने पाँच बच्चों सहित 43 मज़दूरों की ज़िन्दगी लील ली, मगर हज़ारों मज़दूर आज भी वैसे ही ख़तरनाक हालात में काम करने और जीने को मजबूर हैं
– अनुमेहा यादव
सोमवार (9 दिसम्बर) को अनाज मण्डी की ओर जाने वाले मेहराबदार दरवाज़े के नीचे टीवी पत्रकार और कैमरामेन बेहतर जगह के लिए धक्कामुक्की कर रहे थे। यह जगह दिल्ली की सबसे बड़ी थोक मण्डी, सदर बाज़ार से कुछ सौ मीटर की दूरी पर है।
मेहराबदार दरवाज़े के नीचे एक सँकरी, अँधेरी गली गुज़रती है जिसके दोनों तरफ़ एक-दूसरे से सटी इमारतों की क़तार है। ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ़्तर की ओर से गली के मुहाने पर एक आपदा प्रबन्धन डेस्क लगायी गयी है जिस पर तीन पुलिसवाले तैनात थे। पुलिस ने आवाजाही रोकने के लिए लोहे के बैरीकेड और सफ़ेद-पीले बैरियर टेप लगा रखे थे, मगर टेप उठाकर कोई भी गली में जा सकता था।
गली में कालिख लगी गुलाबी दीवारों वाली एक इमारत के बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। पिछले दिन, भोर में यहाँ आग लगी थी जिसने इमारत में सो रहे 100 से ज़्यादा मज़दूरों को अपनी चपेट में ले लिया था। बच्चों सहित 43 मज़दूरों की दम घुटने से मौत हो गयी जबकि 60 बुरी तरह घायल हुए। यह पिछले एक दशक के दौरान दिल्ली के सबसे विनाशकारी अग्निकाण्डों में से एक था। जिस इमारत में यह हुआ वहाँ एक कारख़ाना चल रहा था। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक़ कारख़ाने के पास न तो मैन्युफ़ैक्चरिंग परमिट था और न ही दमकल विभाग से सुरक्षा का सर्टिफ़िकेट। यानी, यह भी दिल्ली में चल रहे हज़ारों ग़ैर-क़ानूनी कारख़ानों जैसा ही था।
सोमवार की सुबह, स्वेटर और जीन्स पहने एक गंजा-सा व्यक्ति, जिसकी आँखें कम सोने के कारण सूजी हुई थीं, पास के मदरसे से आये किसी शख़्स को इलाक़े के बारे में बता रहा था, “बिहारी एक साथ रहते हैं। जैसे ही किसी को यहाँ टिकने की जगह मिलती है, वे अपने पूरे गाँव को यहाँ ले आकर बसा देते हैं।”
‘खाने के लिए पैसे नहीं हैं’
दूसरे स्थानीय निवासी और इलाक़े के कारख़ाना मालिक उसकी बात पर सहमति में सिर हिला रहे थे। गली में थोड़ी दूरी पर 2-2, 4-4 के समूहों में खड़े कुछ नौजवान चुपचाप देख रहे थे।
प्रकाश दास उन्हीं में से एक था। वह और बीजू मण्डल (28 साल) धुँधली आँखों से भीड़ को देख रहे थे, वे थके और चकराये हुए से लग रहे थे। दोनों ही जली हुई इमारत के बगल में बैग बनाने के एक कारख़ाने में काम करते थे। शनिवार की रात से दोनों ने खाना नहीं खाया था, पिछले 42 घण्टे से वे भूखे थे। “पिछले हफ़्ते का हमारा 1500 रुपये का पेमेंट इतवार को मिलने वाला था। लेकिन आग लगने के बाद हमारा मालिक भी कहीं चला गया है। हमारे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं।” प्रकाश ने कहा जिसकी उम्र 33 साल थी मगर देखने में छोटा लग रहा था।
वह हिचकिचाते हुए बोल रहा था और बार-बार कनखियों से देख रहा था कि कोई मालिक या लोकल उसकी बात तो नहीं सुन रहा। गली में जहाँ वह खड़ा था उसके ऊपर बिजली के उलझे हुए तार लटके हुए थे। बड़े-बड़े चूहे इधर-उधर दौड़ रहे थे और कोने में जमा कूड़े को कुतर रहे थे।
दास ने अनाज मण्डी से बाहर की ओर चलते हुए कहा, “तीन महीने पहले, एक लोकल का एक बिहारी मज़दूर से झगड़ा हो गया था तो उसने मज़दूर की पिटाई कर दी थी। अगर अभी उनमें से कोई मुझे थप्पड़ मार दे तो मैं क्या कर पाऊंगा?”
रविवार की सुबह मरने वाले बहुत से मज़दूरों की तरह, दास 14 साल की उम्र में बिहार के दरभंगा ज़िले से दिल्ली आया था। उसका गाँव वाजिदपुर नेपाल की सीमा से 80 कि.मी. दूर है। उसकी अब तक की लगभग सारी ज़िन्दगी इस गली में चलने वाले छोटे कारख़ानों और वर्कशॉपों के भीतर गुज़री है जिनमें हर समय धुँधली रोशनी होती है और हवा आने-जाने के रास्ते बहुत कम हैं। आग की चपेट में आये मज़दूरों की तरह उसने भी जले हुए कारख़ाने में 10 साल तक बैग सिलने का काम किया था।
दास को हर बैग की सिलाई के लिए 30 रुपये मिलते थे। उसका कहना है कि वह रोज़ 50 बैग तक सिल सकता था लेकिन अक्सर पूरे हफ़्ते भर के ऑर्डर सिर्फ़ 50 बैग ही होते थे। वह औसतन महीने में 6000 रुपये कमाता था। उसी बिल्डिंग में रहकर वह किराये का ख़र्च बचा लेता था लेकिन अब वहाँ बहुत भीड़ हो गयी थी क्योंकि हर मंज़िल पर क़रीब 30 मज़दूर रहते थे। इसलिए दास और उसका भाई मई में दूसरी बिल्डिंग में चले गये थे। उन्होंने पैसे बचाकर बिजली से चलने वाली एक सिलाई मशीन भी ख़रीद ली थी। लेकिन अब हर हफ़्ते किराये के 500 रुपये और दिन में दो बार खाने पर 100 रुपये ख़र्च करने के बाद उसके पास शायद ही कभी कुछ बच पाता था। पैसे बचाने के लिए उसने सुबह का नाश्ता करना छोड़ दिया था।
दास जैसे मज़दूर अब जल चुके कारख़ाने में पिछले दो साल से कई बड़े कॉरपोरेट ब्राण्ड और सरकारी ठेकेदारों के लिए पिट्ठू बैग सिलने का काम कर रहे थे। वह बताता है, “एअरटेल और वोडाफ़ोन अपने स्टाफ़ को और ज़ोमैटो अपने डिलीवरी वाले लड़कों को जो बैग देते हैं वह हम यहाँ सिलते थे। हम वे बैग भी सिलते थे जिनको सरकारें और कम्पनियाँ प्रोग्रामों में बाँटती हैं। इस समय, मैं बैगों के एक बड़े ऑर्डर की सिलाई कर रहा था जिन पर हम ‘झारखण्ड सरकार’ का लेबल लगाते थे। उससे पहले, हमने उत्तर प्रदेश सरकार के लिए और जयललिता के लेबल वाले बैग बनाये थे और बर्तन कम्पनियों के लिए टिफ़िन बैग भी बनाये थे।”
‘हवा ज़हर जैसी लगती है’
दास का कहना है कि चाहे जितना भी ऑर्डर हो, चाहे जितना भी कम या ज़्यादा काम हो, इतवार छोड़कर मज़दूरों को सुबह 10 बजे से रात 8 बजे तक मशीनों पर रहना पड़ता था।
कई बच्चे भी उनके साथ काम करते थे। दास बताता है, “मालिक आम तौर पर हर दो मशीनों के बाद एक बच्चे को लगा देता था। मुझे बच्चों के बारे में सोचकर और भी ख़राब लग रहा है।” ख़ुद दास ने भी महज़ 14 साल की उम्र में पास के पहाड़गंज में ऐसे ही कारख़ानों में दर्ज़ी का काम शुरू कर दिया था।
वह बताता है कि काम के दौरान मज़दूरों को अक्सर ही चोट लग जाती है। बच्चों को भी। वह अपना बायाँ अँगूठा दिखाता है जिसके आर-पार मशीन की सुई चली गयी थी। वह कहता है, “जब सुई धँसती है तो इतना दर्द होता है कि चक्कर आने लगता है और लगता है जैसे मेज़ पर ही उल्टी हो जायेगी।”
बच्चे अप्रेण्टिस के तौर पर बैग बनाना सीखते हैं। 9 से 12 महीने तक वे सुबह से रात तक सिलाई मशीनों पर लगे रहते हैं। इस दौरान, मालिक बच्चों द्वारा सिले हर बैग की मज़दूरी में से 5 रुपये बिल्डिंग में रहने के किराये के तौर पर काट लेते हैं। कई साल तक काम कर चुके बालिग मज़दूरों को यह रक़म नहीं चुकानी पड़ती है। आधी रात के बाद, कारीगर अपनी सिलाई मशीनों को एक ओर खिसका देते हैं और पिट्ठू बैग में लगने वाले पॉलिस्टर की चादर को फ़र्श पर बिछाकर सो जाते हैं। जब बिल्डिंग में ज़्यादा लोग हो गये तो कारख़ाना मालिक रेहान ने पाँचों मंज़िलों पर दो-दो शौचालय बना दिये। आग लगने के बाद से वह गिरफ़्तार है।
एक केयरटेकर रोज़ रात को मज़दूरों को बिल्डिंग के अन्दर करके बाहर से ताला बन्द कर देता था जिससे ऊपर की मंज़िलों से आने की सीढ़ियाँ आधी रात से लेकर सुबह 6 बजे तक बन्द हो जाती थीं। दास ने बताया, “यह रिहायशी इलाक़ा है, इसलिए वे हमें ताले में बन्द कर देते हैं क्योंकि बिहार और यूपी से आने वाले हम जैसे प्रवासी अन्दर बन्द रहेंगे तो यहाँ रहने वालों को सुरक्षित महसूस होगा। अगर कोई इमरजेंसी हो जाये या किसी वर्कर की तबियत बिगड़ जाये तो केयरटेकर को फ़ोन करके बुलाना पड़ता था कि वह चाभी लेकर आये और हमें बाहर निकाले।”
दास और दूसरे मज़दूरों ने बताया कि इतवार की भोर में जब आग भड़की, तो मज़दूर अन्दर बन्द थे और बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। बिहार में मधुबनी के रहने वाले अब्दुल कलाम ने कहा, “केयरटेकर ने ग्राउण्ड फ़्लोर और सबसे ऊपर की मंज़िल के दरवाज़े का ताला बन्द कर दिया था। अन्दर फँसे कुछ लोगों को निकलने के लिए ऊपरी मंज़िल की एक खिड़की को काटना पड़ा।” अब्दुल गली की एक दूसरी फ़ैक्टरी में बैग सिलते हैं।
दास ने कहा कि शनिवार की रात को देर से काम ख़त्म करने के बाद सोये हुए उसे चार घण्टे ही हुए थे कि उसका फ़ोन बार-बार बजने लगा। उसने कहा, “हमारी बिल्डिंग का केयरटेकर भी हमको बाहर से बन्द कर देता है। आख़िरकार जब किसी ने हमारी बिल्डिंग का गेट खोला, तो लोकल लोग हम पर चिल्ला रहे थे कि जब तक पुलिस न आये तब तक अन्दर ही रहो।”
दास ने कहा कि सुबह की धुँधली रोशनी में उसने अपनी खिड़की से देखकर गिना कि 56 मज़दूरों को उठाकर एम्बुलेंस में ले जाया गया था। इनमें से कई उसके दोस्त और ऐसे लोग थे जिनके साथ उसने काम किया था। फ़ैक्टरी के ताले खुलने के बाद कुछ लोग बाहर आये जो सिर्फ़ अन्दर के कपड़े पहने हुए थे। हमने उन्हें अपने कपड़े और जूते-चप्पल दिये। “बारह ऐसे लोगों की मौत हो गयी जिनके साथ मैंने बरसों काम किया था। कम से कम बारह और हैं जिनके बारे में मुझे अभी पता नहीं चल पाया है।”
इस हादसे के बाद से उसे घबराहट के दौरे पड़ते रहते हैं। जब भी वह इन घटनाओं को याद करता है या जब भी इलाक़े की किसी फ़ैक्टरी का मालिक उसे बुलाता है, तो उसके दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। वह इस हादसे से उबरने के लिए दरभंगा में अपने घर जाना चाहता है लेकिन यात्रा में कम से कम 1000 रुपये लग जायेंगे और अभी तो उसके पास खाने के पैसे भी नहीं हैं।
वह कहता है, “दिल्ली में मेरी तबियत ख़राब हो जाती है। किसी और जगह मुझे इतनी परेशानी नहीं होती। यहाँ दम घुटता है और हवा ज़हर जैसी लगती है।”
दिनभर दास एक पार्क में बैठकर इन्तज़ार करता रहा। फिर क़रीब 4 बजे उसके साथ ही काम करने वाले उसके भाई प्रमोद का फ़ोन आया कि मालिक ने पिछले हफ़्ते की मज़दूरी 1500 रुपये चुका दी है। फ़ोन पर बात करते समय दास के चेहरे पर राहत दिखायी दी। उसने कहा कि अब वह दो हफ़्ते और यहीं काम करेगा और कुछ पैसे बचाकर तब घर जायेगा।
उसी रात दास के फ़ैक्टरी मालिक ने कहा कि सारी सिलाई मशीनों को हटाकर मॉडल बस्ती की एक बिल्डिंग में ले जाना है। अगली दोपहर अपना सामान एक हरे बैग में भरते हुए दास ने बताया, “रातो-रात अनाज मण्डी से एक-एक सिलाई मशीन हटा दी गयी।”
अनाज मण्डी से निकलकर दास एक ख़स्ताहाल सिनेमा हॉल, फ़िल्मिस्तान के सामने से गुज़रते हुए बायें मुड़कर अनाज मण्डी के पास की एक सड़क पर गया। सड़क के दूसरे सिरे पर वह एक सँकरी गली में मुड़ा और एक इमारत की अँधेरी, सँकरी सीढ़ियों से होते हुए चौथी मंज़िल पर गया। हर फ़्लोर पर 14-18 साल के लड़के और नौजवान बिजली की सिलाई मशीनों पर बैठे पिट्ठू, लैपटॉप बैग और लंचबॉक्स बैग सिल रहे थे।
दास ने अपना पिट्ठू चौथी मंज़िल के एक कमरे में रख दिया। फ़र्श पर चारों ओर सलेटी रंग के पिट्ठू और कपड़े फैले हुए थे और पाँच नौजवान सिलाई मशीनों पर काम में जुटे हुए थे। दास ने बताया, “इस मार्केट में मेरे सबसे पुराने दोस्त, नुरिया ने अभी मेरे लिए एक मशीन का इन्तज़ाम कर दिया है।”
‘वे बैल की तरह काम करते हैं’
अनाज मण्डी में, कुछ फ़ैक्टरियों और वर्कशॉपों के मालिकों ने इस बात की पुष्टि की कि उन्हें बड़े कॉरपोरेशनों और सरकारी एजेंसियों से बैग बनाने या उन पर लेबल सिलने के ऑर्डर मिलते हैं, लेकिन कम्पनियों या सरकारी एजेंसियों के साथ कोई औपचारिक कॉण्ट्रैक्ट नहीं होता है।
एक युवा मालिक, आमिर इक़बाल ने बताया कि यह सब कैसे होता है, “एअरटेल, वोडाफ़ोन या रिलायंस जैसी कोई बड़ी कम्पनी या कर्नाटक सरकार किसी प्रचारात्मक कार्यक्रम, जैसे मैराथन में बाँटने या ओखला या गुड़गाँव के किसी ऑफ़िस में अपने स्टाफ़ के लिए बैगों का ऑडर देती है। फ़र्ज़ कीजिए कि उन्होंने अपना ऑर्डर रैगरपुरा या करोल बाग़ की किसी फ़र्म को दिया, तो फिर वहाँ से मानकपुरा या शिडीपुरा में या पुरानी दिल्ली के हमारे इलाक़े में किसी बिज़नेसमैन को ऑर्डर मिलता है। अगर शिडीपुरा में किसी व्यापारी को ऑर्डर मिलता है, तो वे हमारे जैसे 10 मालिकों से व्हाट्सऐप पर लागत, मुनाफ़े वगैरह के बारे में पूछते हैं। कभी हमारे बीच कम्पिटीशन होता है तो कभी हम ऑर्डर लेकर आपस में बाँट लेते हैं।” इक़बाल के मुताबिक़, “या फिर वे वज़ीराबाद, सीलमपुर, नबी करीम या दिल्ली में मैन्युफ़ैक्चरिंग के ऐसे ही किसी और इलाक़े में किसी को ऑर्डर दे देते हैं।” इक़बाल की फ़र्म आम तौर पर एक बड़े पिट्ठू बैग, जैसाकि डिलीवरी एजेंट लेकर चलते हैं, पर 50-60 रुपये का मुनाफ़ा कमाती है।
अनाज मण्डी के एक और व्यापारी फ़ैज़ान का कहना है, “चेन पे चेन है। इस प्रोडक्शन में कई लेवल हैं और हम सबसे निचली पायदान पर हैं। फिर हम रोज़ी-रोटी कमाने के लिए 1500 कि.मी. से आये हुए मज़दूरों को काम देते हैं।”
उसने कहा, “आपने कोल्हू का बैल सुना है, जिनकी आँखों पर पट्टी लगा दी जाती है? ये मज़दूर भी ऐसे ही हैं। उन्हें अक्सर यही नहीं पता रहता कि कौन उनको गोल-गोल घुमा रहा है, वे बस काम किये जाते हैं।”
(पहचान छिपाने के लिए कुछ नामों को बदल दिया गया है)
फ़ोटो : अनुमेहा यादव,
पहले News।aundry.com में प्रकाशित
अंग्रेज़ी से अनुवाद : मज़दूर बिगुल डेस्क
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन