अनाज मण्डी अग्नि-काण्ड में 43 मज़दूरों की मौत!
ये मुनाफ़े के लिए की गयी ठण्डी हत्याएँ हैं!

दिल्ली सरकार, केन्द्र सरकार और नगर निगम और ये पूरा पूँजीवादी निज़ाम इन हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार है।

रानी झाँसी रोड स्थित मॉडल बस्ती के अनाज मण्डी इलाक़े में आग लगने से सरकारी रपट के अनुसार 43 मज़दूरों की मौत हो गयी, परन्तु असल में इस अग्निकाण्ड में मरने वाले मज़दूरों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। बहुत से मज़दूर अब भी अस्पताल में हैं। 8 जनवरी की सुबह 5 बजे अनाज मण्डी की सँकरी गली में चार मंज़िला बिल्डिंग में प्लास्टिक की फ़ैक्टरी से लगी आग पूरी इमारत में फैल गयी। आग बुझाने के लिए दमकल गाड़ियाँ क़रीब 2 घण्टे देरी से पहुँची, जबकि रानी झाँसी रोड का अग्निशमन विभाग घटनास्थल से महज़ 400 मीटर दूर है। इमारत की ऊपरी मंज़िलों में जो फ़ैक्टरियाँ थीं वहाँ बैग बनाने, खिलौने बनाने व पैकिंग सरीखे काम होते थे। आग पूरी इमारत में फैल गयी। रविवार के दिन चूँकि इलाक़े में छुट्टी होती है, इसलिए मज़दूर आराम से सोये थे।

शार्ट सर्किट से शुरू हुई आग प्लास्टिक के दानों से (जो प्लास्टिक के अधिकतर उत्पादों का कच्चा माल होते हैं) पूरी इमारत में फैल गयी। इमारत की हर मंज़िल पर प्लास्टिक उत्पाद का काम होने के कारण आग फैल गयी। फ़ैक्टरी से मज़दूरों के बाहर निकलने का गेट महज़ 2 फ़ीट चौड़ा था जिस पर बाहर से ताला लगा हुआ था। यहाँ आग लगने पर मज़दूरों की मौत होना तय था। फ़ैक्टरियों में 15-16 साल के किशोर भी काम करते थे, परन्तु लाशों को बोरों में भरकर लाया गया जिसके कारण जलकर मरने वालों की उम्र का और संख्या का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है। कई मज़दूर दम घुटने से मरे हैं।

ग़ौरतलब है कि पिछली 8 जनवरी को भी घटनास्थल से 150 मीटर दूर मॉडल बस्ती की फ़ैक्टरी में आग लगी थी जिसमें मज़दूर जलने से बच गये थे। 2 महीने पहले भी आज जिस फ़ैक्टरी में आग लगी उसी के बगल में आग लगने से 2-3 मज़दूरों की मौत हुई थी। पूरे इलाक़े में बिजली के तार पुराने खण्डहर में लगे मकड़ी के जालों की तरह सड़कों पर खम्भों के बीच झूलते रहते हैं। इस इलाक़े में मज़दूर 300-400 रुपये में काम करते हैं, परन्तु इन सबके ऊपर मौत का साया हर हमेशा लटकता रहता है। मालिक मुनाफ़े की हवस में कोई श्रम क़ानून लागू नहीं करते हैं। न न्यूनतम वेतन मिलता है, न ईएसआई पीएफ़ और न ही फ़ैक्टरियों में सुरक्षा के इन्तज़ाम हैं। फ़ैक्टरियों में कई बच्चे भी काम करते हैं। मज़दूरों के अनुसार इसके लिए पुलिस फ़ैक्टरी मालिकों से हर महीने 500 रुपये प्रति बच्चा वसूलती है।

हर साल इन फ़ैक्टरियों में गुमनाम तरीक़े से मज़दूर मारे जाते हैं परन्तु इस पर कोई बवाल नहीं होता है। ये मौतें ठण्डी मौतें हैं जिनका हिसाब अनाज मण्डी के मालिक भी लगाकर रखते हैं। इन मौतों की क़ीमत श्रम विभाग के कर्मचारियों, पुलिस, बिजली विभाग, अग्निशमन विभाग और लाइसेंस देने वाली म्युनिस्पेलिटी को पहले ही अदा की जा चुकी होती है। श्रम विभाग द्वारा इन फ़ैक्टरियों की कोई जाँच नहीं होती है। 10 लाख के मुआवज़े की घोषणा कर केजरीवाल इस बात को छिपा नहीं सकता कि दिल्ली सरकार ही इन हत्याओं के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है जिसका श्रम मंत्रालय श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने पर मालिकों की पीठ में खुजली तक नहीं करता है। श्रम विभाग की बात करें तो कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा कारख़ाना अधिनियम, 1948 का भी पालन नहीं किया जा रहा है – वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया।

दिल्ली सरकार ने इस साल श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाली फ़ैक्टरियों की जाँच का अभियान चलाया और कहा कि पूरी दिल्ली में केवल 160 आर्थिक इकाइयाँ हैं जहाँ श्रम क़ानूनों का उल्लंघन होता है। यह कोरा झूठ है क्योंकि दिल्ली के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली में क़रीब 7 लाख आर्थिक इकाइयाँ हैं जिनमें छोटी दुकान से लेकर बड़ी फ़ैक्टरी शामिल हैं जिनमें कार्यरत 98 प्रतिशत से ज़्यादा मज़दूरों को श्रम क़ानूनों के तहत कोई सुविधा नहीं मिलती है। ख़ुद सरकार के अस्पतालों में कार्यरत ठेका मज़दूरों को श्रम क़ानूनों के अनुसार भुगतान नहीं होता है। परन्तु दिल्ली सरकार के बेशर्म श्रम मंत्री गोपाल राय और मुख्यमंत्री केजरीवाल झूठ बोलते रहे हैं। अनाज मण्डी का इलाक़ा ‘मिक्स्ड यूज़्ड लैण्ड’ के तहत आता है जिसमें व्यवसायिक गतिविधियाँ केवल भूतल पर ही की जा सकती हैं। प्लास्टिक से लेकर जिन उद्योगों के यहाँ काम हो रहे हैं वे तो क़ानूनी तौर पर भूतल पर भी नहीं किये जा सकते हैं। परन्तु पुलिस, नगर निगम, श्रम विभाग से लेकर बिजली विभाग और अग्निशमन विभाग सभी मिले हुए हैं। पूरे क़ानूनी तंत्र में मालिकों को घपला-घोटाला करने में कोई समस्या नहीं होती है, परन्तु मज़दूर के लिए बने क़ानून लागू नहीं हो सकते हैं। यही पूँजीवादी क़ानून व्यवस्था और उसके नौकरशाही तंत्र का असली चेहरा है। इस घटना के बाद से छोटे मालिकों ने मकानों से अपनी मशीनें और कच्चा माल स्थानान्तरित करना शुरू कर दिया है। जिस फ़ैक्टरी में आग लगी उसके मालिक को गिरफ़्तार कर लिया गया है, परन्तु इस घटना के मुख्य आरोपी वे मकान मालिक हैं जिनकी शह पर यहाँ काम चलता है और तमाम विभागों के वे कर्मचारी हैं जिनकी वजह से ये मौतें हुई हैं।

मोदी और अमित शाह ने इस घटना पर घड़ियाली आँसू बहाये हैं जिससे कि आगामी चुनाव की तैयारी की जा सके, परन्तु इन नरभक्षी फ़ासीवादियों ने ही संसद में श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने का काम किया है जिससे भविष्य में इस तरह की घटनाओं को बिना क़ानूनी पचड़े के अंजाम दिया जा सके। इस सरकार ने श्रम सुधार के नाम पर 44 श्रम क़ानूनों को बदलकर 4 श्रम संहिताओं को लाने का फ़ैसला किया है। निश्चित ही जो श्रम क़ानून पहले मौजूद थे वे भी सिर्फ़ काग़ज़ों की ही शोभा बढ़ा रहे थे। देश के 93 फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए ये श्रम क़ानून लागू नहीं होते थे, लेकिन जब कभी भी कहीं मज़दूर अपने क़ानूनी हक़ के लिए संघर्ष करता था तो मजबूरन पूँजीपतियों और सरकारों को उसे लागू करवाना पड़ता था। लेकिन अब मोदी-शाह की फ़ासीवादी मज़दूर-विरोधी सरकार ने ऐसे क़ानूनों को ही ख़त्म करने का फ़ैसला कर लिया है। मतलब, न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी! अब फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर द्वारा फ़ैक्टरियों का निरीक्षण करना बाध्यताकारी नहीं रह जायेगा। अब सिर्फ़ मालिक यह कह दें कि उनकी फ़ैक्टरी में 10 से कम मज़दूर काम करते हैं और फ़ैक्टरी में सबकुछ ठीक है तो उसकी बात मान ली जायेगी। अब कभी भी किसी भी मज़दूर को बिना वजह बताये काम से बाहर निकाला जा सकेगा और इसके ख़िलाफ़ श्रम विभाग में शिकायत भी नहीं की जा सकेगी।

इसके अलावा सरकार ने यूनियन बनाने के क़ानून को भी बेहद मुश्किल बना दिया है, अब व्यावहारिक तौर पर यूनियन बनाना असम्भव हो जायेगा। हाल ही में सरकार ने औद्योगिक विवाद निपटारा क़ानून को भी ख़त्म करने के लिए विधेयक पारित किया है। हड़ताल करने को भी ग़ैर क़ानूनी बनाया गया है। अनाज मण्डी के हत्याकाण्ड की इन मौतों के लिए मोदी सरकार भी ज़िम्मेदार है। मज़दूरों के बचे-खुचे क़ानूनों को भी ख़त्म कर फ़ासीवादी मोदी सरकार मज़दूरों को डण्डे की नोक पर काम कराना चाहती है।

इन सभी फ़ैक्टरियों के मालिक तमाम चुनावबाज़ पार्टियों से जुड़े हैं। अनाज मण्डी की अधिकतम फ़ैक्टरियों का मकान मालिक भाजपा नेता इमरान इस्माईल है जिसकी बीवी पिछली बार भाजपा निगम पार्षद थी और इमरान इस्माईल का बाप भाजपा का बड़ा नेता था जिसके नाम से इलाक़े के बाज़ार की गली भी है। इमरान इस्माईल के मकानों में उसके रिश्तेदारों की फ़ैक्टरियाँ हैं और ज़्यादातर लोग उसकी देखरेख में ही यहाँ फ़ैक्टरियाँ चलाते हैं। इन हत्याओं का सौदागर इमरान इस्माईल ही है। घटना के दिन बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं की इमरान इस्माईल के गुर्गों से झड़प भी हुई क्योंकि वे मज़दूरों और पत्रकारों को घटनास्थल पर नहीं जाने दे रहे थे। अधिकतर मज़दूर उसके सामने कुछ भी बोलने से घबराते हैं। यही हाल अन्य चुनावबाज़ पार्टियों के नेताओं का है। उन्हें भी इमरान इस्माईल की तरह ही मॉडल बस्ती में मालिकों से समर्थन प्राप्त है। मीडिया में आकर सबसे पहले इमरान इस्माईल और अन्य दलाल ही मज़दूरों की जान जाने पर घड़ियाली आँसू बहा रहे थे और बाक़ायदा जाँच की माँग कर रहे थे!

ज़ाहिर है कि पुलिस से लेकर तमाम विभाग इन मौत के कारख़ानों पर कार्रवाई नहीं करेंगे। 2018 में बवाना में 17 मज़दूर जलकर मरे थे, 2011 में पीरागढ़ी में भी 11 मज़दूर जलकर मरे थे और 2008 में चप्पल की फ़ैक्टरी में पीरागढ़ी में अनेक मज़दूर मरे थे। 2017-18 में बवाना में आगज़नी की 465 घटनाएँ हुईं और नरेला में इसी दौरान क़रीब 600 से अधिक कारख़ानों में आग लगी। अगर इन मौतों को रोकना है तो दिल्ली के 29 औद्योगिक क्षेत्रों के मज़दूरों से लेकर दिल्ली में फैले मज़दूरों को सड़कों पर उतरना होगा। इस मुद्दे पर जब तक मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग की सरकारों को झुकाता नहीं है, ये हत्याएँ बदस्तूर जारी रहेंगी। यह वर्ग युद्ध है जहाँ मुनाफ़े की हवस में मालिक मज़दूरों को यूँ ही आग में झोंककर मुनाफ़ा कमाते हैं। इसका जवाब मज़दूर वर्ग के एकजुट होकर इस व्यवस्था के ख़ात्मे की लड़ाई से होकर जाता है। इस लड़ाई के पहले क़दम के तौर पर मज़दूरों को फ़ैक्टरियों में सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ाम के लिए संघर्ष छेड़ देना होगा!

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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