पूँजीवादी युद्ध और युद्धोन्माद के विरुद्ध बोल्शेविकों की नीति और सरकारी दमन

प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम के कुछ हिस्सों की इस श्रृंखला में दसवीं कड़ी प्रस्तुत है। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने बादायेव द्वारा क़रीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुत–सी चीज़़ें सीखी जा सकती हैं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। इस बार हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उसमें हम देख सकते हैं क‍ि प्रथम विश्व युद्ध के पहले जब तमाम देशों के पूँजीपति दुनिया की लूट में हिस्‍से की बन्दरबाँट के लिए युद्ध करने पर उतावले हो रहे थे और पूँजीवादी सरकारें अपने देशों में राष्‍ट्रवादी जुनून और युद्धोन्‍माद भड़का रही थीं ताकि अलग-अलग देशों के मज़दूरों को एक-दूसरे की जान का दुश्‍मन बनाया जा सके, तब बोल्‍शेविक पार्टी ने दृढ़ता से युद्ध-विरोधी रुख अख़्तियार किया था और निरंकुश ज़ारशाही सरकार के दमन का सामना करते हुए क्रान्ति की तैयारियों को आगे बढ़ाया था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए आज हमारे देश पर ध्यान चले जाना स्वाभाविक है जब सत्ता में बैठे फ़ासिस्‍ट युद्ध का पागलपन पूरे देश में फैला देना चाहते हैं ताकि मेहनकतश लोगांे की असली समस्‍याओं से ध्यान हटाया जा सके। यह पूरी पुस्तक आज भी मज़दूर आन्दोलन में काम कर रहे लोगों के लिए बहुत उपयोगी है। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।

(दसवीं किश्त)

जेल में

हमें जेल के सख़्त प्रशासन की निगरानी में एकान्त कारावास में रखा गया और बाहरी दुनिया से काट दिया गया। गाहे-बगाहे हमें कुछ छिट-पुट ख़बरें और रूसी सेना की विजय व देशभर में फैली देशभक्ति की लहर के बारे में आधिकारिक विवरण सुनने को मिलते थे।
सेण्ट पीटर्सबर्ग के कारख़ानों में एक नया आन्दोलनकर्ता प्रकट हुआ है। “जनता से जुड़ाव” साबित करने की कोशिश में ख़ुद निकोलस कार्यस्थलों का दौरा कर रहा था। वह प्रतापी लोगों के एक समूह से घिरा हुआ था और वर्दी व सादे कपड़ों में तैनात पुलिस उसकी सतर्कतापूर्वक रखवाली कर रही थी। उसने पुतिलोव और अन्य संस्थानों का दौरा किया। यह सारा का सारा कार्यक्रम देशभक्तिपूर्ण प्रदर्शनों के सारे क़ायदों का उचित पालन करते हुए मंचित किया गया। ख़ुशी की किलकारियाँ, राष्ट्रगीत के गान, चित्र-प्रतीकों का प्रदर्शन, सब कुछ एक नाटक की तरह चला।

लेकिन मज़दूरों के बीच वास्तव में क्या चल रहा था, उनके बीच क्रान्तिकारी प्रचार को किस प्रकार चलाया जा रहा था और उनकी वास्तविक भावनाएँ क्या थीं, इसकी कोई सूचना हमें नहीं मिल रही थी और यह मुमकिन भी नहीं था।

हमारी गिरफ़्तारी के दो या तीन दिन बाद हमसे पहली बार पूछताछ की गयी और जब हम एक साथ आये तो हमें कुछ शब्दों के आदान-प्रदान का मौक़ा मिल गया था। हालाँकि, हमें जल्दी ही अलग कर दिया गया था और हमसे अलग-अलग पूछताछ हुई।

ओज़ियोर्की में तलाशी के दौरान हम इस बात पर सहमत थे कि हर सम्भव कोशिश करके हम वह सब कुछ करेंगे जिससे पुलिस को यह साबित करने से रोका जा सके कि हमने कोई पार्टी सम्मेलन आयोजित की थी। हम सभी महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों, कार्यवृत्त, कार्यसूची, इत्यादि को नष्ट करने में कामयाब रहे, और हमने यह कहने का निर्णय लिया कि हम एक दोस्ताना मुलाक़ात के लिए श्रीमती गैव्रीलोव के मेहमान थे। जाँच मजिस्ट्रेट द्वारा जब पूछताछ की गयी तो हमने यही तरीक़ा अपनाया और किसी ने दोष स्वीकार नहीं किया। हमने बताया कि हम श्रीमती गैव्रीलोव के मेहमान के रूप में आये थे और इस मौक़े पर मज़दूर-वर्ग के संगठनों, बीमा-सम्बन्धी मामलों, अख़बार के प्रकाशन आदि के बारे में कई सवालों पर हमने चर्चा की और यह स्वाभाविक ही था कि मज़दूरों के कुछ प्रतिनिधियों से मिलने के लिए हम इस मौक़े का फ़ायदा उठायें क्योंकि हमारे धड़े से जाकर मिलना किसी भी व्यक्ति को पुलिस की निगाहों में संदिग्ध बना देता। हमारे पास पार्टी साहित्य बरामद होने के बारे में हमने यह बताया कि प्रतिनिधियों के तौर पर हमें विभिन्न राजनीतिक रुझानों की जानकारी रखनी पड़ती है। जब युद्ध के प्रति हमारे रवैये के बारे में पूछा गया तो मजिस्ट्रेट के सामने हमने दूमा के 26 जुलाई के सत्र में दोनों सामाजिक-जनवादी धड़ों द्वारा पढ़ी गयी घोषणा का हवाला दिया।

शागोव ने कहा कि श्रीमती गैव्रीलोव से उसकी जान-पहचान तब हुई जब वह किसी काम से हमारे धड़े से मिलने आयी थीं और बाद में जब वह उससे रास्ते में मिलीं तो उन्होंने उसे और अन्य प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया कि वे उससे मिलने आयें। उनके मकान में कोई सम्मेलन नहीं हुआ था और न ही वहाँ किसी प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया गया था, सारी बातचीत बीमा संघों और एक अख़बार के प्रकाशन के बारे में होती रही।

मैंने बताया कि मैं श्रीमती गैव्रीलोव के निजी आमंत्रण पर वहाँ गया था। उस आमंत्रण का इस मामले से कोई लेना-देना नहीं था। हमारे बीच बस कुछ आम बातचीत हुई, जैसाकि इस तरह के मौक़ों पर दोस्तों के बीच हुआ करती है। न कोई सम्मेलन आयोजित किया गया और न ही किसी प्रस्ताव पर चर्चा की गयी।

कुछ भेद पाने की कोशिश में मजिस्ट्रेट लगातार मुझसे सम्मेलन में आये सेण्ट पीटर्सबर्ग के प्रतिनिधियों, एंतिपोव और कोज़लोव, के साथ मेरे सम्बन्धों के बारे में पूछताछ करता रहा। वे दोनों सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी के सदस्य थे और एंतिपोव सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी की कार्यकारिणी से सम्बन्धित था। मैंने एंतिपोव के साथ अपनी जान-पहचान के बारे में कहा कि जब वह बेरोज़गार था तो मुझसे मिलता था और काम पाने के लिए मुझसे मदद माँगी थी। उसी मक़सद से वह मुझसे मिलने गैव्रीलोव के मकान में आया था। मैंने कहा कि कोज़लोव को सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित एक पत्रिका के प्रकाशन के बारे में बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया गया था, और कामेनेव से मेरी मुलाक़ात प्राव्दा के कार्यालय में हुई थी, जिसमें उसने सहायता की थी। मेरे लिए यह समझाना सबसे मुश्किल था कि मेरे पास किसी दूसरे नाम का पासपोर्ट कैसे आया। मैंने कहा कि मज़दूर अक्सर इस अनुरोध के साथ मेरे पास अपना पासपोर्ट लेकर आते कि मैं उन्हें स्टेट दूमा के सार्वजनिक दीर्घा का पास दिलाने की कोशिश करूँ। और तब कभी-कभी लम्बे समय तक ये दस्तावेज़ मेरे पास ही पड़े रहते, जब तक कि उनके मालिक आकर इसे वापस नहीं ले जाते। मेरे पास जो पासपोर्ट मिला है उसके साथ भी यही मामला था। इस सफ़ाई से मजिस्ट्रेट सन्तुष्ट तो नहीं हुआ, लेकिन इसके आगे मुझसे कुछ और हासिल कर पाने में वह नाकाम रहा।

पेत्रोव्स्की ने भी इसी तरह के जवाब दिये। उसे मेहमान के रूप में बुलाने के पीछे कोई ख़ास मक़सद नहीं था और उसने यह बताने से इन्कार कर दिया उसे किसने आमंत्रित किया था। वह गैव्रीलोव के मकान में प्रतिनिधियों और कामेनेव के अलावा और किसी को भी नहीं जानता था। उसके पास मिले सभी दस्तावेज़ उसके पास या तो डाक के माध्यम से आये या संदेशवाहकों के ज़रिये अज्ञात व्यक्तियों की तरफ़ से आये थे। युद्ध पर निबन्ध में संशोधन उसकी लिखावट में तो किये गये थे मगर उन्हें किसी दूसरे व्यक्ति ने प्रस्तावित किया था, जिसका वह नाम नहीं बताना चाहता है और दूमा सम्बन्धी अपने काम में उसका इरादा इन बदलावों का उपयोग करने का था। पेत्रोव्स्की ने आगे कहा कि उसके पास पाये गये केवल इन दस्तावेज़ों के आधार पर युद्ध के बारे में उसके रवैये का मूल्यांकन करना नामुमकिन था।

सेमोयलोव ने कहा कि गैव्रीलोव के घर पर संयोगवश ही लोगों से मुलाक़ात हो गयी थी, कुछ लोग वहाँ अपने प्रतिनिधियों से बातचीत करने के लिए आये थे। उसके पास बरामद सवालों की सूची इसलिए थी कि कुछ भूल जाने पर वह उससे मदद ले सके, उसे यह जानकारी चाहिए थी कि जब वह विदेश में इलाज करवा रहा था तो उस दौरान यहाँ क्या-क्या हुआ था।

कामेनेव की सफ़ाई यह थी कि वह मज़दूर अख़बार के प्रकाशन का काम, जिसके लिए उसने पहले सहयोग किया था, फिर से शुरू करने के बारे में बातचीत करने उस मकान में आया था। उसने मिलने के लिए एक तीसरे व्यक्ति का घर चुना था क्योंकि पेत्रोव्स्की के मकान पर जाने से वह डरता था। बातचीत दिनभर की आम घटनाओं तक ही सीमित रही और वहाँ कोई सम्मेलन या प्रस्ताव हुआ ही नहीं। अन्त में, कामेनेव ने कहा कि पाये गये दस्तावेज़ों की सामग्री युद्ध पर उसके विचारों से मेल नहीं खाती।

हमारे साथ गिरफ़्तार अन्य साथियों में एंतिपोव, कोज़लोव, वोरोनीन, याकोवलेव, लिन्दे और श्रीमती गैव्रीलोव ने भी लगभग इसी तरह के बयान दिये। सभी ने अपने-अपने तरीक़े से यह स्पष्ट किया कि वे उस समय सेण्ट पीटर्सबर्ग में क्यों थे, उन्होंने कहा कि यह तो बस संयोग ही था कि उनकी मुलाक़ात उस मकान में हो गयी थी क्योंकि वे अपने प्रतिनिधियों से वहाँ मिलने आये हुए थे।

मुरानोव अधिक कठिन स्थिति में था। उसके नोटबुक में पार्टी के ग़ैर-क़ानूनी कार्यों से सम्बन्धित कई सारी टिप्पणियाँ ख़ुद उसकी लिखावट में थीं। मुरानोव इस नोटबुक को अपना कहने से मना नहीं कर सकता था, इसलिए उसने पूरी तरह चुप्पी साध ली और किसी तरह की गवाही देने से इन्कार कर दिया।

हम सभी से अलग-अलग पूछताछ की गयी और पहली पूछताछ के बाद मजिस्ट्रेट ने हमें व्यक्तिगत रूप से हाज़िर होने को कहा। हमें जेल में एक-दूसरे से सम्पर्क कर पाने का या यह जान पाने का मौक़ा ही नहीं मिला कि दूसरे साथियों ने क्या कहा था। प्रारम्भिक जाँच पूरी होने के बाद ही जब हमें उस सामग्री को जिसपर आरोप आधारित था, जाँचने की अनुमति दी गयी तब कहीं जाकर हम जान पाये कि क्या जवाब दिये गये थे।

प्रारम्भिक जाँच तेज़ी से आगे बढ़ी, क्योंकि सरकार मुक़दमे को उसी दरमियान निपटाने की हड़बड़ी में थी जब परिस्थितियाँ अनुकूल हों। हमारी गिरफ़्तारी और मुक़दमे की योजना पहले से ही तैयार कर ली गयी थी जिसकी वजह से किसी सघन जाँच-पड़ताल की कोई ज़रूरत ही न थी। मजिस्ट्रेट और वकीलों को ज़ब्त किये गये दस्तावेज़ों के आधार पर आरोपों को बस इस तरह तैयार करना था कि पहले से तय की गयी सज़ा सुनायी जा सके।

कोर्ट मार्शल का सवाल

छह हफ़्ते की क़ैद के बाद दिसम्बर के अन्त में प्रारम्भिक जाँच पूरी हो गयी थी और हमें फिर से जाँच मजिस्ट्रेट के सामने हाज़िर होने को कहा गया ताकि जाँच के निष्कर्षों से हम परिचित हो जायें। लम्बे अन्तराल के बाद हम एक दूसरे से मिले थे और मुक़दमे में अपने व्यवहार के सम्बन्ध में एक सहमति पर पहुँचने में हम सफल रहे थे। यह साबित करने के लिए कि यह धड़ा क्रान्तिकारी कामों का दोषी था प्रारम्भिक जाँच के निष्कर्षों को विस्तार से रखा गया था और इसमें हमसे लिये गये दस्तावेज़, हमारी जमा राशि, पुलिस द्वारा दर्ज की गयी सूचना, युद्ध के दौरान पीटर्सबर्ग में जारी की गयी विविध घोषणाएँ और कई दूसरे दस्तावेज़ शामिल थे। इन सारी चीज़ों को पढ़ने में कई दिन लग गये।

सारी बातें सैनिक अदालत द्वारा हम पर मुक़दमा चलाये जाने की सम्भावना की तरफ़ इंगित कर रही थीं और बाहर रह गये हमारे मित्रों के बीच भी यही विश्वास हावी था। वे चिन्तित थे और वकीलों की मदद से यह कोशिश कर रहे थे कि हमारा मामला सामान्य अदालत में चला जाये।

ओज़ियोर्की, जहाँ छापा पड़ा था, एक ऐसे ज़िले में स्थित था जहाँ सैनिक क़ानून की घोषणा हो चुकी थी। ग्रैविलोव के घर पर पुलिस का छापा सैनिक क़ानून के नियमों के तहत डाला गया था। इसलिए, औपचारिक तौर पर, सैनिक अदालत द्वारा हम पर मुक़दमा चलाया जा सकता था। और यह सरकार के लिए प्रशंसनीय ढंग से सुविधाजनक था जो राजद्रोह के अपराध में धड़े को एकबारगी और हमेशा के लिए निपटा देना चाहती थी।

इसलिए मुक़दमे को सामान्य अदालत को सौंप देने के फ़ैसले से हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। क़ानून के मुताबिक़ अभियुक्त को उस सारी सामग्री के निरीक्षण का अधिकार प्राप्त था जिनपर आरोप आधारित था। हमने इस अधिकार का उपयोग एक दूसरे से मुलाक़ात करने और बचाव की एक आम दिशा तैयार करने के लिए किया। जब हमने दूसरी बार यह सामग्री पढ़ना शुरू किया तो शुरुआत में हमें ज़ार का एक फ़रमान दिखा जिसमें निकोलस द्वितीय ने “आदेश किया था” कि मुक़दमे को सैनिक अदालत से निकालकर सामान्य अदालत को सौंप दिया जाये। इस मामले को अब पेत्रोग्राद उच्च न्यायालय के विशेष सत्र द्वारा लिया जाना था।

सरकार की योजनाओं के इस आकस्मिक परिवर्तन की किस प्रकार व्याख्या की जा सकती है? यह निस्सन्देह उस बदलाव को प्रतिबिम्बित करता था जो देश में घटित हो रहा था। फ़ौजी हारों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त और सेना की भयावह स्थिति की बढ़ती अफ़वाहों ने वर्चस्ववादी कोहरे को उड़ाना शुरू कर दिया था, जबकि इस बात के सारे संकेत मौजूद थे कि मज़दूर वर्ग का आन्दोलन, हालाँकि अभी कमज़ोर था, फिर से उभर रहा था। आये दिन आर्थिक हड़तालें होने लगी थीं और जनवरी 1915 में कुछ ज़िलों में राजनीतिक हड़तालें हुईं। अब सरकार और अधिक उन ख़बरों के भरोसे नहीं रह सकती थी कि मज़दूर प्रतिनिधियों की सज़ा का स्वागत राष्ट्रभक्ति के उल्लासपूर्ण जयकारों के साथ किया जा रहा है।

इन्हीं विचारों के कारण निकोलस द्वितीय को अपने ‘कृपापूर्ण’ फ़रमान पर मोहर लगानी पड़ी और सरकार को मज़दूरों के प्रतिनिधियों को गोली मारने के अपने पहले के इरादे को छोड़ना पड़ा।

मज़दूरों के प्रदर्शन की तैयारियाँ

मुक़दमा शुरू होने के ठीक पहले प्रकाशित एक घोषणा में सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी ने मज़दूरों के सामने यह स्पष्ट किया कि सरकार के पीछे हटने का मतलब क्या है :

मज़दूर प्रतिनिधियों पर मुक़दमा शुरू होने वाला है। पहले तो सरकार ने उनपर राजद्रोह का आरोप लगाना चाहा और इस झूठे अभियोग को अपने समाचारपत्रों में प्रकाशित कर दिया। लेकिन उनकी दाल नहीं गली। वे उनपर सैनिक अदालत में मुक़दमा चलाना चाहते थे परन्तु सर्वोच्च शासकों और आज थोक भाव से की जानेवाली हत्या के निर्देशकों ने मंत्रियों को, उन्हें मूर्ख के सम्बोधन से नवाजने के बाद बताया कि मज़दूरों के प्रतिनिधियों का कोर्ट-मार्शल करने का मतलब होगा स्वयं अपने ही हाथों हर तरफ़ असन्तोष के बीज बोना।

सरकार द्वारा “राजद्रोह”, “साज़िश” आदि की जो धुन्ध कुशलतापूर्वक फैलायी गयी थी वह मुक़दमे के समय तक काफ़ी हद तक उड़ चुकी है। मुक़दमे का विवरण देने वाले अख़बारी रिपोर्ट इस तथ्य को छिपा नहीं सके थे कि दूमा के मज़दूर प्रतिधियों पर यह मुक़दमा उनकी राजनीतिक सक्रियताओं के कारण है। सरकार ने फिर से पहले जैसा प्रभाव पैदा करने के लिए अपने वफ़ादार कुत्ते ब्लैक हण्ड्रेड प्रेस को मैदान में उतार दिया है, जिसने ज़ोर-ज़ोर से भौंककर जनता का आक्रोश दिखाने की कोशिश की। ब्लैक हण्ड्रेड के सारे अख़बारों ने “अपराधियों” के लिए सख़्त सज़ा की माँग की, उस पूरे झुण्ड में कोई भी स्वेत (लाइट) से ज़्यादा भयानक और निर्दयी न था।

स्वेत ने धड़े पर यह दोषारोपण किया कि वह पश्चिमी यूरोपीय समाजवादियों के क़दमों का अनुसरण नहीं कर रहा, और बेशक वह “जर्मन स्वर्ण” का हवाला देने से नहीं चूका, जो आगे जाकर बोल्शेविकों के ख़िलाफ़ सबसे अधिक प्रयोग में आनेवाला दोषारोपण बन गया। जी भर गालियों की बौछार करने के बाद स्वेत ने लिखा :

ऊँचे पद पर बैठनेवाले ये निकम्मे लोग – जो कदाचित अपना स्वर्ण न छोड़नेवाले जर्मन एजेण्टों के प्रभाव में हैं – इतने प्रत्यक्ष रूप से जर्मनी के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं कि उनकी तरफ़ से कोई निर्दोष भूल हो जाये इसका सवाल ही नहीं उठता जबकि वे समाजवाद की घातक सीख के अनुरूप काम कर रहे हों। समाजवादी दूसरे देशों में भी मौजूद हैं, लेकिन हर जगह, इंग्लैण्ड, फ़्रांस, और बेल्जियम में, जैसे ही युद्ध की घोषणा हुई, उन्होंने देश के भीतर अपने संघर्षों को त्याग दिया और भयंकर शत्रु, जर्मन सैन्यवाद के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय क़तारों में शामिल हो गये।

यहाँ तक कि जर्मन समाजवादियों ने भी युद्ध की अवधि तक अपने हवाई सपनों (यूटोपिया) का परित्याग कर दिया और अपने बुर्जआ मित्रों के समान आचरण कर रहे हैं। ये केवल माननीय दूमा के समाजवादी ही हैं जो रूसी मज़दूरों को बुराई के ख़िलाफ़ अप्रतिरोध, किसी भी क़ीमत पर शान्ति आदि सिद्धान्तों पर आचरण करने की सलाह देते हैं और सिर्फ़ रूसी समाजवादी ही ऐसे हैं जो युद्ध के समय आन्तरिक उपद्रव भड़काने की कोशिश करते हैं।

समाचार पत्र ने यह माँग की, “सामने आ चुकी साज़िश के नेताओं को, जिन्होंने विश्वासघात की अपनी कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए संसदीय छूट की आड़ लेने की धृष्टता की, कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये।”

सरकार और ब्लैक हण्ड्रेड को दो सालों तक बोल्शेविक धड़े की सक्रियता को बर्दाश्त करने के लिए बाध्य होना पड़ा था। हालाँकि उसके उद्देश्य को वे बहुत अच्छी तरह समझते थे परन्तु क्रान्तिकारी विस्फ़ोट होने की आशंका के चलते वे कार्रवाई करने से डर रहे थे। अब जब कि वे छलांग लगा ही चुके थे उन्होंने ठान लिया कि हमें ख़त्म कर डालेंगे। पार्टी का कार्यभार था मज़दूर वर्ग को आन्दोलित करना और यह जता देना कि कोई भी सज़ा, चाहे वह कितनी भी सख़्त क्यों न हो मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को रोक नहीं सकती और देर सबेर मज़दूरों को अपने दुश्मनों का सामना बैरिकेडों पर करना होगा।

हमारे पार्टी संगठन मुक़दमे के लिए ज़ोर-शोर से तैयारी कर रहे थे। पुलिस की सख़्त निगरानी और पार्टी क़तारों में तमाम कमियों के बावजूद, सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी ने मुक़दमे से सम्बन्धित कई पर्चे जारी किये, एक नमूना निम्नलिखित है :

पिछले दो वर्षों की घटनाएँ याद करें। दूमा में मज़दूरों के हितों की रक्षा किसने की थी? अधिकारियों के ग़ैरक़ानूनी कार्यों से सम्बन्धित सवालों से किसने मंत्रियों को सबसे अधिक परेशानी में डाला था? फ़ैक्टरी में हुए विस्फ़ोटों आदि में जाँच की माँग किसने की थी? अत्याचार के शिकार बने साथियों के लिए किसने सहयोग संगठित किया? किसने प्राव्दा और प्रोलेतरस्काया प्राव्दा का प्रकाशन किया? युद्ध में लाखों लोगों के क़त्ल और अंगभंग के ख़िलाफ़ किसने प्रतिरोध किया? इन सवालों का एक ही जवाब है – मज़दूरों के प्रतिनिधियों ने। उन्हें अपनी सक्रियता की ख़ातिर कड़े परिश्रम के लिए भेज दिया जायेगा। मज़दूरों का काम इन मज़दूर प्रतिनिधियों को बचाना है। उदारवादी सरकारी सुख का मज़ा ले रहे हैं। त्रुदोविक और च्खेदज़े धड़ा मानो अचानक गूँगा और बहरा हो गया है….

तब मज़दूर प्रतिनिधियों का बचाव कौन कर सकता है? केवल वही लोग जिन्होंने उन्हें चुना और समर्थन दिया है। केवल सर्वहारा ही यह साबित कर सकता है कि यह मुक़दमा उनके लिए एक अहम मसला है और वे इसे चुपचाप और उतनी आसानी से नहीं गुज़रने देंगे जैसाकि मंत्री, उदारवादी और सीक्रेट पुलिस चाहती है।

इस घोषणा के प्रकाशित होने के पूर्व जनवरी 9 (22) की वार्षिकी पर कुछ पर्चे जारी किये गये थे, जिसमें धड़े पर मुक़दमे के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का नारा लिखा हुआ था – “मज़दूर वर्ग अपने प्रतिनिधियों के इस घृणित अपमान के ख़िलाफ़ प्रतिरोध करे। उस दिन काम बन्द रखनेवाले अपनी क़तारों के साथ चलने में अपनी पूरी ताक़त लगा दें ….”

गुप्त पुलिस ने मुक़दमे की तैयारी के लिए जुझारू मज़दूरों की और गिरफ़्तारियाँ कीं। लेकिन पार्टी कमेटी ने फ़ैक्टरियों और कार्यस्थलों पर सघन आन्दोलन संचालित किया। मुक़दमे के एक दिन पहले सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी ने हड़तालों और प्रदर्शनों का आह्वान करते हुए एक और घोषणा जारी की :

साथियो! कठघरे में मज़दूर वर्ग है, जिसकी नुमाइन्दगी वे प्रतिनिधि करते हैं, जिन्हें मज़दूरों ने चुना है और जिन्होंने मज़दूरों के साथ पूर्ण सहमति में काम किया है…. बन्दूक़ों की गड़गड़ाहट और तलवारों की खनखनाहट के साये तले सरकार मज़दूर वर्ग के एक और धड़े को ज़िन्दा दफ़न कर देने का इरादा रखती है।

मज़दूर साथियो! आइए हम दुश्मन के आकलन को ग़लत साबित कर दें, इस संकट की घड़ी में, जब हमारे प्रतिनिधियों को कड़े परिश्रम की धमकी दी जा रही हो, आइए यह साबित कर दें कि हम उनके साथ हैं। आइए उनके साथ अपनी एकजुटता की घोषणा करें और यह दिखा दें कि हम अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को बचाने के संघर्ष के लिए तत्पर हैं।

मज़दूर साथियो! 10 फ़रवरी को हड़ताल में उतर पड़ो, सभाएँ और प्रदर्शन आयोजित करो, मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ ज़ारशाही तिरस्कार का प्रतिरोध करो….

यूनाइटेड स्टूडेण्ट्स कमेटी के उसी दिन जारी होनेवाले पर्चे में, “सर्वहारा के प्रतिरोध को सभाओं, हड़तालों और प्रदर्शनों के ज़रिये समर्थन देने के वास्ते” क्रान्तिकारी छात्रों का आह्वान किया गया था।

सेण्ट पीटर्सबर्ग कमेटी की ये घोषणाएँ मज़दूरों के बीच प्रचारित कर दी गयीं, जिसने उनकी क्रान्तिकारी भावना को भड़का दिया और जो गुप्त पुलिस की ख़ासी चिन्ता का कारण बना। सैनिक क़ानून के तहत व्यापक शक्तियों से लैस पुलिस ने मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी भावना के किसी विस्तार को रोकने के लिए सुरक्षात्मक उपाय किये। मुक़दमे के दिन सभी मुख्य फ़ैक्टरियों और कार्यस्थलों पर भारी तादाद में पुलिस तैनात थी और अदालत के चारों ओर सड़कों पर पुलिस की टुकड़ियाँ गश्त लगा रही थीं।

इन एहतियाती उपायों से दबा दिये जाने के कारण हड़ताल बहुत व्यापक शक्ल अख़्तियार नहीं कर सकी, लेकिन जगह-जगह कई हड़तालें हुईं और मज़दूरों ने अदालत तक जुलूस निकालने के कई प्रयास किये। छात्रों ने कई सारी सभाएँ कीं और प्रतिरोध के प्रस्ताव पारित किये। पुलिस के भयंकर दमन के माहौल में, जबकि मज़दूर दबे आक्रोश से उबल रहे थे, दूमा के बोल्शेविक धड़े का मुक़दमा शुरू हुआ।

मज़दूर प्रतिनिधियों के मुक़दमे में उदार बुर्जुआ वर्ग की चुप्पी ने उनके सन्तोष को उजागर कर दिया था। मुक़दमे के ठीक पहले कैडेटों ने अपनी पार्टी के किसी भी सदस्य को बतौर बचाव वकील काम करने से मना कर दिया और अपना निर्णय युद्ध के बारे में हमारे विचारों के साथ अपनी असहमति पर आधारित किया। कैडेटों ने सख़्त सज़ा के उस फ़ैसले पर पहले ही मुहर लगा दी थी जिसे ज़ारशाही की सरकार ने तैयार किया था।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019


 

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