दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा न्यूनतम मज़दूरी में काग़ज़ी बढ़ोत्तरी

दिल्ली में सत्तासीन केजरीवाल सरकार ने बड़े ज़ोरशोर से एक प्रेस वार्ता के माध्यम से घोषणा की कि अब दिल्ली में न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोत्तरी की जा रही है। यानी दिल्ली में अब अकुशल मज़दूर को 14,842 (प्रति दिन 571 रु.), अर्धकुशल मज़दूर को 16,341 (प्रति दिन 629 रु.) और कुशल मज़दूर को 17,991 (प्रति दिन 692 रु.) वेतन मिलेगा । दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी यह कह डाला कि देश में चल रही आर्थिक मन्दी का असर दिल्ली के मज़दूरों पर नहीं होगा क्योंकि उनकी सरकार द्वारा अब न्यूनतम मज़दूरी बढ़ा दी गयी है।

केजरीवाल ने प्रेस वार्ता के दौरान इस न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने को एक बड़ी जीत कहा और इसके लिए उनकी पार्टी द्वारा किये गये “संघर्ष” की एक कहानी भी सुनायी कि किस तरह जब केजरीवाल सरकार ने पिछले समय न्यूनतम मज़दूरी बढ़ायी तो दिल्ली के फ़ैक्टरी मालिकों ने इसके ख़िलाफ़ एक याचिका दिल्ली हाईकोर्ट में डाल दी थी और इस याचिका पर हाईकोर्ट ने मालिकों के पक्ष में फ़ैसला देते हुए बढ़ी हुई न्यूनतम मज़दूरी को ‘असंवैधानिक’ बताते हुए ख़ारिज कर दिया; जिसके चलते कुछ समय के लिए बढ़ी हुई न्यूनतम मज़दूरी रोककर पुनः पुरानी न्यूनतम मज़दूरी दी जाने लगी थी। फिर केजरीवाल सरकार हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट गयी और अभी हाल ही में (14 अक्टूबर 2019) सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल सरकार के पक्ष में फ़ैसला देते हुए न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने को सही ठहराया। इस पूरी नौटंकीभरी कहानी में वास्तव में मज़दूरों का वेतन बढ़ा ही नहीं था और न अब नयी न्यूनतम मज़दूरी वास्तव में लागू होने वाली है।

मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा यह भी दावा किया जा रहा है कि अब पूरे देश में सबसे ज़्यादा न्यूनतम मज़दूरी दिल्ली में मिलेगी। पर जब वास्तव में बढ़ी हुई न्यूनतम मज़दूरी लागू ही नहीं होती तो यह एक काग़ज़ी घोषणा से ज़्यादा कुछ नहीं है। जब आपको न्यूतनतम मज़दूरी वास्तव में लागू ही नहीं करवानी तो आप उसकी राशि कुछ भी रख सकते हैं; कल ‘आप’ कहने लगें अब न्यूनतम मज़दूरी 50,000 है और दुनिया की सबसे ज़्यादा न्यूनतम मज़दूरी है; और ऐसी हवाई घोषणा का मज़दूरों के लिए कोई मतलब नहीं है।

सच्चाई यह कि दिल्ली विधानसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व की गयी यह घोषणा महज़ एक काग़ज़ी घोषणा है। वातस्व में दिल्ली के लगभग 98 फ़ीसदी मज़दूरों के लिए यह वेतन बढ़ोत्तरी होगी ही नहीं। दिल्ली में काम करने वाले मज़दूर भी जानते हैं कि उनके लिए यह घोषणा बहुत बड़ा झूठ और फूहड़ मज़ाक़ है। दिल्ली में दो दर्जन से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों में लाखों मज़दूर स्त्री-पुरुष आठ घण्टे काम के लिए हर माह मात्र 5000 से 8000 रुपये तक में खटते हैं। जब दिल्ली के अधिकतकर मज़दूरों को न्यूनतम वेतन ही नहीं मिलता तो ईएसआई और पीएफ तो बहुत दूर की बात है। यहाँ तक कि दिल्ली सरकार के अस्पतालों व सरकारी स्कूलों में काम कर रहे ठेका मज़दूरों को भी वास्तव में इस वेतन बढ़ोत्तरी का कोई लाभ मिल नहीं पाता है। सरकारी विभागों में ठेकेदार काग़ज़ों में क़ानून का पालन होते दर्शा देते हैं; पर वास्तव में मज़दूरों को यह मज़दूरी नहीं मिलती। यह बात सरकार भी जानती है। दिल्ली में मज़दूरों के वेतन बढ़ोत्तरी की ऐसी काग़ज़ी घोषणाएँ दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा भी की जाती रही हैं।

आम आदमी पार्टी और केजरीवाल सरकार को अगर वाक़ई मज़दूरों की इतनी चिन्ता है तो उनकी सरकार को पिछली न्यूनतम मज़दूरी (13,350 रुपये) और ईएसआई और पीएफ को सख़्ती से लागू करवाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया जाता है; इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अन्य चुनावबाज़ पार्टियों की तरह ‘आप’ पार्टी भी दिल्ली के फ़ैक्टरी मालिकों से चुनावी चन्दा लेती है, बल्कि आप के कई विधायक ख़ुद फ़ैक्टरी मालिक भी हैं। ख़ुद उनके कारख़ानों में न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जाती है। दिल्ली की सत्ता में रह चुकी पूँजीपतियों की अन्य पार्टियों, कांग्रेस और भाजपा की तुलना में आम आदमी पार्टी में बस इतना अन्तर है कि केजरीवाल सरकार श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का ढोंग ज़रूर करती दिखती है। इनकी सरकार ने माना कि दिल्ली में न्यूनतम वेतन लागू न होने की वजह यह थी कि ‘न्यूनतम वेतन अधिनियम, 1948’ के तहत अभी दिल्ली में न्यूनतम वेतन न देने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई के प्रावधान नहीं थे। आप सरकार के संशोधित प्रावधान के अनुसार मज़दूरों को तय न्यूनतम वेतनमान से कम पर नौकरी पर रखने वाले नियोक्ताओं पर जुर्माने की रक़म 500 रुपये से बढ़ाकर 20 से 50 हज़ार रुपये तक कर दी गयी है। साथ ही इसमें एक से तीन साल तक की जेल की सज़ा या दोनों का प्रावधान किया गया है। पर यह भी एक हवा-हवाई बात ही है; दिल्ली में न्यूनतम मज़दूरी सहित श्रम क़ानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं; पर आज तक एक भी मालिक पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है। हालाँकि जितनी सख़्ती मज़दूर विरोधी नया मोटर वाहन क़ानून को लागू करने में मोदी सरकार ने दिखायी है (जिसकी भूरि‍-भूरि‍ प्रशंसा केजरीवाल ने भी की थी) उतनी सख़्ती पूँजीपतियों की कोई भी सरकार कभी श्रम क़ानूनों को लागू करवाने में नहीं करती। इससे भी साफ़ होता है कि ऐसी घोषणा भी एक जुमला ही है।

नयी न्यूनतम मज़दूरी लागू करवाना केजरीवाल सरकार के लिए एक रस्म अदायगी ही है, क्योंकि असल में केजरीवाल सरकार की मज़दूरों को न्यूनतम वेतन देने की कोई मंशा नहीं है। केजरीवाल को चुनाव में चन्दा देने वाली एक बड़ी आबादी दिल्ली के छोटे-बड़े दुकानदारों, फ़ैक्टरी मालिकों और ठेकेदारों की है, वह इन्हें निराश कर मज़दूरों के जीवन स्तर को नहीं सुधार सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाली आबादी के पास यह साबित करने का कोई भी तरीक़ा नहीं है कि वे किस फ़ैक्टरी में काम करते हैं, अगर यह साबित हो जाये तो मालिक अपनी फ़ैक्टरी का नाम बदल देता है और बताता है कि पुरानी फ़ैक्टरी में तो वह मालिक ही नहीं था और इसके बाद श्रम विभाग मज़दूर पर यह ज़िम्मेदारी डाल देता है कि वह साबित करे कि मालिक कौन है।

इस घोषणा के बारे में ख़ुद विधायक और निगम पार्षद ही दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में प्रचारित नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे या तो ख़ुद फ़ैक्टरी मालिक हैं या उनके चन्दे पर चुनाव जीतकर आये हैं। यह बात कुछ तथ्यों से ही साफ़ हो जाती है। जब 2013 में पहली बार केजरीवाल की सरकार बनी थी तो इसी केजरीवाल सरकार का पहला श्रम मंत्री गिरीश सोनी चमड़े की फ़ैक्टरी का मालिक था, जिसमें मज़दूरों को न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता था। वज़ीरपुर के विधायक राजेश गुप्ता और निगम पार्षद विकास गोयल की वज़ीरपुर इण्डस्ट्रियल एरिया में फ़ैक्टरियाँ हैं, जहाँ न्यूनतम वेतन तो दूर हर श्रम क़ानून की धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। जब विधायक महोदय की ख़ुद की फ़ैक्टरी में न्यूनतम वेतनमान नहीं लागू होता, तो क्या वे वज़ीरपुर के अपने मालिक भाइयों की फ़ैक्टरियों में न्यूनतम वेतन लागू करवायेंगे?

यही हाल आम आदमी पार्टी के अन्य विधायकों का है, क्योंकि केजरीवाल के पचास प्रतिशत से अधिक विधायक करोड़पति हैं यानी बड़े दुकानदार, व्यापारी या फ़ैक्टरी मालिक हैं। साफ़ है कि मज़दूरों के लिए आम आदमी पार्टी व कांग्रेस-भाजपा में कोई अन्तर नहीं है। अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के लिए बने क़ानूनों को तो मालिक और ठेकेदार मानते ही नहीं हैं। दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों को आज भी 5 से 6 हज़ार रुपये मिलते हैं। किसी को भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिल पाती। ख़ुद सरकारी विभागों में इसका खुलेआम उल्लंघन होता है। पूरे देश में सरकारी विभागों तक में 70 प्रतिशत के क़रीब मज़दूर ठेके पर, आउटसोर्सिंग, प्रोजेक्ट आदि के तहत आरज़ी तौर पर काम कर रहे हैं। सरकारी विभागों में क्लर्क, अध्यापक, टेक्निशियन आदि से हस्ताक्षर किसी और राशि पर करवाये जाते हैं और दिया कुछ और जाता है। बेरोज़गारी के आलम की वजह से मजबूरी में हस्ताक्षर कर भी दिये जाते हैं। फ़ैक्टरियों में मालिक मज़दूर से पहले ही ख़ाली काग़ज़ पर अँगूठा लगवाकर रख लेता है। ईएसआई कार्ड बनवाता है तो उसे हर दूसरे-तीसरे महीने रद्द करवा देता है और फिर से नया कार्ड बनवाता है ताकि अगर वह किसी केस में फँसे तो दिखा सके कि फलाँ मज़दूर तो उसके यहाँ हाल में ही काम करने आया है।

यह सब केजरीवाल के फ़ैक्टरी मालिक, व्यापारी और करोड़पति विधायकों या उनके करोड़पति समर्थकों को पता है। पिछले दिनों आयी कैग की रिपोर्ट इनकी हक़ीक़त सामने ला देती है। इस रिपोर्ट के अनुसार कारख़ाना अधिनियम, 1948 का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है। वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25% पंजीकृत कारख़ानों का निरीक्षण किया गया। निश्चित ही, इस क़ानून से जिसको थोड़ा-बहुत फ़ायदा पहुँचेगा, वह सरकारी कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र का छोटा-सा हिस्सा है, परन्तु यह लगातार सिकुड़ रहा है। दिल्ली की 65 लाख मज़दूर आबादी में क्या न्यूनतम मज़दूरी का संशोधित क़ानून घरेलू कामगारों, ड्राइवरों, प्राइवेट सफ़ाईकर्मियों आदि पर लागू हो पायेगा?

90 प्रतिशत मज़दूर आबादी जो दिहाड़ी, कैज़ुअल, पीस रेट, ठेके पर काम कर रही है, उसे न्यूनतम मज़दूरी क़ानून के मुताबिक़ मज़दूरी मिल पा रही है या नहीं इसकी कोई भी जानकारी दिल्ली सरकार के पास नहीं है। चुनाव में वायदा करके भी यह अब तक ठेका क़ानून को लागू नहीं करवा पायी। श्रम विभाग की स्थिति की अगर बात करें तो उसके पास इतने कर्मचारी भी नहीं हैं कि सभी औद्योगिक क्षेत्रों व अन्य मज़दूरों की शिकायतों की जाँच-पड़ताल की जा सके।

साफ़ है कि देश की राजधानी में जब मज़दूर इतनी अमानवीय, नारकीय स्थितियों में काम कर रहे हैं तो पूरे देश के मज़दूरों की दशा क्या होगी। वैसे देश में मज़दूरों के हित के लिए 260 श्रम क़ानून बने हुए हैं लेकिन ये “श्रम क़ानून” “शर्म क़ानून” बनकर रह गये हैं।

अगर हम इस असम्भव बात को एक बार मान भी लें कि मज़दूर को वर्तमान न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार वेतन मिलने लगे, तो भी मज़दूर की ज़िन्दगी के हालात में कोई ज़मीन-आसमान का अन्तर नहीं आयेगा। वैसे भी आज सरकार जिन मापदण्डों पर न्यूनतम मज़दूरी तय करती है वे नाकाफ़ी और अधूरे हैं क्योंकि इसमें केवल मज़दूर के भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं को ही आधार बनाया जाता है। इसलिए न्यूनतम मज़दूरी रेखा वास्तव में कुपोषण-भुखमरी रेखा है। आज सभी मज़दूर साथी जानते हैं कि सारे श्रम क़ानून ठेकेदारों और मालिकों की जेब में रहते हैं वहीं दूसरी ओर क़ानूनों को लागू करने वाले श्रम विभाग में चपरासी से लेकर अफ़सरों तक घूस का तंत्र चलता है। “पैसा फेंको, तमाशा देखो!” और ऐसा भी नहीं है कि इस गोरखधन्धे की ख़बर नेताओं-मंत्रियों को न हो। क्योंकि दिल्ली में ही कई बड़े नेताओं की फ़ैक्टरियाँ चल रही हैं जहाँ कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। साथियो! लम्बे संघर्षों और क़ुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार हमने हासिल किये थे, उनमें से ज़्यादातर हमसे छीने जा चुके हैं। जो शेष काग़ज़ों पर मौजूद भी हैं उनका व्यवहार में कोई मतलब नहीं रह गया है। ज़ाहिरा तौर पर, मज़दूरों की असली मुक्ति तो मेहनतकश सत्ता के क़ायम होने पर ही होगी। लेकिन आज चुपचाप अन्याय और अत्याचार सहने से क्या यह बेहतर नहीं कि हम एकजुट होकर अपने हक़-अधिकार की लड़ाई को तेज़ कर दें?

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019


 

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