महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे और भविष्य की चुनौतियाँ
– भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI), महाराष्ट्र इकाई
देश में अभूतपूर्व मन्दी है और बेरोज़गारी चरम सीमा पर है। नोटबन्दी, जीएसटी, मंत्रीगणों की बेशर्म बातें लोग अभी भूले नहीं हैं। महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में घोटाले, जनवादी संस्थाओं पर हमले, भयंकर बेरोज़गारी, महँगाई, बाढ़ पीड़ितों का ग़ुस्सा और देश के स्तर पर भाजपा की फ़ासीवादी मोदी सरकार के कारनामों के चलते जनता में बड़े पैमाने पर असन्तोष था। इसके बावजूद फ़ासीवादी भाजपा-शिवसेना सबसे अधिक सीटें ले आये। भले ही उनकी सीटें उनकी उम्मीद से काफ़ी कम रहीं जिसके चलते अब चारों बड़ी पार्टियों के बीच सरकार बनाने की की कुत्ताघसीटी चल रही है।
इतने अलोकप्रिय होने के बावजूद भाजपा-शिवसेना को अधिक सीटें मिलने का कारण यही है कि अर्थव्यवस्था का संकट क़ायम है और जनता का दमन करने की आवश्यकता भी। इस काम को अंजाम देने के लिए मालिक, पूँजीपति, बिल्डर आदि की चहेती पार्टी अब भी भाजपा है, उनका ‘लौहपुरुष’ मोदी है। इसलिए इस पूँजीपति वर्ग के पैसे के दम पर हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च करके, मीडिया के सहारे, और आर.एस.एस. के काडर के दम पर, जनता के ग़ुस्से के बावजूद, रोज़गार-महँगाई-मन्दी के बरक्स कश्मीर-मन्दिर-बांग्लादेशी जैसे विभाजनकारी मुद्दों पर प्रचार करके एक बार फिर से भाजपा-शिवसेना जनता के एक विचारणीय हिस्से को प्रभावित करने में सफल रहे हैं। इसका एक कारण जनता के बीच राजनीतिक वर्ग चेतना की कमी भी है। कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सीटें बढ़ने से कई लोग बेवजह उत्साहित दिख रहे हैं साथ ही यह भी बात चल रही है कि अगर वंचित बहुजन अघाड़ी ने कांग्रेस गठबन्धन की कुछ सीटें नहीं खायी होती तो नतीजों की तस्वीर कुछ और होती। ऐसी बातें करने वाले अभी तक जोड़-घटाव की राजनीति से बाहर नहीं आये हैं। सच्चाई यही है कि भाजपा-शिवसेना की विजय हुई है। इसमें ईवीएम धाँधली की भी कुछ भूमिका होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यही तो आज के फ़ासीवाद की ख़ासियत है कि वह पूँजीवादी लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं के केवल खोल ही रखता है, उसकी अन्तर्वस्तु को समाप्त कर देता है। इसलिए चुनाव आयोग, चुनाव की प्रक्रिया, न्यायपालिका, नौकरशाही, सशस्त्र बलों व पुलिस के भीतर तक फ़ासीवादी संघ परिवार ने अपनी जड़ें जमायी हैं और उसी के बूते आज वह अपने फ़ासीवादी मन्सूबों को अन्जाम दे रही है। वैसे भी यदि कांग्रेस-एनसीपी या वंचित बहुजन अघाड़ी, मनसे जैसा कोई भी पक्ष सत्ता में आये भी तो हम मज़दूर-मेहनतकशों को निजीकरण, छँटनी, तालाबन्दी, आदि नीतियों से छुटकारा नहीं मिलेगा क्योंकि इन सारी पार्टिर्यों का भी असली मक़सद मज़दूरों के शोषण से मालिकों की सेवा करना ही है। यह ज़रूर है कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी भाजपा-शिवसेना गठबन्धन और अन्य पूँजीवादी चुनावी दलों में अन्तर है। फ़ासीवाद मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि यह पूँजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नग्न तानाशाही की नुमाइन्दगी करता है और इसके लिए निम्न-पूँजीपति वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करता है, जिसका चरित्र साम्प्रदायिक, जातिवादी, नस्लवादी, क्षेत्रवादी या अन्य किसी प्रकार का अस्मितावाद हो सकता है।
भाजपा को अकेले बहुमत न मिलने के चलते फिर से एक बार सत्ता और पूँजीपतियों की दलाली के हिस्से के लिए मोलभाव शुरू हो गया है। ‘महाजनादेश’ की बात करने वाले भाजपा-शिवसेना की सीटें कम होने के बाद शिवसेना ने भाजपा को तेवर दिखाये और कई दिन चले मोलभाव के बावजूद “हिन्दू-एकता” की बात करने वाली दोनों पार्टियों में समझौता नहीं हो पाया।
मौक़ा देखकर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस शिवसेना को समर्थन देकर सरकार बनाने की कोशिश में लग गये हैं। सेक्युलरिज़्म की बात करने वाली इन दोनों पार्टियों को 1992 में मुम्बई में भयंकर दंगों को अन्जाम देने वाली, बाबरी मस्जिद गिराये जाने का खुलकर समर्थन करने वाली और मुसलमानों से लेकर उत्तर भारतीयों तक को हिंसा का निशाना बनाने वाली शिवसेना अब पाक-साफ़ नज़र आने लगी है। इन दलों का असली चरित्र पूँजी की सेवा, मुनाफ़ा और धन्धे की रक्षा है, इसलिए ऐसे गँठजोड़ इतिहास में भी हुए हैं और आगे भी होंगे। इसलिए मज़दूर-मेहनतकशों को समझ जाना चाहिए कि चुनाव के समय एक-दूसरे पर इनकी भाैं-भौं सिर्फ़ इस बात के लिए होती है कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी सत्ता में कौन करेगा और किसे उसके कमीशन का बड़ा हिस्सा प्राप्त होगा।
इस बार प्रचार के दौरान आये अनुभव के आधार पर कहें तो “हमें तो वोट देना ही नहीं है”, “सब 5 साल में एक बार आते हैं”, “किसी को भी वोट दो तो ईवीएम से जायेगा कमल को ही” ऐसी प्रतिक्रियाएँ और कई बस्तियों/कॉलोनियों के बाहर लगे “यहाँ वोट माँगने न आयें” के बैनर जनता के बीच की निराशा और विकल्पहीनता को स्पष्ट रूप से इंगित कर रहे थे। वोटिंग का गिरा हुआ प्रतिशत इसी का एक लक्षण है। हाल ही में हुए बाढ़ के चलते लोगों में कोई मदद न पहुँचने के चलते उनके बीच कोई पूँजीवादी उम्मीदवार प्रचार के लिए भी जा नहीं रहा था। इस चुनाव में भी ईवीएम के बारे में कई आरोप और शंकाएँ सामने आयीं। ईवीएम के विरोध में अविश्वास सर्वव्याप्त है, लेकिन वो असंगठित है और इसलिए व्यक्त नहीं हो पा रहा है। जनता की ये विविध अभिव्यक्तियाँ जहाँ एक ओर जनता को संगठित कर एक क्रान्तिकारी विकल्प निर्मित करने की आवश्यकता को चिह्नित कर रही हैं। वहीं मेहनतकश जनता के व्यापक समुदाय पूँजीवादी चुनावों में शिरकत करते हैं इसलिए उनके बीच चुनाव के मंच पर भी मज़दूरों और मेहनतकशों के स्वतंत्र पक्ष को प्रस्तुत करने की आवश्यवकता है। आर.डब्ल्यू.पी.आई. (RWPI) इन दोनों ही लक्ष्यों को पूरा करने से अभी दूर है, लेकिन उन तक पहुँचने के लिए प्रतिबद्ध है।
फ़ासीवादी केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के शासन में अब अगले पाँच साल हम मज़दूरों-मेंहनतकशों को अपने रोज़गार, मज़दूरी, और जीने के अधिकार पर और बड़े हमलों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार होना होगा। अपने न्यायसंगत अधिकारों को पाने के लिए हमें चुनावी राजनीति में तो जाना ही होगा, लेकिन चुनाव क्रान्ति नहीं लाते इस बात को समझते हुए, क्रान्तिकारी परिवर्तन की लड़ाई के लिए हमें सड़कों पर संघर्ष के लिए संगठित होना भी शुरू करना होगा। इस लड़ाई को संगठित करने के लिए RWPI प्रतिबद्ध है।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में RWPI का प्रदर्शन
रास्ता कठिन है, पर संकल्प दृढ़ है
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की तरफ़ से पर्वती (पुणे), मानखुर्द-शिवाजीनगर (मुम्बई) और अहमदनगर शहर से मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी रणकौशलात्मक चुनावी हस्तक्षेप के तहत उम्मीदवार खड़े किये गये। इसके पहले लोकसभा चुनाव में अहमदनगर और उत्तर-पूर्वी मुम्बई से भी चुनाव लड़ा गया था।
इन तीनों जगह पर चुनाव पूरी तरह RWPI के कार्यक्रम और उस पर मज़बूती से चलने वाले परिश्रमी वालण्टियर्स और मज़दूर-मेहनतकश साथियों और इन्साफ़पसन्द जनता के जुटाये संसाधनों के दम पर लड़ा गया। मज़दूर-मेहनतकश के बीच से जुटाया गया सहयोग ही हमारे लिए उनके समर्थन की सही निशानी है। ऐसी पार्टी ही मज़दूर वर्ग के हित की बात कर सकती है और उसके लिए लड़ सकती है।
पर्वती से परमेश्वर जाधव को 250 मत मिले, मानखुर्द से बबन ठोके को 397 और अहमदनगर शहर से संदीप सकट को 661 मत मिले। पर्वती में चुनावी राजनीति में मज़दूर वर्ग के राजनीतिक हस्तक्षेप के तहत RWPI पहली बार उतरी, वहीं अहमदनगर व मानखुर्द में लोकसभा का एक अनुभव मौजूद था। दोनों ही जगह लोकसभा चुनाव की तुलना में विधान सभा क्षेत्र में RWPI के उम्मीदवार के मतदान प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इन तीनों ही मतदान क्षेत्रों के साथ पूरे राज्यभर में नतीजों में यह रुझान दिखाई दिया कि व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों में राजनीतिक चेतना का अभाव है और वह अपने ही वर्ग हितों के बरक्स जाति-धर्म, अन्धराष्ट्रवाद, झूठे प्रचार, और यहाँ तक कि शराब और पैसे के बदले भी वोट दे देती है। इसके लिए मुख्य रूप से यह व्यापक मेहनतकश जनता दोषी नहीं है, बल्कि वे जीवन स्थितियाँ दोषी हैं, जिनमें कि पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें रखती है। इससे RWPI के लिए यह कार्यभार निकलता है कि वह सतत जनसंघर्षों और क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार के द्वारा जनता के भीतर राजनीतिक वर्ग चेतना पैदा करे और उनके बीच अपने सामाजिक आधार को व्यापक और सघन बनाये।
पूँजीवादी चुनावों के खेल में साधारणत: वही जीतता है जिसके पास बड़ी-बड़ी कम्पनियों, ठेकेदारों, अमीर दुकानदारों, ज़मीन मालिकों और कई प्रकार के दलालों का धनबल और बाहुबल हो। यही शक्तियाँ चुनावों में पैसा, दारू, धोखेबाज़ी, ईवीएम घोटाला, वोटों की ख़रीद-फरोख्त़ जैसे बेशरम खेल खेलती हैं। ऐसे में अत्यन्त कम ख़र्चे में, एक सीमित शक्ति के बूते, समाजवादी परिवर्तन के विचार के प्रचार के दम पर, वोटों के ज़रिये मिले समर्थन से पार्टी के वॉलण्टियरों में उत्साह तो ज़रूर है, लेकिन पार्टी यह जानती है कि अभी भी एक लम्बा रास्ता तय करना है।
प्राप्त सभी वोट स्पष्ट रूप से श्रमिक वर्ग की राजनीति का समर्थन दिखलाते हैं, और जो छोटी संख्यात्मक वृद्धि हुई है, वह सकारात्मक है; लेकिन पार्टी पूरी तरह से जानती है कि अगले कुछ वर्षों में श्रमिकों के रोज़गार, मज़दूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, स्वच्छता, आवास जैसे मुद्दों पर संघर्ष खड़े करके और कड़ी मेहनत से लगातार वैचारिक प्रचार के द्वारा ही मज़दूर वर्ग की राजनीति को मज़बूत किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन