जेएनयू में सफ़ाई मज़दूरों की हड़ताल : एक रिपोर्ट
देश के अन्य केन्द्रीय संस्थानों की तरह जेएनयू में भी ठेका मज़दूरों की बड़ी आबादी काम कर रही है। विश्वविद्यालय में सफ़ाई, मेस (रसोई), कंप्यूटर, पुस्तकालयों, कार्यालयों और गार्ड व चपरासी आदि का काम करने वाले मज़दूर व कर्मचारी ठेके पर रखे गये हैं। इन कामों के लिए हालाँकि कुछ स्थायी कर्मचारी भी हैं लेकिन उनकी जगह अब ठेके पर मज़दूर लिये जा रहे हैं। ये ठेका मज़दूर लम्बे समय से काम करते रहे हैं। यहाँ समय-समय पर ठेकेदार या कॉन्ट्रैक्टर तो बदलते रहे हैं लेकिन मज़दूर वही होते हैं। कई ठेका मज़दूर ऐसे हैं जो 20 सालों से जेएनयू में काम कर रहे हैं। आने वाले सभी नये कॉन्ट्रैक्टर उन्हीं मज़दूरों को काम पर लेते रहे हैं। जेएनयू में आवासीय परिसर भी है जिसकी वजह से छात्रों, शिक्षकों और मज़दूरों के बीच क़रीबी का रिश्ता रहा है। मज़दूरों के काम के घण्टे और न्यूनतम व नियमित मज़दूरी सुनिश्चित कराने के हक़ में छात्र और शिक्षक समय-समय पर आवाज़ उठाते रहे हैं। इसलिए इन्हें न्यूनतम मज़दूरी तो मिलती ही रही है काम के घण्टे भी निश्चित रहे हैं। पर इसके साथ ही इन्हें स्थायी बनाने के पक्ष में भी हमें अपनी आवाज़ उठानी चाहिए थी।
2016 के बाद पूरी तरह संघ के इशारों पर नाचने वाले जगदेश कुमार मामीडाला के जेएनयू में उपकुलपति का पद सँभालने के बाद यहाँ काम करनेवाले मज़दूरों की स्थिति बदतर हुई है। विश्वविद्यालय में माले लिबरेशन की मज़दूर यूनियन एक्टू की मौजूदगी के बावजूद मज़दूर बदहाल हैं। उनकी छँटनी हो रही है, उनपर काम का अत्यधिक दबाव है, ज़रा सी ग़लती हुई नहीं कि ठेकेदार उन्हें मेमो थमा देता है, गाली-गलौज करता है, मनमाने तरीक़े से काम से निकाल देता है और इन ज़्यादतियों की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। इतना ही नहीं मज़दूरों के ईएसआई और पीएफ के पैसे में घपला किया जाता है। कॉन्ट्रैक्टर अपने खाते में जमा इन पैसों पर अपना अधिकार मानता है।
जेएनयू में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग कॉन्ट्रैक्टर हैं, जैसे हॉस्टलों में सफ़ाई का कॉन्ट्रैक्ट अभी मैक्स कम्पनी को मिला है, मेस में बालाजी और सुरक्षाकर्मी के काम के लिए साइक्लोप्स आदि को। अध्यापन क्षेत्र (जहाँ कक्षाएँ चलती हैं) और प्रशासनिक क्षेत्र की सफ़ाई का काम नयी कॉन्ट्रैक्टर कम्पनी सुदर्शन फै़सिलिटी प्राइवेट लिमिटेड ने 1 मार्च से सँभाला और ठीक उसी दिन से उसने मज़दूरों की नाक में दम कर दिया है। उनके साथ मनमाने ढंग से व्यवहार के अलावा जो सबसे भयंकर काम सुदर्शन ठेकेदार कम्पनी करती थी वह था मज़दूरों की हाज़िरी के साथ धाँधली करना। मज़दूर जब सुबह काम पर आते तो हाज़िरी रजिस्टर पर उनकी उपस्थिति पेंसिल से लगायी जाती। काम समाप्त होने पर शाम को ही जाकर पेन से उनकी पक्की हाज़िरी दर्ज होती। इस प्रकार सारा दिन ये मज़दूर नहीं बल्कि उनकी परछाईं काम कर रही होती। मतलब साफ़ है, काम के दौरान अगर किसी मज़दूर को कुछ हो जाये, कोई दुर्घटना घट जाये तो कॉन्ट्रैक्टर आसानी से पेंसिल से लगी हाज़िरी मिटाकर यह दिखा सकता है कि दुर्घटना के समय वह मज़दूर काम पर मौजूद था ही नहीं, और दुर्घटना काम के दौरान हुई ही नहीं। इस प्रकार वह मज़दूर के दवा-इलाज और हर तरह की ज़िम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़कर आराम से निकल जायेगा। यूँ भी कोई ठेकेदार कम्पनी या ठेकेदार बिना मज़दूरों के दबाव के ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते। मज़दूरों के दबाव के आगे ही उन्हें कुछ झुकने को मजबूर होना पड़ता है। ऐसी मनमानी से अब वे इससे भी असानी से बच निकलेंगे।
कक्षाओंवाले इलाक़े में काम करने वाले मज़दूरों को जोखिमपूर्ण स्थिति में काम करना पड़ता है, उन्हें ऊँची-ऊँची दीवारों और खिड़कियों की सफ़ाई करना, ऊँचाई पर लगे पोस्टर हटाना और शीशों आदि की सफ़ाई का काम बिना किसी सुरक्षा उपकरण के करना होता है, यहाँ तक कि उन्हें दस्ताने, गम-बूट या झाड़न तक नहीं दिये जाते। इसके अलावा उन्हें ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जो इनके कार्यक्षेत्र में नहीं आते, जैसे लॉन की घास और झाड़ियाँ काटना आदि। काम पर एक मिनट भी देर से आने पर आधे दिन की हाज़िरी काट लेना, निर्धारित कामों से ज़्यादा देने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने पर पूरे दिन की हाज़िरी काट लेना, बात-बात पर मेमो देना और तीन मेमो के बाद नौकरी से निकाल देना जैसी बातें यहां आम है। इस तरह सुदर्शन कम्पनी ने पिछले 8 महीनों में मनमाने तरीक़े से 12 मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। हद तो तब हो गयी जब दिवाली पर मज़दूरों को मिलनेवाला नियमित बोनस देने से भी इस ठेकेदार कम्पनी ने इन्कार कर दिया। इस अन्याय और ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने एकजुट होकर आवाज़ उठायी।
पिछले एक महीने से हम इन मज़दूरों के बीच जा रहे थे और मीटिंगें कर रहे थे। जेएनयू में काम करने वाले दूसरे मज़दूरों, मेस, माली, कूड़ा उठाने वाले और हॉस्टलों में सफ़ाई करने वालों के बीच कई बैठकें कीं और बातचीत का सिलसिला चलाया। सुदर्शन कम्पनी के तहत काम करनेवाले मज़दूरों ने हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया। इसकी सूचना जेएनयू के सभी संगठनों को भी दे दी गयी। लेकिन बहुत कम संगठनों ने ही सक्रिय भागीदारी करने में रुचि दिखायी। प्रमुख वाम संगठन – आइसा, एसएफआई, डीएसएफ इस मामले को लेकर उदासीन बने रहे। लिबरेशन की मज़दूर यूनियन एक्टू जबकि इन्हीं मज़दूरों के बीच चार-पाँच सालों से काम कर रहा है इस मसले पर मज़दूरों को संगठित करने या साथ तक देने की बात तो दूर, बार-बार फ़ोन करने और बुलाने पर भी उसके किसी प्रतिनिधि ने कोई हिस्सेदारी नहीं की। उल्टे इस आन्दोलन की पीठ में उसने छुरा घोंपने का काम किया। हड़ताल के दौरान एक्टू के कुछ लोग मज़दूरों से मिलने आये और इसका समर्थन कर रहे छात्र समूह और संगठन के बारे में अनाप-शनाप बातें कीं, उनके ख़िलाफ़ यह कहते हुए भड़काया कि वे समूह और संगठन अपनी राजनीति करने के लिए मज़दूरों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने मज़दूरों को उकसाया कि इस तरह बैठने से कुछ हासिल नहीं होगा, उन्हें जाकर प्रशासनिक भवन को घेर लेना चाहिए, रास्ता जाम कर देना चाहिए आदि आदि। इस तरह की भड़काऊ बातों और आत्मघाती सलाहों से 170 मज़दूरों में से कुछ मज़दूर छिटक गये। जब उन्होंने देखा कि ख़ुद एक्टू के ‘नेता’ काम पर जाकर हाजि़री लगा रहे हैं तो सन्देह और अनिश्चय की स्थिति उनपर हावी हो गयी और 30 से अधिक मज़दूर कमज़ोर पड़ गये। इसका नतीजा यह निकला कि चार दिनों तक जिन मज़दूरों ने हड़ताल के लिए कमर कस रखी थी वे पाँचवें दिन से ढीले पड़ने लगे और एक-एक करके काम पर लौटने लगे। इन सफ़ाई मज़दूरों में लगभग सभी दलित पृष्ठभूमि से हैं लेकिन दलितों की आवाज़ होने का दावा करनेवाली बापसा ने भी बस नाम के लिए अपने एक या दो कार्यकर्ताओं को हड़ताल स्थल पर भेजने के अलावा कोई सक्रिय भागीदारी नहीं की। अस्मितावादी राजनीति करने वालों से हम भला और उम्मीद ही क्या कर सकते हैं?
हड़ताल टूटने की वजह मात्र यही नहीं थी, हालाँकि इस तरह की उकसावेबाज़ी ने इसे नुक़सान पहुँचाया। किसी भी आन्दोलन को मज़बूती लोगों की बढ़ती भागीदारी से मिलती है। आइसा, एसएफआई, डीएसएफ या बापसा जैसे छात्र संगठन जो संख्याबल के लिहाज़ से बड़े थे मज़दूरों के पक्ष में आम छात्रों का समर्थन जुटाने के प्रति पूरी तरह से उदासीन थे। इनकी पार्टी से जुड़ी ट्रेड यूनियन की समझौतापरस्त नीति दिन के उजाले की तरह साफ़ होकर सामने आ गयी थी। सीपीएम और सीपीआई की घुटनाटेकू नीति ने भी मज़दूरों को भरमाने का काम किया। अपने हक़ के लिए लड़नेवाले मज़दूरों से कोई बिल्कुल शुरुआती दौर में ही घेराव करने और सड़क जाम करने जैसे आन्दोलन के उच्चतम फ़ॉर्म का परामर्श देता है, तो कोई एक क़दम पीछे हटने की सलाह देने लगता है। कुछ संगठन अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी थे जो मज़दूरों के पीछे चलने में विश्वास रखते थे और सबकुछ ख़ुद मज़दूरों द्वारा तय किये जाने के पक्ष में थे। इन सारी बातों का नतीजा यह हुआ कि मज़दूरों ने भी यह महसूस कर लिया कि उनसे समझदार और इस हड़ताल में उनका साथ और सलाह देनेवाले छात्रों में ही आपसी तालमेल नहीं है। इसने भी आन्दोलन को कमज़ोर करने में एक भूमिका निभायी।
दूसरे, मज़दूरों को यह विश्वास था कि हड़ताल पर जाने के बाद प्रशासन उनकी बात सुनेगा। लेकिन प्रशासन जब संघ के साये तले काम कर रहा हो तो उसे भला किस बात का डर। लिहाज़ा मज़दूरों की बात तो सुनी नहीं गयी उल्टे उसका कोई अदना सा अधिकारी रोज़ आकर धमकी ज़रूर दे जाता था। सुदर्शन कम्पनी का जी.एम., डोगरा भी धमकाने आया और उसने अपमानजनक तरीक़े से अपनी बात शुरू की लेकिन मज़दूरों की ताक़त और समर्थक छात्रों की उपस्थिति के आगे उसे बातों में नरमी बरतनी पड़ी। हालाँकि उसने उनकी एक भी माँग नहीं मानी। जेएनयू प्रमुख नियोक्ता होने के कारण बोनस और अन्य जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता। क़ानूनी तौर पर बोनस प्रमुख नियोक्ता की जि़म्मेदारी होती है। लेकिन सुदर्शन कम्पनी और जेएनयू प्रशासन बोनस की ज़िम्मेदारी एक दूसरे पर डालते रहे और अन्त में दोनों ने ही पल्ला झाड़ लिया। मज़दूर इस लीपापोती को समझ चुके थे।
हण्ड्रेड फ़्लावर्स ग्रुप का लगातर इस बात पर ज़ोर था कि व्यापक छात्र आबादी और परिसर के अन्य ठेका मज़दूरों से सम्पर्क करके उन्हें आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास किया जाये। इस तरह की कोई भी माँग मनवाने के लिए व्यापक जेएनयू समुदाय का साथ होना ज़रूरी था। ऐसा नहीं हो पाने की स्थिति में प्रशासन ने भी आन्दोलन की क्षमता का मूल्यांकन कर लिया और हाज़िरी के दो रजिस्टर रखने, काम से किसी को न निकालने और मेमो आदि पर रोक लगाने का मौखिक आश्वासन भर देकर छुट्टी पा ली। मज़दूरों के न बोनस और न ही हड़ताल के चार दिनों की हाज़िरी की बात मानी गयी।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019
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