अयोध्या फ़ैसला : क़ानून नहीं, आस्था के नाम पर बहुसंख्यकवाद की जीत
मेहनतकशों का नज़रिया क्या हो?
जब सुप्रीम कोर्ट ने अचानक अयोध्या मामले की रोज़ाना सुनवाई करना शुरू किया था तभी से यह लगने लगा था कि फ़ैसला किस तरह का होने वाला है। न्यायपालिका पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से मोदी सरकार की चाकर की तरह के रूप में काम कर रही है, उसे देखते हुए भी समझदार लोगों को किसी निष्पक्ष फ़ैसले की उम्मीद नहीं थी। भाजपा के कुछ अति-उत्साही नेता तो पहले ही बोलने लगे थे कि सुप्रीम कोर्ट “हमारा है” इसलिए फ़ैसला “हमारे पक्ष” में ही आयेगा।
अब कुछ लोग कह रहे हैं कि इस फ़ैसले को सभी को स्वीकार कर लेना चाहिए और बीती बातों को भुलाकर आगे बढ़ना चाहिए। मगर वे भूल रहे हैं कि दरअसल यह आस्था का मामला है ही नहीं! राम मन्दिर शुरू से ही राजनीति का मसला रहा है और आज भी है। 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के समय नारे लगाये गये थे कि “अभी तो बस ये झाँकी है, मथुरा-काशी बाक़ी है।” अब इस फ़ैसले के बाद ही जामा मस्जिद से लेकर ताज़ महल तक के नीचे हिन्दू मन्दिर होने की बातें भाजपाइयों की ओर से उछाली जाने लगी हैं। वाराणसी में सैकड़ों मन्दिरों और मकानों को तोड़कर जो गलियारा बनाया गया है उस पर भी कई लोगों ने सवाल उठाया है कि इसके ज़रिये विश्वनाथ मन्दिर-ज्ञानवापी मस्जिद तक पहुँचने का रास्ता साफ़ कर दिया गया है ताकि भविष्य में कभी इसका इस्तेमाल संघियों के गन्दे इरादों के लिए किया जा सके। ऐसे माहौल में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने बहुसंख्यकों की आस्था के नाम पर गुण्डागर्दी पर मुहर लगाने का काम किया है। एक तरह से अदालत ने कह दिया है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस और भविष्य के लिए एक ख़तरनाक मिसाल क़ायम कर दी है।
सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि आज आनन-फ़ानन में यह फ़ैसला क्यों लाया गया है। थोड़ा ध्यान से सोचें तो आपको याद आ जायेगा कि जब-जब मन्दिर विवाद को भड़काया गया है, तब-तब देश किसी न किसी राजनीतिक या आर्थिक संकट का शिकार था। 1949 में जब कुछ साम्प्रदायिक तत्वों ने बाबरी मस्जिद के गुम्बद के नीचे राम की मूर्तियाँ रख दी थीं, उस समय आज़ादी के बाद देश की पूँजीवादी सत्ता अभी स्थिरीकरण की प्रक्रिया में थी और देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष चल रहे थे। देश दरिद्रता की स्थिति में था। दूसरी ओर, आरएसएस गाँधी की हत्या के बाद बुरी तरह अलग-थलग पड़ चुका था और हिन्दुओं में पैठ बनाने की कोशिशों में लगा हुआ था। 1986 में जब मस्जिद का ताला खुलवाया गया और बाद में शिलान्यास हुआ तब भी देश घोर आर्थिक संकट से गुज़र रहा था; बेरोज़गारी भयंकर रूप अख़्तियार कर चुकी थी, मुद्रास्फीति का हाल बुरा था और विदेशी कर्ज़ से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी। फिर 1990 के दशक की शुरुआत में जब मन्दिर का मुद्दा उछाला गया तो देश की अर्थव्यवस्था डावाँडोल थी; देश का सोना गिरवी रखा जा चुका था; महँगाई आसमान छू रही थी; बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और ग़रीबी से देश की जनता में भयंकर ग़ुस्सा था।
ये सारे मौक़े ऐसे थे, जिसमें शासक वर्गों को इस बात की दरकार थी कि जनता का ध्यान उन वास्तविक मुद्दों से हट जाये जिनका उसकी ज़िन्दगी पर असर पड़ता है। इसके लिए धार्मिक उन्माद के कार्ड का अलग-अलग समय पर इस्तेमाल किया गया। कहने की ज़रूरत नहीं कि आज फिर देश ऐसी ही परिस्थिति से गुज़र रहा है। अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व संकट की गिरफ़्त में है। बेरोज़गारी और महँगाई चरम पर हैं। उद्योग, व्यापार, खेती सब संकट में हैं। देशभर में छात्र-युवा, मज़दूर, किसान, कर्मचारी सभी आन्दोलन की राह पर हैं। आबादी के उन तबक़ों पर भी अब आर्थिक संकट की मार पड़ रही है जो मोदी के समर्थक रहे हैं और उनका धैर्य जवाब दे रहा है। किसी भी समस्या का वास्तविक जवाब इस सरकार के पास नहीं है। उल्टे, यह दोनों हाथों से देश की सम्पदा देशी-विदेशी लुटेरे पूँजीपतियों के हवाले करने में लगी हुई है। घोटालों और भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड टूट रहे हैं। भोंपू मीडिया के ज़रिये दिनो-रात जारी झूठे प्रचार से लोगों को हमेशा बेवक़ूफ़ बनाये रखा जा सकता है, इस पर संघियों को अब ख़ुद भी भरोसा नहीं रह गया है। ऐसे में मन्दिर का यह फ़ैसला उनके हाथों में फिर से एक हथियार होगा जिसके ज़रिये वे कुछ और सालों तक लोगों को भरमाये रख सकते हैं, ऐसा उनका सोचना है। उन्हें लगता है कि कभी मन्दिर निर्माण का ट्रस्ट बनाकर, कभी इसका भव्य शिलान्यास करके तो कभी मन्दिर निर्माण शुरू करवाकर वे अगले कुछ वर्षों तक इसकी फ़सल काट सकते हैं और अगला आम चुनाव भी जीत सकते हैं। मगर ज़रूरी नहीं कि संघियों की यह सोच कामयाब ही हो।
फै़सले का सर्वहारा विश्लेषण
अब इस फ़ैसले पर भी एक निगाह डाल ली जाये। इस फ़ैसले पर पूँजीवादी मीडिया लोटपोट हो गया है। वह इसे लोकतंत्र की विजय बता रहा है। ज़ाहिर है, पूँजीवादी मीडिया अपना फ़र्ज़ अदा कर रहा है – पूँजीवाद के पक्ष में जनता की आम राय बना रहा है। अब यह एक दीगर बात है कि वह जो बोल रहा है, सच्चाई उसके बिल्कुल विपरीत है!
तथ्य यह है कि बुर्जुआ क़ानून और संविधान के तमाम उसूलों को ताक पर रखकर सुप्रीम कोर्ट ने “बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं” का ध्यान रखकर यह फ़ैसला दिया है। और तो और, अपने ही फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मूर्तियाँ रखी जाने, बाबरी मस्जिद गिराये जाने, पुरातात्विक साक्ष्यों आदि के बारे में जो बातें कही हैं, उनके भी विपरीत जाकर ऐसा फ़ैसला दिया है जिसे क़ानून के नज़रिये से किसी भी तरह सही ठहराया ही नहीं जा सकता।
जैसाकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति अशोक गांगुली ने कहा है कि संविधान के लागू होने के पहले वहाँ क्या था, यह सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी नहीं है। जब वह इमारत बनी तब भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था। तब वहाँ एक मस्जिद थी, एक मन्दिर था, एक बौद्ध स्तूप था, या कुछ और था। अगर हम इस तरह अतीत के सवालों पर फै़सला देंगे तो बहुत सारे मन्दिर, मस्जिदें और अन्य ढाँचों को तोड़ना पड़ेगा। हम पौराणिक तथ्यों पर नहीं जा सकते। राम कौन थे? क्या किसी तरह का ऐतिहासिक साक्ष्य है? यह आस्था और विश्वास का मामला है। इन पर अदालत के फ़ैसले नहीं हुआ करते।
न्यायमूर्ति गांगुली के ही अनुसार, “सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आस्था और विश्वास के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती। वे कह रहे हैं कि मस्जिद के नीचे कोई ढाँचा था लेकिन ढाँचा मन्दिर का था, यह निश्चित नहीं। आज कोई नहीं कह सकता कि मन्दिर को ही ढहाकर मस्जिद बनायी गयी, लेकिन अब मस्जिद को ढहाकर मन्दिर बनाया जायेगा, इसे सभी देखेंगे।”
यह फ़ैसला कितना अजीबो-ग़रीब है इसे कुछ उदाहरणों से देखा जा सकता है। अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि बाबरी मस्जिद 1528 में बनी थी। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) की 2002-03 की रिपोर्ट के हवाले से अदालत ने यह भी कहा कि कहीं भी यह साबित नहीं होता कि बाबरी मस्जिद किसी मन्दिर को तोड़कर बनायी गयी थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि 1934 में मस्जिद को क्षतिग्रस्त किया गया। यह भी माना कि 1949 में मस्जिद में कुछ लोगों ने मूर्ति रखकर ग़ैर-क़ानूनी काम किया। फिर यह भी कहा कि 1992 में मस्जिद को ढहाया जाना ग़लत था! फ़ैसले के पैरा 798 में कहा गया कि “मुसलमानों को पूजा और उस स्थल पर अधिकार से बहिष्कृत करने का काम 22-23 दिसम्बर 1949 की रात को हुआ जब हिन्दू मूर्तियाँ रखकर मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया। मुसलमानों को वहाँ से बाहर किया जाना किसी क़ानूनी प्राधिकार के ज़रिये नहीं हुआ, और उन्हें एक ऐसी मस्जिद से ग़लत ढंग से वंचित कर दिया गया जिसका निर्माण 450 वर्ष से भी ज़्यादा पहले हुआ था।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1885 में राम चबूतरा को असली जन्मस्थान माना गया था। यह भी माना कि 1857 में भीतरी और बाहरी परिसर को अंग्रेज़ों ने दीवार बनाकर अलग-अलग कर दिया था। भीतरी परिसर में मस्जिद प्रबन्धन का क़ब्ज़ा और अधिकार था। राम चबूतरा बाहरी परिसर में है। अदालत ने यह भी माना कि राम चबूतरा पर मन्दिर बनाने के दावे को 1885 में अदालत ने ख़ारिज कर दिया था। यह भी कहा कि 1992 में मस्जिद तोड़ने वालों ने राम चबूतरा को भी तोड़ दिया था।
ए.एस.आई. ने अदालत को 574 पेज की रिपोर्ट सौंपी थी। अयोध्या में खुदाई करने वाले पुरातत्वविदों के बीच कभी सर्वसम्मति नहीं बन पायी। इसीलिए कई तरह के दावे किये गये हैं। कुछ ने कहा कि मन्दिर के नीचे का अवशेष ‘पुराना ईदगाह’ है, कुछ ने उसे बौद्ध और जैन प्रतीक करार दिया। खुदाई करने वाली टीम का अवलोकन करने वाली दो सदस्य सुप्रिया वर्मा और जया मेनन ने हाई कोर्ट में कहा था कि कुछ प्रतीकों को ‘हिन्दू प्रतीक’ कहा जा रहा है, जबकि ये बौद्ध, जैन या इस्लामिक ढाँचे भी हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ए.एस.आई. की उसी रिपोर्ट का हवाला देते हुए कह दिया कि ज़मीन के नीचे का अवशेष ‘हिन्दू अवशेष’ है। हालाँकि अदालत ने भी यह नहीं कहा कि वह राम मन्दिर के अवशेष हैं।
इतनी बातों के बाद भी मस्जिद की जगह मन्दिर बनाने के लिए देने का फ़ैसला केवल इस आधार पर दिया गया कि बहुसंख्यक हिन्दू मानते हैं कि वह राम का जन्मस्थान है! वैसे, पूछा यह भी जाना चाहिए कि अदालत ने कौन-से सर्वेक्षण से यह पता लगाया कि बहुसंख्यक हिन्दू यही मानते हैं। क्या उसने भाजपा और संघ की राय को ही बहुसंख्यक हिन्दुओं का विश्वास मान लिया? फ़ैसले में यह भी कहा गया कि चूँकि मस्जिद को ग़लत ढंग से गिराकर मुसलमानों के साथ अन्याय हुआ इसलिए उन्हें थोड़ी दूरी पर पाँच एकड़ ज़मीन मस्जिद बनाने के लिए दे दी जाये। क़ानून के नज़रिये से यह ऐसा ही हुआ कि कोई ज़बरन किसी के घर को ढहा दे और अदालत कहे कि घर को गिराना ग़लत था मगर चूँकि गिराने वालों का विश्वास था कि यह उन्हीं का घर है इसलिए अब उस ज़मीन पर वे अपना घर बनायेंगे और उस घर के पुराने बाशिन्दों को कहीं और जगह दे दी जायेगी। अगर क़ानून के बजाय ऐसी दादागीरी से समाज चलने लगे तो सोचा जा सकता है कि अन्जाम क्या होगा!
हमारा दृष्टिकोण क्या हो?
जहाँ तक मेहनतकश वर्ग के सही दृष्टिकोण का सवाल है, हमें इसके जाल में फँसना ही नहीं चाहिए कि राम थे या नहीं? अगर थे तो उनका ठीक-ठीक जन्मस्थल कहाँ है? बाबरी मस्जिद मन्दिर को तोड़कर बनी थी या नहीं? क्योंकि ऐसे सवाल वास्तव में सवाल हैं ही नहीं। अगर इनको सवाल माना जाये तो हिन्दू साम्प्रदायिक ताक़तों के तर्कों पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं। तमाम हिन्दू मन्दिर बौद्ध पूजा-स्थलों को तोड़कर बनाये गये। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि अयोध्या में ही ऐसे तमाम मन्दिर मौजूद हैं जो बौद्धों का नरसंहार करके और फिर उनके मठों को तोड़कर बनाये गये। तो क्या अब उन मन्दिरों को तोड़कर फिर से बौद्ध मठ बनाये जाने चाहिए? अयोध्या में ही ऐसे कम से कम एक दर्जन और भी मन्दिर हैं जो यह दावा करते हैं कि वास्तव में वहीं राम का जन्मस्थल है। उनका क्या होगा? ऐसी और भी मस्जिदें हैं जो शायद हिन्दू या दूसरे धर्मस्थलों को तोड़कर या उनके अवशेष पर बनीं। तो क्या उन सबको तोड़कर वहाँ फिर से मन्दिर बनाये जायें? मध्यकाल में यह आम बात थी। जब राज्य का आधार ही धर्म था, तो हर राजा अपने साम्राज्य को स्थापित करने के लिए अपने धर्म को भी स्थापित करवाना ज़रूरी समझता था। पूरी दुनिया में उस काल में धर्मस्थल तोड़े गये। मगर इतिहास के पहिये को उल्टा घुमाने की ऐसी कोशिश कहीं नहीं हुई।
सवाल वास्तव में यह है ही नहीं। इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में तीन-चौथाई से भी ज़्यादा आबादी भयंकर ग़रीबी में जीती हो, जहाँ के बच्चों की आधी आबादी कुपोषित हो; जहाँ 30 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों; जहाँ एक चौथाई आबादी बेघर हो या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रही हो, जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर अमानवीय हालात में जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों, और जहाँ समाज घृणित धार्मिक-जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न और स्त्रियों के बर्बर उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है? वहाँ इतिहास के सैकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है, जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हों?
और अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के इतिहास को पीछे जाकर देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने क़िस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनायेंगे? इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पीछे ले जाने वाला और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताक़तें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उनकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने में है, जिसके बारे में दावे से कहा भी नहीं जा सकता है कि वह हुआ था भी या नहीं। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद ऐसी ही एक ताक़त है जो आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फ़ायदा उठाते हुए उसे धर्म के आधार पर बाँट देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा साबित होती है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक बड़े हिस्से को एक ऐसे सवाल पर आपस में बाँट देता है जो वास्तव में उसके लिए कोई सवाल है ही नहीं।
दरअसल, धर्मनिरेपक्षता के नज़रिये से आधी लड़ाई उसी दिन हार दी गयी थी जब इस सारे मामले को एक ‘टाइटिल सूट’ यानी मालिकाना हक़ की लड़ाई में तब्दील कर दिया गया था। शुरू से ही भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद और आर.एस.एस. के राम मन्दिर आन्दोलन का विरोध इस तर्क के आधार पर किया जाना चाहिए था कि सैकड़ों साल पहले हुई घटनाओं का आज बदला लेने की बात का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस और दूसरी पूँजीवादी पार्टियों से तो ऐसी कोई उम्मीद करना फ़िज़ूल ही था क्योंकि उनकी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता तो शुरू से ही “सर्वधर्म समभाव” के नाम पर ज़्यादातर हिन्दू बहुसंख्या का और कभी-कभी मुस्लिम अल्पसंख्या का तुष्टिकरण करने के रूप में ही सामने आती रही है। धार्मिक कार्ड का सभी अपने-अपने चुनावी हितों के हिसाब से इस्तेमाल करती रही हैं। मगर ख़ुद को वामपन्थी कहने वाली संसदीय पार्टियों ने भी कभी इस दृष्टिकोण को मज़बूती से सामने नहीं रखा। वे भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कभी मुलायम सिंह यादव तो कभी कांग्रेस का पुछल्ला बनी रहीं और भाजपा व संघ के तर्कों को जनता के बीच स्थापित करने में मददगार बनती रहीं। देश में क्रान्तिकारी वाम की ताक़तें एक तो खण्ड-खण्ड में बिखरी हुई थीं, दूसरे उनमें भी ज़्यादातर ग्रुपों में इस मसले पर सही सर्वहारा दृष्टिकोण को लोगों के बीच लेकर जाने के साहस का अभाव रहा।
आज हमें एक सही वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हुए इन अनैतिहासिक और अतार्किक सवालों को दरकिनार करके शासक वर्गों की साज़िश को समझने की ज़रूरत है। वास्तव में आज की लड़ाई आज के अन्याय के ख़िलाफ़ है। आज का पूँजीवादी शोषण और अन्याय सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन है और हमारा पूरा संघर्ष उसके ख़िलाफ़ होना चाहिए। हमें साम्प्रदायिकता के झाँसे में आकर मन्दिर-मस्जिद के झगड़े में नहीं फँसना चाहिए। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियाँ, चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, सपा हो या बसपा, मन्दिर के मुद्दे के इर्द-गिर्द अपनी-अपनी तरह से जनता को बाँटना चाहती हैं। दरअसल, भारतीय आम जनता का एक बड़ा हिस्सा इस बात को समझने भी लगा है। एक यह भी कारण था कि इस बार इस मुद्दे पर कोई तीखा ध्रुवीकरण नहीं किया जा सका। लेकिन हमें समाज में लगातार इस प्रतिक्रियावादी सोच के विरुद्ध लड़ना चाहिए जो इतिहास के काल्पनिक अन्यायों के लिए आज आम मेहनतकश जनता की बलि चढ़ाना चाहती है। यह सोच मज़दूर वर्ग और पूरे इतिहास की दुश्मन है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन