देशी-विदेशी बड़ी पूँजी का बेरोकटोक राज!
इसी संघी एजेण्डा को पूरा करने में जुटी मोदी सरकारपूँजी की नंगी ग़ुलामी ही उनके “हिन्दू राष्ट्र” का आधार होगा!
सम्पादक मण्डल, मज़दूर बिगुल
देश के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। जीडीपी की वृद्धि दर धीमी पड़ रही है, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट जारी है, खेती का संकट गम्भीर होता जा रहा है, संकट और घोटालों से वित्तीय संस्थाएँ चरमरा रही हैं, बेरोज़गारी विकराल रूप में आ चुकी है, देश की एक बड़ी आबादी खाने-पीने की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पा रही है। कुपोषण भयंकर स्तर पर है (वैश्विक भूख सूचकांक के अनुसार भारत का हर दूसरा बच्चा कुपोषित है), देश की 50 प्रतिशत स्त्रियाँ ख़ून की कमी से पीड़ित हैं, ग़रीब किसान, मज़दूर और युवा आत्महत्याएँ कर रहे हैं और आम लोगों के लिए बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं और स्कूल-कॉलेजों की हालत दयनीय बनी हुई है—और आने वाले दिनों में इससे उबरने के कोई आसार दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहे हैं! क्योंकि मोदी सरकार के कारनामे अर्थव्यवस्था को और भी तेज़ी से ढलान पर लुढ़काने और मेहनकतकशों के सिर पर तकलीफ़ों का और भारी पहाड़ लादने का काम कर रहे हैं।
हाल में आये एक सर्वेक्षण ने बताया कि पिछले 6 वर्षों में देश के कुल रोज़गार में 90 लाख की कमी आ गयी! पहले आबादी बढ़ने की दर के अनुसार रोज़गार पैदा होने की दर नहीं बढ़ती थी मगर कुछ-न-कुछ रोज़गार बढ़ता रहता था। मगर आज़ादी के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि कुल रोज़गार कम हो गया हो, यानी जितने लोगों को पहले से काम मिला हुआ था, उनकी संख्या बढ़ने के बजाय और कम हो गयी। 2011-12 और 2017-18 के बीच रोज़गार में लगे लोगों में 90 लाख की कमी आयी। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सतत रोज़गार केन्द्र की ओर से किये गये एक व्यापक अध्ययन में सरकारी दावों को झुठलाने वाला यह तथ्य सामने आया है। मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में बेरोज़गारी के जिन आँकड़ों को झूठा घोषित कर दिया था, पिछले अगस्त में उसने पिछले दरवाज़े से उस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। यह रिपोर्ट बताती है कि बेरोज़गारी की हालत पिछले 45 वर्षों में सबसे बुरी है।
अब एक बार फिर मोदी सरकार मेहनतकश जनता की बदहाली की हालत बताने वाली एक रिपोर्ट को दबाने में लग गयी है! ख़ुद इस सरकार के राष्ट्रीय सांख्यिकीय विभाग द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार पिछले 40 सालों में पहली बार ऐसा हुआ है कि भारत में उपभोक्ता ख़र्च में गिरावट आयी है। जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच किये गये व्यय सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि ग्रामीण इलाक़ों में लोगों ने चीनी, नमक, मसाले और खाद्य तेल जैसी बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों पर भी पहले से कम ख़र्च किया, जिससे गाँवों में उपभोक्ता ख़र्च में 8.8 प्रतिशत की कमी आयी। जहाँ 2011-2012 में देहात में एक औसत व्यक्ति 1217 रुपये ख़र्च करता था, वहीं 2017-18 में वही व्यक्ति केवल 1110 रुपये ख़र्च करने की स्थिति में था। इसी दौरान, शहरी क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति ख़र्च 2212 से थोड़ा बढ़कर 2256 हो गया, हालाँकि इसका एक कारण ऊपरी तबक़ों द्वारा किया जाने वाली भारी ख़र्च भी है, क्योंकि शहरी ग़रीबों में भी बेरोज़गारी पहले से ज़्यादा बढ़ गयी है। कुल मिलाकर, देश में प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च 3.7 प्रतिशत कम होकर 1446 रुपये रह गया, 2011-12 से 56 रुपये कम है। यह रिपोर्ट जून 2019 में जारी होनी थी मगर अच्छे दिनों की पोल खुलने के डर से सरकार ने उसे दबा दिया।
रिपोर्ट के आँकड़े ग़रीबी और कुपोषण में ख़तरनाक बढ़ोत्तरी की ओर इशारा करते हैं, ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में। ग्रामीण आबादी खाने-पीने की चीज़ों की ख़रीद पर 2011-12 में 643 रुपये ख़र्च करती थी, पर 2017-18 में केवल 580 रुपये ही ख़र्च कर सकी। शहरी इलाक़ों में ख़र्च में मात्र 3 रुपये की बढ़ोत्तरी से यह 943 से 946 रुपये हो गया। यहाँ भी अगर हम औसत के नियम को समझें तो पता चलेगा कि भोजन पर ग़रीबों के ख़र्च में और भी ज़्यादा कमी आयी है। भोजन के अलावा अन्य सामानों पर ख़र्च में भी ग्रामीण इलाक़ों में 7.6 प्रतिशत की भारी कमी आयी है।
भारत में पिछली बार उपभोक्ता ख़र्च में गिरावट 1972-73 के वैश्विक तेल संकट के समय आयी थी। इससे समझा जा सकता है कि हालात कितने बुरे हैं। छिनते रोज़गार के कारण आमदनी में कमी और बढ़ती महँगाई इस स्थिति को और गम्भीर बना रहे हैं। खुदरा मूल्य आधारित उपभोक्ता सूचकांक अक्टूबर में पिछले 16 महीनों के सबसे ऊँचे बिन्दु 4.62 प्रतिशत पर पहुँच गया।
औद्योगिक उत्पादन में गिरावट लगातार जारी है। देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग आधे का योगदान करने वाले ऑटोमोबाइल उद्योग की सभी बड़ी कम्पनियों को बीच-बीच में उत्पादन ठप्प करना पड़ रहा है, लाखों गाड़ियाँ बिना बिके सड़ रही हैं, सैकड़ों शोरूम बन्द हो गये हैं और लाखों रोज़गार छिन रहे हैं। पिछले अगस्त में देश के कारख़ानों की कुल पैदावार में कमी आ गयी थी। मैन्युफ़ैक्चरिंग और बिजली दोनों का उत्पादन बढ़ने के बजाय घट गया, जोकि व्यापक आर्थिक मन्दी के गहराने का एक और संकेत है।
नये आँकड़े हालात की बढ़ती गम्भीरता को बताते हैं। देश में कुल बिजली उत्पादन क्षमता 3 लाख 63 हज़ार मेगावाट है। अभी तक बिजली की कमी की बात होती थी, लेकिन पिछली 7 नवम्बर को उच्चतम माँग केवल 1 लाख 88 हजार मेगावाट ही थी, यानी क्षमता के लगभग आधे के बराबर। इसका नतीजा यह हुआ कि 133 ताप बिजलीघर उत्पादन बन्द कर ग्रिड से बाहर हो गये हैं। इसीलिए अक्टूबर में कोयला आयात में 28% और पेट्रोलियम पदार्थों के आयात में 31% की गिरावट आ गयी। बिजली की सबसे अधिक खपत करने वाले कारख़ाने ठप हो रहे हैं, इसलिए बिजली के ख़रीदार नहीं हैं।
वित्तीय क्षेत्र की हालत खस्ता है। बैंकों के लाखों करोड़ रुपये पहले ही पूँजीपतियों ने दबा रखे हैं। ऊपर से अनेक बड़ी कम्पनियाँ जिनमें बैंक और बीमा कम्पनियों के लाखों करोड़ रुपये लगे हुए हैं, दिवालिया होने के कगार पर हैं या लगातार भारी घाटे में चल रही हैं। बैंक घोटालों ने बैंकों की कमर तोड़कर रख दी है। रिजर्व बैंक के अनुसार इस वर्ष अप्रैल से सितम्बर के बीच सरकारी बैंकों से 95760.49 करोड़ जालसाज़ उड़ा ले गये, ऐसा वित्त मंत्री ने 19 नवम्बर को संसद में बताया। कुछ साल पहले तक पूरे बैंकिंग क्षेत्र में सालभर में औसतन 15-20 हज़ार करोड़ रुपये के फ्रॉड होते थे।
सरकारी उपक्रमों को खोखला करके ताबड़तोड़ बेचने की मुहिम भी तेज़ी से जारी है। एअर इण्डिया और भारत पेट्रोलियम को मार्च तक बेच डालने की घोषणा वित्त मंत्री ने कर दी है। बीएसएनएल और एमटीएनएल के डेढ़ लाख से अधिक कर्मचारियों को बाहर करने का सुझाव वित्त मंत्रालय ने पहले ही दे दिया था। बीएसएनएल के हज़ारों कर्मचारियों को वीआरएस दिलवाया जा रहा है। मगर हज़ारों ठेका कर्मचारी तो सीधे सड़क पर धकेल दिये जायेंगे। रेलवे का निजीकरण तेज़ी से जारी है। पहली निजी ट्रेन ‘तेजस’ को दौड़ा दिया गया है और अब 150 ट्रेनों और 50 स्टेशनों को भी निजी हाथों में सौंप देने की तैयारी कर ली गयी है।
निर्यात में लगातार तीसरे महीने 1.1% की गिरावट आयी है। इसके साथ ही, आयात भी घट रहा है। लगातार पाँचवे महीने अक्तूबर में आयात में 16.3% कमी आयी। सबसे ज़्यादा जिन वस्तुओं का आयात घटा, वे हैं कोयला (-28%), पेट्रोलियम (-31%), इस्पात (-14%), रसायन (24%), प्लास्टिक सामग्री (-10%), बहुमूल्य नग (-17%)। ये सभी वे वस्तुएँ हैं जो उत्पादन में कच्चे या सहायक माल के काम आती हैं। यानी, घरेलू उत्पादन में गिरावट की वजह से कच्चे माल और ऊर्जा की खपत कम हो रही है।
सच्चाई यह है कि कारख़ाने ठप हो रहे हैं और बेरोज़गारी चरम पर जा पहुँची है, काम के बग़ैर मज़दूरों के परिवार दाने-दाने के मोहताज हो गये हैं। मन्दी की आड़ लेकर कम्पनियाँ काम बन्द कर रही हैं और मज़दूरों को निकाल रही हैं, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण मानेसर का होण्डा मोटरसाइकल कारख़ाना है जहाँ से 3000 मज़दूरों को बाहर कर दिया गया है। हर औद्योगिक क्षेत्र में बेरोज़गार मज़दूरों की बदहाली की दास्तान सुनने को मिल जायेगी। बेरोज़गारी की स्थिति का फ़ायदा उठाकर मालिक और ठेकेदार मज़दूरों पर मनमानी शर्तें लाद रहे हैं। कम से कम मज़दूरी देकर ज़्यादा से ज़्यादा काम ले रहे हैं। दफ़्तरी कामों में लगे नौजवानों को भी भयानक शोषण की परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है। 6000-7000 रुपये में 10-10 घण्टे काम कराया जा रहा है। प्राइवेट कम्पनियों में ही नहीं, बल्कि सरकारी विभागों तक में।
उपभोक्ता ख़र्च के आँकड़ों ने वास्तव में इस सच्चाई की पुष्टि ही की है कि ग़रीब लोग नमक, चीनी, मसाले, दाल, खाद्य तेल जैसी सबसे ज़रूरी खाद्य सामग्री भी नहीं ख़रीद पा रहे हैं। इसी भयावह स्थिति की पुष्टि अपराध ब्यूरो के आँकड़ों ने भी की है जिसके मुताबिक़ पिछले एक साल में लगभग 40 हज़ार दिहाड़ी श्रमिकों, किसानों-खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की है। छात्रों और बेरोज़गार नौजवानों द्वारा हताशा में आत्महत्या की घटनाओं में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई है।
शिक्षा-स्वास्थ्य-परिवहन जैसी सारी बुनियादी सुविधाओं को पूरी तरह निजी पूँजीपतियों के हाथों में दे देने की तैयारी चल रही है। देशभर में छात्र शिक्षा को महँगा और आम लोगों की पहुँच से बाहर करने की कोशिशों के ख़िलाफ़ सड़कों पर हैं। मगर उनकी बात सुनने के बजाय सरकार उनका बर्बर दमन कर रही है और उनके विरुद्ध झूठा प्रचार करने में भोंपू मीडिया और भाजपा के आईटी सेल को लगा दिया है।
बिगड़ते हालात से निपटने के लिए मोदी सरकार और संघ परिवार की यही रणनीति है। अगर लोग विरोध करेंगे, तो उन्हें देशद्रोही, विकास का दुश्मन आदि कहकर दमन का शिकार बनाया जायेगा। उनके पक्ष में कहीं से कोई आवाज़ न उठ सके, इसलिए पूरे देश में आतंक का माहौल पैदा किया जा रहा है। सरकार के विरोध में बोलने वाले बुद्धिजीवियों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पूरी अँधेरगर्दी के साथ, जेलों में क़ैद रखा जा रहा है। सारे नियम-क़ानूनों को ठेंगा दिखाकर ज़मानत से इन्कार किया जा रहा है।
दरअसल, हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के तमाम नारों के बावजूद असलियत यह है कि आर.एस.एस. इस देश में देशी-विदेशी बड़ी पूँजी का बेरोकटोक राज चाहता है। और इसी मक़सद को पूरा करने के वास्ते लोगों को बाँटने-लड़ाने के लिए उसे हिन्दू राष्ट्र का अपना एजेण्डा देश पर थोपना है। यही संघियों के परम गुरू हिटलर का एजेण्डा था और यही इनका भी लक्ष्य है। मोदी सरकार के साढ़े पाँच वर्ष के शासन में यह बिल्कुल साफ़ हो चुका है। मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ़्तार को काफ़ी तेज़ कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा पिछले लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूँजीवाद का आर्थिक संकट ढाँचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधानिक ढाँचा इसके दबाव से चरमरा रहा है।
अभी आये आँकड़े बताते हैं कि टाटा के बनाये चुनावी चन्दे के ट्रस्ट से क़रीब 90 प्रतिशत चन्दा अकेले भाजपा को मिला। यानी पूँजीपतियों का भारी हिस्सा इतने गम्भीर आर्थिक संकट के बावजूद अभी मोदी सरकार के ही पक्ष में है। इसका क्या कारण है? कारण बिल्कुल साफ़ है। फ़ासीवाद संकटग्रस्त पूँजीवाद का अन्तिम उपाय होता है, क्योंकि फ़ासिस्ट सत्ताएँ हर तरह के विरोध को किनारे लगाकर, बुर्जुआ लोकतंत्र के तमाम मुखौटों को उतार फेंककर पूरी बेशर्मी के साथ पूँजीपतियों को जनता को खुलकर लूटने का मौक़ा देती हैं। वे देश के प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों की बर्बर लूट के लिए उनके हवाले कर देती हैं। मज़दूरों के सारे अधिकारों को छीनकर वे उन्हें निहत्था कर देती हैं और झूठे भावनात्मक मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में बाँटकर उनकी एकजुटता को तोड़ देती हैं। ऐसे में मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से परेशान पूँजीपतियों को संकट से राहत मिल जाती है। अर्थव्यवस्था की इतनी बुरी हालत के बावजूद तमाम पूँजीपति मोदी और आर.एस.एस. के आगे जो नतमस्तक हो रहे हैं, इसका राज़ यही है।
जैसे-जैसे आर्थिक संकट गहरायेगा, फ़ासिस्ट सरकार का दमन, धार्मिक नफ़रत फैलाने के हथकण्डे और नकली राष्ट्रवाद के जुमले तेज़ होते जायेंगे। असम द्वारा एनआरसी को ख़ारिज किये जाने के बावजूद अमित शाह ने घोषणा कर दी है कि इसे पूरे देश में लागू किया जायेगा! इसका एकमात्र मक़सद है – अल्पसंख्यकों और राजनीतिक विरोधियों को आतंकित करना। कश्मीर की पूरी आबादी को भयंकर अमानवीय क़ैद में रखने के साढ़े तीन महीने पूरे हो चुके हैं। पूरी दुनिया में भारी विरोध के बावजूद मोदी सरकार वहाँ दमनचक्र और ख़बरों के ब्लैकआउट को और तेज़ कर रही है क्योंकि उनके अन्धराष्ट्रवाद के एजेण्डे के लिए यह ज़रूरी है।
मगर इससे हताश होने की ज़रूरत नहीं। आज ज़रूरत आम मेहनतकश अवाम को जागृत, शिक्षित, एकजुट और संगठित करने की अनवरत, अहर्निश कोशिशों में लग जाने की है। यह समय की माँग है कि फ़ासिस्टों की बेशर्म, क्रूर असलियत को लोगों के बीच नंगा किया जाये। उनके पास कॉरपोरेट घरानों का मीडिया है जो दिनों-रात झूठ की बारिश कर रहा है। लेकिन हमारे पास संख्याबल की ताक़त है। बिखरे प्रयासों को एकजुट करने की ज़रूरत है। केवल सोशल मीडिया का सहारा छोड़कर गाँवों-शहरों के आम मेहनतकश ग़रीबों की झुग्गी-झोंपड़ियों तक जाने और उनके भीतर जाति-धर्म की राजनीति और धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासिज़्म के विरुद्ध राजनीतिक चेतना पैदा करने के प्रयासों में लग जाने की ज़रूरत है। बेरोज़गारी की मार झेल रहे नौजवानों की भारी आबादी के बीच जाकर फ़ासिस्टों के झूठों को बेनक़ाब करना होगा। जनता के बीच जाकर उसे सच्चाई बताने के विभिन्न तरीक़ों से फ़ासिस्टों के प्रचार के ज़मीनी नेटवर्क का मुक़ाबला करना होगा।
यह सही है कि अभी हम अपने काम में काफ़ी पीछे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पहले से ही हथियार डाल दें। यह विकल्प हम नहीं चुन सकते क्योंकि इसका मतलब होगा सभ्यता और मनुष्यता के विनाश पर अपने हाथों से मुहर लगा देना। फ़ासिस्टों और निरंकुश बुर्जुआ सत्ताओं को अगर अपना खेल खेलने के लिए खुला छोड़ दिया जायेगा तो वे नरसंहारों, दंगों, युद्धों और पर्यावरण-विनाश के द्वारा मनुष्यता को ही तबाह कर देंगे। इसलिए, लड़ना तो होगा ही। और कोई विकल्प नहीं है।
हमें व्यापक जन प्रचार के तरीक़े अपनाने होंगे, वैकल्पिक जन-मीडिया संगठित करना होगा और हर मोर्चे पर उन अतार्किक, अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक विचारों के ख़िलाफ़ प्रचार चलाना होगा, जिनका इस्तेमाल करके फ़ासीवादी ताक़तें निराश और पिछड़ी चेतना वाले मध्य वर्ग और मज़दूरों के बीच अपना सामाजिक आधार बनाने का काम करती हैं। जिस स्तर पर भी सम्भव हो, प्रगतिशील, सेक्युलर आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों को ऐसे दस्तों में संगठित करने की राह निकालनी होगी, जो तृणमूल स्तर पर लम्पट-असामाजिक-आपराधिक तत्वों और फ़ासीवादी गुण्डों से निपटने को तैयार हों।
आने वाला समय मेहनतकश जनता और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए कठिन और चुनौतीपूर्ण है। हमें राज्यसत्ता के दमन का ही नहीं, सड़कों पर फ़ासीवादी गुण्डा गिरोहों का भी सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। रास्ता सिर्फ़ एक है। हमें ज़मीनी स्तर पर ग़रीबों और मज़दूरों के बीच जुझारू संगठन बनाने होंगे। बिखरी हुई मज़दूर आबादी को जुझारू यूनियनों में संगठित करने के अतिरिक्त उनके विभिन्न प्रकार के जनसंगठन, मंच, जुझारू स्वयंसेवक दस्ते, चौकसी दस्ते आदि तैयार करने होंगे। आज जो भी वाम जनवादी शक्तियाँ वास्तव में फ़ासीवादी चुनौती से जूझने का जज़्बा और दमख़म रखती हैं, उन्हें छोटे-छोटे मतभेद भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास में मज़दूर वर्ग की फ़ौलादी मुट्ठी ने हमेशा ही फ़ासीवाद को चकनाचूर किया है, आने वाला समय भी इसका अपवाद नहीं होगा। मगर इसके लिए हमें अपनी भरपूर ताक़त के साथ तैयारी में जुटना होगा।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019
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