मज़दूरों पर बढ़ते हमलों के इस समय में करोड़ों की सदस्यता वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें कहाँ हैं?

–पराग

पाँच करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ट्रेड यूनियनें तब एकदम चुप मारकर बैठी हैं जब मज़दूर वर्ग पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं और बेरोज़गारी का स्तर 45 सालों में सबसे ज्यादा है। उन्हें ठेके पर काम कर रहे या छोटे कारखानों में लगे करोड़ों असंगठित मज़दूरों के बिगड़ते हालात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, परन्तु सीटू, एटक, एचएमएस जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है। कांग्रेसी यूनियन इंटक और संघी यूनियन बीएमएस से तो इसकी उम्मीद करना ही बेवकूफ़ी है।

साल भर में एकाध प्रदर्शनों की रस्म आदयगी के अलावा केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों में मौजूद नेता कभी सरकार द्वारा कमज़ोर किये जा रहे श्रम कानूनों के विरोध में कुछ नहीं करते और ना ही सरकारी उपक्रमों को एक-एक करके बेचे जाने और निजीकरण के लिए बढ़ते कदमों पर कोई एकजुट और जुझारू तेवर दिखा पातेे हैं । इन मौकों पर भी वे केवल रस्म अदायगी करते दिखाई पड़ते हैं। सरकार अन्तरराष्ट्रीय और देशी पूँजी के पक्ष में रोज़ाना नयी नीतियाँ बना रही है और सरकारी उपक्रमों को नीतियों द्वारा खोखला किया जा रहा है पर ये ट्रेड यूनियनें केवल उस दिन के इन्तज़ार में बैठी हैं जब उनकी आर्थिक माँगे रखी जायेंंगी और वे कुछ टुकड़े पाने के लिए समझौता कर लेंगी। आज जब रेलवे, बीएसएनएल, एमटीएनएल, एचएएल, ओएनजीसी जैसे सरकारी उपक्रमों और बैंकों को भी योजनाबद्ध ढंग से तबाह करके निजीकरण की तैयारी की जा रही है तब भी इनकी यूनियनें खाली गाल बजाने के सिवा कुछ नहीं कर रही हैं। ये ट्रेड यूनियनें ठेका मज़दूरों का इस्तेमाल केवल भीड़ बढ़ाने के लिए करती हैं पर उनके लिए रोज़गार की गारण्टी, न्यूनतम आय और बेरोज़गारी भत्ते जैसी माँग कभी नहीं उठाते । यह सब इसलिए है क्योंकि इन ट्रेड यूनियनों का आधार जिस मज़दूर-कर्मचारी वर्ग में है वह निम्न-बुर्जुआ बन चुका है जिसे अभिजात मज़दूर वर्ग कहा जाता है। उन्हें केवल पूँजीवादी लूट में ही अपना एक हिस्सा चाहिए इसलिए वे सीमित निजी आर्थिक माँगों पर ही खड़े होते हैं । उनकी सभी माँगों की सीमा केवल उनके निजी आर्थिक हित हैं और अर्थवादी संशोधनवाद से ग्रस्त इनका नेतृत्व इन्हीं निजी आर्थिक माँगों पर ही केवल लामबन्द कर सकता है। अर्थवाद यानी मज़दूरों को थोड़े पैसे बढ़वाने की लड़ाई में ही उलझाये रखना ही उनका लक्ष्य है, और मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को उन्नत करके पूँूजीवाद के ख़ात्मे की लड़ाई के लिए उनको तैयार करना इन यूनियनों का मकसद है ही नहीं। ये जिन राजनीतिक दलों से जुड़ी हैं वे भी संसदीय राजनीति के दलदल में लोट लगाने में मगन हैं। अपनी चुनावी राजनीति के लिए ये भी जाति, धर्म, क्षेत्रीय भिन्नताओं का इस्तेमाल करते हैं। आज मेहनतकशों पर हो रहे फ़ासिस्ट हमले के मुक़ाबले के लिए कमर कसने की इनसे उम्मीद करना आज एक बेवकूफ़ी के सिवा कुछ नहीं होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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