गाँव की ग़रीब आबादी के बीच मनरेगा मज़दूर यूनियन की ज़रूरत और’क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन’ के अनुभव
– प्रवीन कुमार
पिछले लगभग 6-7 महीनों से हरियाणा के कलायत ब्लॉक के आसपास के गाँवों में रहने वाले मनरेगा मज़दूर संघर्ष कर रहे हैं। उनके संघर्ष की शुरुआत इस बात को लेकर हुई कि मनरेगा विभाग उनके गाँव में रहने वाले सभी मज़दूरों का मनरेगा कार्ड बनाये और मनरेगा के तहत मिलने वाला काम जितना जल्द हो सके शुरू करवाये। क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन के बैनर तले ये मज़दूर अपने संघर्ष को जारी रखे हुए हैं। मनरेगा मज़दूर अपने इस संघर्ष के दौरान कलायत के तीन-चार गाँव में मनरेगा का काम शुरू करवाने में कामयाब भी हुए हैं। मनरेगा मज़दूरों को अपना यह संघर्ष जारी रखने में बहुत सारी दिक्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। इन सभी दिक्क़तों का ज़िक्र हम आगे करेंगे।
मनरेगा मज़दूरों के साथ सत्ता में आने वाली सभी सरकारों का छल हम सभी जानते हैं कि मनरेगा अधिनियम यूपीए सरकार के समय लागू किया गया था। इस दौरान सरकार ने यह माना था कि गाँव में रहने वाले अकुशल मज़दूरों (कोई भी मज़दूर अकुशल भी सरकार की कमी के कारण होता है) को सरकार इस क़ानून के तहत 100 दिन का रोज़गार मुहैया करवाएगी। सरकार का यह मानना था कि इस क़ानून को लागू करने से गाँव की ग़रीबी दूर की जा सकती है। इस मनरेगा अधिनियम को पहले 200 जिलों में और बाद में पूरे देश में लागू करने की बात की गयी। लेकिन यह हम अच्छी तरह जानते हैं कि सत्ता में आने वाली किसी भी सरकार द्वारा इसको ज़मीनी स्तर पर कितना लागू किया गया है। अगर हम मनरेगा की किसी भी रिपोर्ट को उठाकर देखें तो उसमें औसतन 43, 48 या ज़्यादा से ज़्यादा 54 दिन ही किसी गाँव में काम चल पाया है। लेकिन अब तो इस विभाग का इतना बुरा हाल हो चुका है कि इसमें पूरे साल में काम का औसत केवल 34 दिन ही रह गया है। यह तथ्य अपने-आप में सरकार और मनरेगा विभाग की असल सच्चाई को उजागर कर देती है। एक तरफ़ आज भाजपा सरकार यह दावा कर रही है कि वह मनरेगा के काम को 100 दिन से बढ़ाकर 120 या 150 दिन कर देगी, लेकिन हक़ीक़त हमें यह बताती है कि 120 या 150 दिन तो दूर की बात वह अब तक 100 दिन के काम को भी पूरे देश में कहीं पर भी लागू नहीं कर पायी है। भाजपा की बेशर्मी तो इस बात में भी देखी जा सकती है जब वह एक ओर मनरेगा की मज़दूरी बढ़ाने की बात करती है, दूसरी मनरेगा मज़दूरी केवल 1 रुपये से लेकर 5 रुपये तक ही बढ़ाती है। यह मज़दूरों के साथ मज़ाक़ नहीं तो क्या है?
अगर थोड़ा और गहराई में जायें तो मनरेगा अधिनियम के तहत मज़दूरों को थोड़े-बहुत जितने भी अधिकार दिये गये हैं वह भी ज़मीनी स्तर पर कहीं भी लागू नहीं हो पाते। आज जहाँ कहीं भी मनरेगा मज़दूर काम कर रहे हैं वहाँ किसी भी प्रकार की सुविधा उनको नहीं मिल पाती। जैसे काम के दौरान मज़दूरों को साफ़ पीने का पानी, आराम करने के लिए छाया व बच्चों के लिए पालनाघर की व्यवस्था करना प्रशासन या सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन किसी सरकार या प्रशासन का मज़दूरों की तरफ़ ध्यान हो तभी ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जा सकती हैं। क्या हमें लगता है कि आज़ादी के 70 साल के इतिहास में सत्ता में आने वाली किसी भी पार्टी (कांग्रेस हो या भाजपा) ने मज़दूरों के हित में कोई क़ानून बनाया है या अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए अगर कोई छोटा-मोटा बनाया भी है तो उसको ज़मीनी स्तर पर कहीं लागू किया हो? हाल की घटना का ज़िक्र करें तो कैथल के गाँव क्योड़क व दयोहरा में मनरेगा में काम के दौरान हुई बीमारी के कारण चार महिलाओं की मौत हो चुकी है और 45 से ज़्यादा मज़दूर बीमारी से जूझ रहे हैं। चार मज़दूरों की मौत के कारण बीमार मज़दूर भी डर के साये में जी रहे है कि अगला नम्बर पता नहीं किस मज़दूर का होगा।
मामला यह है कि इन लगभग 50 मनरेगा मज़दूरों से कुरुक्षेत्र जिले के गाँव गुमथला नहर की सफ़ाई करवाई जा रही थी। इसी दौरान ये बीमारी की चपेट में आ गये जिसका ख़ामियाज़ा इनको अपने चार साथियों की मौत से चुकाना पड़ा और अभी तक कुछ भी पक्का नहीं कहा जा सकता कि और कितने मनरेगा मज़दूर इसकी चपेट में आयेंगे। इन मज़दूरों की मौत का ज़िम्मेदार मनरेगा प्रशासन व सरकार के सिवा किसको कहा जा सकता है? अब तक सरकार के किसी भी नेता-मंत्री द्वारा किसी भी प्रकार का मुआवज़ा या किसी भी प्रशासनिक अधिकारों पर कार्रवाई की बात कहना तो दूर, अभी तक उन्हें मज़दूरों के परिवार के किसी सदस्य का हाल-चाल पूछना भी ज़रूरी नहीं लगा। इस चुनावी माहौल में जब सभी चुनावबाज़ पार्टियों व उनके नेता मंत्रियों का यह हाल है तो सत्ता में आने के बाद वह मज़दूरों पर कितना क़हर बरपा करेंगे इसका अन्दाज़ा हम लगा सकते हैं।
आज मनरेगा मज़दूरों को अपने आसपास काम न मिलने की वजह से किसी दूसरे ज़िले में जाकर काम करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। यह तो अकेले कैथल जिले की घटना है। लेकिन अगर हम देश के अलग-अलग हिस्सों की बात करें तो सरकार व प्रशासन की लापरवाही के कारण कितने ही मज़दूर व उनके बच्चे हर दिन मौत के साये में जीने के साथ-साथ मौत की नींद सो रहे हैं। इन सबका ज़िक्र तो किसी भी प्रिण्ट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ग़ायब होता है।
संघर्ष के दौरान सामने आयी दिक्क़तें
सबसे पहले जब यूनियन के सदस्यों ने कलायत के सिर्फ़ एक गाँव चौशाला में मनरेगा का काम शुरू करवाने के लिए क़दम आगे बढाया तो हमें बहुत परेशानियों का सामना करना। इस दौरान हमने 1 अप्रैल, को कलायक बीडीपीओ दफ़्तर पर प्रदर्शन किया और हमने बीडीपीओ को सभी समस्याओं से अवगत करवाया ताकि हम गाँव में मनरेगा का काम शुरू करवा सकें। लेकिन काफ़ी लम्बे समय तक मनरेगा के काम को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की गई। अब हम समझ चुके थे कि ग्राम पंचायत समेत सभी प्रशासनिक अधिकारी इस काम को शुरू करवाने में इसलिए दिलचस्पी नहीं ले रहे थे ताकि वह मज़दूरों के अधिकार को हड़प कर अपना-अपना हिस्सा बाँट सकें। अब हमको पता चल चुका था कि हर गाँव में मनरेगा का काम काग़ज़ों में तो दिखा दिया जाता है लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ ओर ही होती है।
इस संघर्ष के दौरान हमने यह भी महसूस किया कि अगर किसी भी गाँव में मनरेगा का काम शुरू करवाना है तो उसके लिए हमें सबसे पहले मज़दूरों के बीच से मेट (मेट मनरेगा मज़दूरों के ऊपर होता है और उसको मज़दूरों से उनको मिला हुआ काम करवाना होता है) का प्रस्ताव डालना पड़ेगा ताकि हम मनरेगा के काम को ग्राम पंचायत के हाथों सौंपने की बजाय अपने हाथ में ख़ुद ले सकें। अगर मज़दूरों का अपना मेट होगा तो मज़दूर भी उस पर आसानी से नज़र रख सकते हैं ताकि वह मज़दूरों से साथ किसी भी प्रकार का धोखा न कर सके। इसी दौरान हमें यह भी पता चला कि प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा मनरेगा का काम चलवाना तो दूर वह तो सुचारु रूप से मज़दूरों की काम की कॉपी यानी जॉब कार्ड भी नहीं बनाते जिसके तहत मज़दूरों को मनरेगा का काम मिलता है।
ऐसे में यूनियन ने अपने चार महीने के संघर्ष के बाद केवल मज़दूरों के बीच से मेट ही नहीं बनवाया बल्कि साथ में जॉब कार्ड बनवाने की प्रक्रिया भी शुरू करवायी। यूनियन यह पूरी प्रक्रिया कलायत ब्लाक के आस-पास के 7-8 गाँव में वहाँ मनरेगा मेटों की सहयता से लगातार पूरी करवा रही है। जॉब कार्ड बनवाने की प्रक्रिया में ही हमें प्रशासनिक अधिकारियों के स्टाफ की भी अच्छी ख़ासी कमी महसूस हुई। किसी भी विभाग में जब अधिकारी ही नहीं होंगे तो उस विभाग का काम सुचारु रूप से कैसे चल पायेगा। इसलिए किसी भी गाँव में मनरेगा का काम शुरू करवाने के साथ ही साथ हमें इस बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि मनरेगा विभाग में सभी अधिकारी सरकार द्वारा उपलब्ध करवाये जायें।
हमें आज यूनियन की ज़रूरत क्यों है?
मज़दूरों के लिए यूनियन का होना कितना ज़रूरी है इसका अन्दाज़ा हम ऊपर की चर्चा से लगा सकते हैं। आज के हालात को देखते हुए केवल मनरेगा मज़दूरों को ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र के मज़दूरों को अपनी यूनियन खड़ी करने की ज़रूरत है। वैसे तो ‘मज़दूर बिगुल’ में मज़दूरों की यूनियन के बारे में कई बार लेख लिखे गये हैं कि मज़दूरों को अपनी यूनियन में संगठित होने की क्यों ज़रूरत होती है, लेकिन एक बार फिर हम ‘क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन’ की ओर से मज़दूरों के बीच यूनियन की ज़रूरत पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे।
मज़दूरों के नेता लेनिन ने ट्रेड यूनियन को मज़दूरों की पहली पाठशाला कहा है। उनका मतलब यही था कि अगर कोई यूनियन मज़दूरों की असल लड़ाई को लड़ रही है तो वह मज़दूरों की आर्थिक माँगों को लेकर लड़ने के साथ-साथ उनमें बाहर से राजनीतिक चेतना डालने का हरसम्भव प्रयास करेगी ताकि वह पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की लड़ाई को पहचान कर अपने संघर्ष को आगे बड़ा सकें। मज़दूरों की असल यूनियन वही होती है जो मज़दूरों में उनकी आर्थिक माँगों से राजनीतिक माँगों की तरफ़ बढ़ने की समझ और साहस पैदा करती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में जाति व धर्म की कितनी गहरी जड़ें हैं। मज़दूरों की असल लड़ाई लड़ने वाली यूनियन इन जाति-धर्म की दीवारों पर चोट करने के साथ-साथ मज़दूरों में वर्ग एकजुटता पैदा करने का काम करेगी ताकि हर जाति-धर्म से आने वाले मज़दूरों में सर्वहारा चेतना पैदा की जा सके।
मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन