प्रधानमंत्री अमेरिका जाकर घोषणा कर रहे हैं कि ‘भारत में सब चंगा सी!’
पर आम मेहनतकश जनता पर मन्दी की मार तेज़ होती जा रही है

– पराग वर्मा

मोदी सरकार और पूरा बिका हुआ पूँजीवादी मीडिया फ़र्ज़ी आँकड़ों और झूठे दावों का चाहे जितना धुआँ छोड़ ले, लगातार गहराते आर्थिक संकट को ढाँक-तोप कर रखना अब उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। एक तरफ़ रोज़ होते खुलासे उनके झूठ के ग़ुब्बारे को पंचर कर दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ आम लोगों के जीवन पर बेरोज़गारी, महँगाई, क़दम-क़दम पर सरकारी और निजी कम्पनियों की बढ़ती लूट और डूबते पैसों की जो मार पड़ रही है वह उन्हें असलियत का अहसास करा रही है। इसी कड़वी सच्चाई से ध्यान भटकाने के लिए फ़र्ज़ी देशभक्ति के नगाड़े ख़ूब पीटे जा रहे हैं। हक़ीक़त यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था पूरे विश्व में चरमरा रही है और वैश्विक आर्थिक मन्दी के मौजूदा दौर ने दुनिया के लगभग सभी देशों को चपेट में ले लिया है। भारत में फ़ासिस्ट मोदी सरकार की कारगुज़ारियों ने इस संकट को और भी गम्भीर बना दिया है। ‘मज़दूर बिगुल’ में हम लगातार इस आर्थिक संकट के अलग-अलग पहलुओं और इसके कारणों पर लिखते रहे हैं। इस लेख में गहराते आर्थिक संकट की तीन बड़ी अभिव्यक्तियों की पड़ताल की गयी है।

रोज़गार का गहराता संकट

मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान नौकरियाँ पैदा होना तो दूर उनमें और कटौती होती रही। ख़ासकर, 2016 में नोटबन्दी के बाद बड़े पैमाने पर लोगों के रोज़गार छिन गये। मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था जैसे जुमले उड़ाये गये पर देशी-विदेशी कोई निवेश नहीं हो रहे हैं। न तो प्राइवेट सेक्टर रोज़गार पैदा कर पाया और ना ही सरकारी भर्तियाँ निकलीं। सरकारी नौकरियों के जो रिक्त पद भरने थे वो भी नहीं भरे गये। इसके विपरीत मन्दी के कारण करोड़ों रोज़गार छिन गये। वर्ष 2018 में भारत में 1.10 करोड़ लोगों ने नौकरियाँ गँवाई। ख़ुद सरकारी आँकड़े बताते हैं कि यह पिछले 45 सालों की सबसे ज्यादा बेरोज़गारी है।

मन्दी की मार का सबसे ज्यादा असर ऑटोमोबाइल सेक्टर में देखने को मिला। भारत में होने वाली मैन्युफ़ैक्चरिंग का 49 प्रतिशत ऑटोमोबाइल सेक्टर से आता है और इसी सेक्टर में इस साल की पहली तिमाही में गाड़ियों की बिक्री में 18.4 प्रतिशत की गिरावट हुई क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में लोगों की ख़रीदने की क्षमता ही कम हो गयी है। कार, ट्रक और बाइक बनाने वाली लगभग सभी बड़ी कम्पनियों की बिक्री में गिरावट आयी जिसके कारण उन्हें अपने कारख़ानों के उत्पादन में कटौती करनी पड़ी। उत्पादन में कटौती का सीधा असर वहाँ काम करने वाले लाखों मज़दूरों पर हुआ। मारुति की फैक्ट्री से 3000 मज़दूरों को निकाल दिया गया। महिन्द्रा ने 15000 कर्मचारियों को बाहर कर दिया। निसान और रेनॉल्ट ने भी 1700 से ज्यादा कर्मचारियों को बाहर किया। नौकरियों से हुई छँटनी के ये आँकड़े केवल बड़ी कम्पनियों में काम करने वालों के हैं। बड़ी ऑटोमोबाइल कम्पनियों के लिए सामान बनाने वाली सैकड़ों वेंडर कम्पनियों के अस्थायी और ठेका मज़दूरों को भी लाखों की तादाद में नौकरी से हाथ धोने पड़े । बिक्री में कमी के कारण हीरो मोटो कॉर्प, मारुति सुजुकी, महिन्द्रा, टाटा और अशोक लेलैंड जैसी कम्पनियों ने कई-कई दिनों तक अपना उत्पादन बन्द कर किया जिससे दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूरों की आमदनी एकदम शून्य हो गयी। कारों के सैकड़ों शोरूम भी बन्द हो गये जिनमें काम करने वाले लगभग 25,000 लोग बेरोज़गार हो गये।

विदेशी वित्तीय पूँजी को आसानी से भारत में प्रवेश देने के लिए सरकार ने आयात शुल्क और कॉरपोरेट टैक्स कम कर दिया, जिसका असर यह हुआ कि भारत में उत्पादन करने वाली कई फ़ैक्ट्रियाँ बन्द हो गयीं और बेरोज़गारी बढ़ गयी। सिंगल ब्राण्ड रिटेल में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश में और ढील देकर 30 प्रतिशत उत्पाद भारत में बने होने की शर्त को कमज़ोर कर दिया गया है। कॉण्ट्रैक्ट मैन्युफ़ैक्चरिंग और कोयले के खनन में भी विदेशी निवेश को खुली छूट दे दी गयी है। बड़ी विदेशी पूँजी के लिए रास्ते इतने साफ़ कर दिये गये हैं कि बहुत सी देशी कम्पनियों का बन्द होना और उनमें काम कर रहे लोगों का रोज़गार जाना तय है। टेक्सटाइल सेक्टर का भी बुरा हाल है। भारत से ही कच्चा माल लेने वाला बंगलादेश अब भारत से ज़्यादा टेक्सटाइल का निर्यात करता है और भारत के टेक्सटाइल उद्योग की हालत खस्ता है। लाखों की तादाद में टेक्सटाइल मज़दूरों का काम छूट गया है। मशीनरी पार्ट और इलेक्ट्रॉनिक उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली छोटी कम्पनियों के पास भी ऑर्डर नहीं हैं और कभी कम उत्पादकता के बहाने तो कभी अनुशासन के बहाने इन कम्पनियों ने भी बहुत से युवाओं को सड़क पर बेरोज़गारों की भीड़ में धकेल दिया है।

रियल एस्टेट सेक्टर में भी एक-एक करके बड़ी-बड़ी भवन निर्माण कम्पनियों के नुक़सान की ख़बर है जिससे निर्माण मज़दूरों का बुरा हाल हैं। करीब तीन करोड़ लोगों को रोज़गार देने वाले इस सेक्टर में गतिविधियाँ लगभग ठप हो जाने से बहुत बड़े पैमाने पर लोग बेरोज़गार हुए हैं या उनकी मज़दूरी में कमी आयी है। तेज़ी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुएँ जैसे बिस्कुट, साबुन, शैम्पू, डिटर्जेंट, अंडरवियर आदि की खरीद में गिरावट का सीधा मतलब है कि बेरोज़गारी की मार झेल रही आम मेहनतकश जनता के पास मूलभूत सामान खरीदने के भी पैसे नहीं हैं। क्रेडिट सुइस नामक वित्तीय कम्पनी के हिसाब से रोज़मर्रा के उत्पादों की बिक्री में कमी जो आज दिखाई दे रही हैं वो पिछले 15 सालों में सबसे बुरी स्थिति है। सरकारी नीतियों द्वारा बीएसएनएल और एमटीएनएल और अन्य सरकारी उपक्रमों और सार्वजनिक क्षेत्र की अन्य कम्पनियों को नुक़सान पहुँचाया गया और उनसे अत्यधिक डिविडेण्ड लेकर उनकी आर्थिक हालत कमज़ोर की गयी है। बीएसएनएल और एमटीएनएल को नुक़सान पहुँचाकर, अम्बानी की रिलायंस कम्पनी के जिओ टेलीकॉम को फ़ायदा पहुँचाया जा रहा है। इस नीति के चलते बीएसएनएल और एमटीएनएल के एक लाख पचासी हज़ार कर्मचारियों का भविष्य अँधेरे में है। वित्तीय क्षेत्र हो या फिर आईटी या इंजीनियरिंग का क्षेत्र, सभी में नौकरियाँ जाने का सिलसिला क़ायम है। रेलवे में निजीकरण के कारण तीन लाख से ज़्यादा नौकरियाँ चली जाने का अनुमान है। दूसरे सभी सरकारी उपक्रमों में कई सालों से भर्ती बन्द है। कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति के बाद भी नयी भर्तियाँ नहीं की जा रही हैं। लघु उद्योगों में तो आये दिन मज़दूरों को निकाला जा रहा है। आने वाले समय में पिछले साल के बेरोज़गारी के आँकड़े दोगुने हो जायें तो आश्चर्य नहीं, यह अलग बात है कि सरकार इस सच्चाई को आप तक पहुँचने नहीं देगी।

बैंकिंग का संकट

बैंकिंग संकट का एक मुख्य कारण बैंकों का पूँजीपतियों को कर्ज़ देना और फिर न चुका पाने की परिस्थिति में उसे एन.पी.ए (नॉन परफार्मिंग एसेट) घोषित करके माफ़ कर देना है। जब कॉरपोरेट घराने कर्ज़ नहीं चुकाते तो सरकार मध्यस्थता कर उन्हें माफ़ करवाती है। बाद में सरकार ख़ुद इन बैंकों को पैसे देकर बेलआउट भी करती है यानी उन्हें घाटे से बाहर निकालती है। 2014 में सरकारी बैंकों का जो एन.पी.ए 2.24 लाख करोड़ था वह अब 7.23 लाख करोड़ हो गया है, यानी पिछले पाँच सालों में तीन गुना बढ़ चुका हैं। बैंकों का कुल एन.पी.ए. दस लाख करोड़ से ज़्यादा का है। इसके अलावा पिछले 11 सालों में कॉरपोरेट कम्पनियों द्वारा की गयी धोखाधड़ी की संख्या में भी अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। नीरव मोदी और माल्या जैसे कई उद्योगपति बैंकों को चूना लगाकर भाग चुके हैं। 11 सालों में हुई इन धोखाधड़ियों के कारण बैंकों को कुल 2.05 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है। चौकीदार सरकार की निगरानी में केवल पिछले पाँच सालों में 1.74 लाख करोड़ रुपये के बैंक फ्रॉड हुए हैं।

वैश्विक रेटिंग एजेंसी मूडी का दावा है कि आने वाले समय में कॉरपोरेट डिफ़ॉल्ट और बढ़ेगा जिसके कारण बैंकों में पूँजी की कमी और बढ़ सकती है। हर बैंक में बढ़ रहे इन घाटों को देखते हुए सरकार ने छोटे बैंकों का बड़े-बड़े बैंकों के साथ विलय कर दिया है जिससे बैंकों की इस बदहाल स्थिति को कुछ समय के लिए टाला जा सके। हाल ही में आईएल एंड एफ़एस जैसी विशाल नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कम्पनी के डूबने की खबर से ये भी पता चलता है कि इनको तो बनाया ही इसलिए गया था जिससे जनता के खराबों रुपये इनके माध्यम से पूँजीपतियों तक पहुँचाये जा सकें। आईएल एंड एफ़एस इंफ्रास्ट्रक्चर को फाइनेंस करने वाली कम्पनी है जिसने बहुत सी इंफ्रास्ट्रक्चर कम्पनियों को क़र्ज़ दे रखा था। अब उस पर 91 हज़ार करोड़ रुपये का क़र्ज़ है जिसकी वह किश्त भी नहीं चुका पा रही है। आईएल एंड एफ़एस ने बहुत से सरकारी/गैरसरकारी बैंकों से कर्ज़ लिया हुआ है और साथ ही एलआईसी, पीएफ़ और पेंशन फण्ड के पैसों का भी उसमें निवेश है। कर्ज़ ना चुका सकने की सूरत में आईएल एंड एफ़एस दिवालिया घोषित होगा और इन सभी कम्पनियों का पैसा डूब जायेगा। एक और ख़बर के अनुसार इंडिया बुल्स प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी ने विभिन्न सरकारी और निजी बैंकों से हज़ारों करोड़ के क़र्ज़े लिये और इन्हें ऐसे पूँजीपतियों को दिया जिन्होंने वापस उसका कुछ हिस्सा इंडिया बुल्स में ही फिर निवेश कर दिया। इण्डिया बुल्स जैसी कम्पनियों ने कई मुखौटा कम्पनियाँ भी खोल रखी हैं जो केवल नाम की कम्पनियाँ हैं और उनका इस्तेमाल केवल पैसे को इधर से उधर करने के लिए किया जाता है। इस तरह की हेरा-फेरी करते हुए यह कम्पनी जानती थी कि ये कर्ज़े एन.पी.ए घोषित होकर माफ़ हो ही जायेंगे। सोने पर सुहागा यह कि इस कम्पनी के सारे कर्ता-धर्ता भाजपा से जुड़े हुए हैं। इस तरह केवल नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कम्पनियों के रास्ते से जनता की 3 लाख करोड़ रुपये की पूँजी, लुटेरे पूँजीपतियों के पास पहुँचकर डूब चुकी है।

अभी ताज़ा उदाहरण पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैंक का है जिसने एचडीआईएल नामक इंफ्रास्ट्रक्चर कम्पनी को 6500 करोड़ का क़र्ज़ दिया जोकि बैंक के कुल दिये हुए क़र्ज़ का 73 प्रतिशत है। ये सब बैंक द्वारा 21000 फ़र्जी अकाउंट बना के किया गया। पिछले साल इसी तरह के एक मामले में पंजाब नेशनल बैंक में 14000 करोड़ का डिफ़ॉल्ट हुआ था । इसके बाद भी सरकार पूँजीपतियों से पैसा वसूलने की जगह बैंक के उपभोक्ताओं का ही उत्पीड़न करने पर आमादा है। रिज़र्व बैंक ने निर्देश दिये हैं कि इस बैंक के उपभोक्ता 6 महीनों तक प्रतिमाह केवल अधिकतम 10000 तक की रकम निकाल सकते हैं। लोगों को उनके ही पैसे निकालने से रोक दिया गया है। अब तो यह बताने की ज़रूरत भी नहीं कि पीएमसी बैंक के सभी डायरेक्टर भारतीय जनता पार्टी से हैं। एक और बड़ी कम्पनी दीवान हाउज़िंग फ़ाइनेंस लिमिटेड पर भी मुखौटा कम्पनियाँ बनाकर पूँजी के हेरा-फेरी का आरोप है। इसी तरह लक्ष्मी निवास बैंक और यस बैंक भी दिवालिया होने की कगार पर हैं और उन्होंने भी बड़े पूँजीपतियों को इसी तरह क़र्ज़ बाँटे हैं।
बैंकों की पूँजी की लूट की भरपाई का सारा बोझ जनता की पीठ पर ही पड़ रहा है और आने वाले दिनों में यह और भी अधिक बढ़ने वाला है।

राजकोषीय घाटे का संकट

आर्थिक मन्दी के कारण जीएसटी के तहत राजकोष में संग्रह लगातार कम हुआ। मन्दी के कारण ही आय कर भी कम जमा हुआ। नौकरियों की अनिश्चितता के कारण उपभोक्ताओं के ख़रीदने की क्षमता भी कम हुई है जिसके कारण उत्पादों से मिलने वाला कर भी कम जमा हुआ है। इसका मतलब है सरकारी ख़ज़ाने में बजट से कम पैसा जमा हुआ है और मौजूदा ख़र्चों के हिसाब से राजकोषीय घाटा बढ़ा है। मन्दी के समय जब पूँजीपति वर्ग को अर्थव्यवस्था में निवेश करने से मुनाफ़ा नहीं दिखता तो वे केवल शेयर बाज़ार में सट्टे पर पैसा लगाते हैं और पूँजी की अवास्तविक बढ़ोत्तरी से मुनाफ़ा कमाते हैं। पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश बढ़ाने के लिए सरकार उनके पक्ष में और ज़्यादा नीतियाँ बनाती है, जैसे हाल ही में कई बार रिज़र्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती की गयी और हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट भी दी गयी। कॉरपोरेट टैक्स में छूट देने से सरकारी खजाने को 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान होगा। पर सरकार तो पहले ही घाटे में चल रही थी। घाटे में चलती सरकार ने न केवल पूँजीपतियों को टैक्स में छूट दी बल्कि बैंकों को 70,000 करोड़ की राशि और दे दी जिससे वे अपने घाटों की भरपाई कर लें। पहले भी उन्हें करीब दो लाख करोड़ रुपये दिये गये थे। इस तरह के क़दमों से राजकोष का जो नुक़सान हुआ उसकी भरपाई के लिए मोदी सरकार ने रिजर्व बैंक के सुरक्षित कोष से 1.76 लाख करोड़ हड़प लिये। रिज़र्व बैंक की सुरक्षित रकम को हड़पने की कोशिशें सरकार बहुत समय से कर रही थी। बिमल जालान समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार के पिट्ठू नये आर.बी.आई गवर्नर के नेतृत्व में यह सम्भव हो गया और सरकार ने 1947 के बाद पहली बार रिज़र्व बैंक की सुरक्षित राशि पर भी हाथ साफ़ कर दिया। लेकिन इतने से भी घाटे का पेट नहीं भरा। अभी सरकार रिज़र्व बैंक से 30,000 करोड़ की रक़म और लेने वाली है।

पूँजीपतियों की मदद करते हुए जब सरकारी ख़ज़ाना और घाटे में चला जाता है तो सरकार के पास और उपाय भी रहते हैं। उसके पास सरकारी उपक्रमों के रूप में विशाल परिसम्पत्तियाँ भी होती हैं। सरकारी उपक्रम तो जनता के टैक्सों से खड़े किये गये हैं यानी वे जनता की सम्पत्ति हैं। पर सरकार इन्हें बेच देती है और उस रक़म से भी कॉरपोरेट को मदद करती है। चुनाव प्रचार में भाजपा सहित किसी भी पार्टी ने नहीं कहा था कि सत्ता में आने पर वह सरकारी उपक्रमों को बेचेगी, यानी जनता से इसके लिए कोई सहमति नहीं ली गयी थी, मगर चुनाव जीतते ही मोदी सरकार ने कई सरकारी उपक्रमों को बेचने का ऐलान कर दिया। इस साल सरकारी उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी बेच कर 90,000 करोड़ रुपये बनाने का लक्ष्य रखा है। एचपीसीएल, ओएनजीसी, बीएसईएल, एचएएल, सेल जैसे फ़ायदे में चलने वाले और बुनियादी उत्पादन के काम में लगे सरकारी उपक्रमों की कुछ हिस्सेदारी सरकार ज़रूर बेचेगी। पिछले कुछ सालों में सरकार ने सरकारी उपक्रमों से अत्यधिक डिविडेंड वसूला और उनकी हालत कमज़ोर कमज़ोर कर दी और फिर एलआईसी को सरकारी उपक्रमों में शेयर होल्डर बनवाया। सरकार सरकारी उपक्रम में खुद की भागीदारी को एलआईसी को भी बेच देती है और उससे मिले पैसे से अपने घाटे की पूर्ति करती है। इसका मतलब जनता की ही जमा पूँजी से जनता की सम्पत्ति खरीद ली जाती है और उस पैसे का इस्तेमाल पूँजीपतियों को मदद करने में किया जाता है। इसी तरह सरकारी उपक्रमों और प्राइवेट फाइनेंस कम्पनियों में निवेश करवा के सरकार ने एलआईसी को 57000 करोड़ का नुक़सान पहुँचाया जो कि सीधे आम जनता का नुक़सान है।
निजीकरण द्वारा सरकारी उपक्रमों को सीधे पूँजीपतियों को भी औने-पौने दाम पर बेच दिया जाता है। नुक़सान में जाते हुए सरकारी उपक्रम जब मन्दी के दौर में सस्ते में बिकेंगे तो पूँजीपतियों को उससे भी फ़ायदा होगा। सरकारी उपक्रम की बिक्री से जो पूँजी बनती है, उसे बैंकों के एन.पी.ए की भरपाई के लिए उपयोग करते हैं और बैंक फिर से कॉरपोरेट घरानों को क़र्ज़ देने सक्षम हो जाते हैं। सरकार तब तक क़र्ज़ देती रह सकती है जब तक आख़िरी सरकारी सम्पत्ति बिक सकती है। सरकार जो क़र्ज़ लेती है उसमें भी पिछले कुछ समय में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। 2014 में सरकार के ऊपर 54.9 लाख करोड़ का क़र्ज़ था जो पाँच साल में बढ़ के 88.18 लाख करोड़ हो चुका है। इसकी भरपाई भी सार्वजनिक सम्पत्ति और संसाधनों को बेचकर ही की जाएगी। रेल, सड़कों, अस्पतालों, सरकारी कम्पनियों, एयरलाइन, कोयला खदानों इत्यादि सभी का निजीकरण तय है। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर सरकार मन्दी के दौर में जनता के पैसों को पूँजीपतियों तक पहुँचाने के लिए हर तिकड़म कर रही है। पूँजीवाद के इंजन को मुनाफ़ा चाहिए। यह योजनाबद्ध उत्पादन नहीं है। यह मुनाफ़े पर टिका उत्पादन है। बाज़ार में यदि मन्दी है तो पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी तो कोशिश यही करेगी की मुनाफ़े का इंजन न रुके। इसलिए कार्पोरेट घरानों के मुनाफ़े की सभी नीतियाँ बन रही हैं। मगर पूँजीपतियों को इतने मुनाफ़े देने वाली सरकार मन्दी, बेरोज़गारी और डूबती अर्थव्यवस्था के समय में आम जनता पर पेट्रोल और डीज़ल का बोझ तक कम नहीं करती। कुछ दिन पहले पेट्रोल के दामों में प्रति लीटर 2-2.50 रुपये की वृद्धि की गयी जो इस साल की सबसे बड़ी वृद्धि है।

लोगों को सरकार के खोखले वादों से सावधान रहना चाहिए। विकास दर को 7 और 8 प्रतिशत तक पहुँचाने और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के सब्ज़बाग़ दिखाने वालों के जुमलों का भाँडा फूट गया है और विकास दर में लगातार गिरावट जारी है। पिछली तिमाही में विकास दर 5 प्रतिशत हो गयी है और कई प्रमुख अर्थशास्त्रियों का कहना है कि विकास दर के ये आँकड़े भी कुशलतापूर्वक तोड़े-मरोड़े गये हैं और असलियत में विकास दर 2-2.5 प्रतिशत ही है। अगस्त महीने में देश के आठ बुनियादी सेक्टर कोयला, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफ़ाइनरी, उर्वरक, सीमेंट, बिजली और इस्पात का उत्पादन 45 महीने में सबसे निचले स्तर पर रहा। भारत भुखमरी के सूचकांक में 2014 में 55वें स्थान पर था जहाँ से लुढ़कते हुए अब 103वें स्थान पर पहुँच चुका है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (अंकटाड) की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2020 भारी मन्दी का साल होगा। जब मेहनतकश वर्गों का अभी ये हाल है तो सोचा जा सकता है कि आने वाले सालों में क्या हश्र होगा। अगर हम ऐसे ही टुकड़े-टुकड़े में बँटे रहे और ज़िन्दगी के बुनियादी मुद्दों को भूलकर हुक़्मरानों के खड़े किये झूठे मुद्दों पर एक-दूसरे से लड़ते रहे तो न यह मुल्क़ किसी के रहने लायक बचेगा और न ही यह धरती।

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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