‘अन्वेषण’ : कला के असली सजर्कों तक कला को ले जाने की अनूठी पहल
जो सर्जक हैं,
रचते हैं,
जीवन की बुनियादी शर्तें
और गाते हैं,
चलो, उनसे
उम्मीदों की उम्र,
सपनों की गहराई
और उड़ान की ऊँचाई
माँग लायें,
अनाज की पूलियों
की तरह
लादकर घर लायें।
– शशिप्रकाश
यह कविता दिल्ली के मज़दूर इलाक़ों में छात्र-युवा कलाकारों की संस्था ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स लीग’ द्वारा शुरू की गई मुहिम ‘अन्वेषण’ को सटीक ढंग से अभिव्यक्त करती है। ‘अन्वेषण’ का मक़सद कला को आर्ट गैलरी की दीवारों से बाहर उतारकर ज़िन्दगी के बीच लाना है। इस मुहिम का मक़सद जीवन की बुनियादी शर्तों को रचने वाले सर्जकों के बीच जाकर जीवन के गरम ताप से कला को सींचना है। हमने अन्वेषण के तहत बवाना, वज़ीरपुर, नांगलोई के औद्योगिक क्षेत्रों में, इन इलाक़ों से सटे रिहायशी क्षेत्रों में फोटोग्राफ़ी की, स्केच बनाये, चित्र बनाये और लोगों से कला के बारे में, उनकी ज़िन्दगी के बारे में बातचीत की। इस दौरान किये गये कलाकर्म को लोगों के बीच प्रदर्शित भी किया। इस दौरान हमारे जो अनुभव रहे उन्हें हम यहाँ साझा कर रहे हैं।
बवाना और नांगलोई में खींची कई तस्वीरें विचलित करने वाली हैं और कई अर्थों में कुरूप लगती हैं, परन्तु उनमें सामाजिक जीवन की ठोस सच्चाई है। बवाना औद्योगिक क्षेत्र में 5 सेक्टर हैं। सेक्टर 5 के पास ही मज़दूरों का रिहायशी इलाक़ा मेट्रो विहार है। इस इलाक़े में सूरज अलग तरह से उगता है। एक तरफ़ फै़क्ट्ररियाँ हैं तो दूसरी तरफ़ खेत और उसके बीच में रिहायशी इलाक़े में हम थे। मज़दूरों के रिहायशी इलाक़े की आड़ी-तिरछी 12 और 18 फ़ुट के घरों की आकृतियों के बीच टूटी सड़क पर हमें कई लोग आते-जाते हुए मिले। सूरज पूरी तरह उगने पर हमें फ़ैक्ट्ररी से काम कर घर लौटते मज़दूर मिले जो थककर चूर थे। थोड़ी देर में ही स्कूल जाते बच्चे मिले जो हमें देखते, मुस्कुराते और आगे बढ़ जाते। थोड़ी देर में काम पर जाते मज़दूरों का ताँता लग गया। आधे घण्टे में एक सड़क से क़रीब दो-तीन हज़ार मज़दूर गुज़र रहे थे। सभी तारोताज़ा दिख रहे थे। कुछ ख़ुश दिख रहे थे और आपस में बात करते हुए जा रहे थे तो कुछ बिल्कुल चुप और शून्य में ताकते हुए चले जा रहे थे। ऐसा महसूस होता था जैसे कोई ताक़त उन्हें खींच रही हो। उनके क़दमों में एक तेज़ी थी। कुछ मज़दूर रुककर हमसे बात कर रहे थे और जिज्ञासा के साथ हमें समझने की कोशिश कर रहे थे। युवा महिलाएँ बच्चों के साथ फ़ैक्ट्री जा रही थीं जिन्हें वे फ़र्श पर खेलने के लिए छोड़ देंगी क्योंकि किसी भी फ़ैक्ट्री में क्रेच नहीं है। तीस साल से ज़्यादा उम्र के मज़दूर बूढ़े से लगने लगे थे, उनमें ज़्यादातर शर्ट-पैण्ट पहने थे। नौजवान ज़्यादा ख़ुश थे जिनमें बहुत से मज़दूर जीन्स और टीशर्ट पहने थे। कानों में ठेपी लगाए, मुँह में गुटखा या पान चबाये हुए मज़दूर भी काफ़ी संख्या में थे। जीवन की रेखाएँ यहीं खिंच रही थीं। ये लोग ही जीवन की बुनियादी शर्तें पैदा करते हैं। परन्तु इनका जीवन एक थोपे हुए अनुशासन में था। विशालकाय इण्डस्ट्रियल एरिया सभी मज़दूरों को अपनी ओर खींचकर सोख रहा था।
वज़ीरपुर में तो ऐसा लगा मानो हम किसी नरक लोक में आ गये हों। यह वह नरक है जहाँ हमारे जीवन की ज़रूरतें पैदा होती हैं। परन्तु मज़दूर हर ताप और हर मुश्किल में काम करते जीवन को गढ़ रहे थे। इन तस्वीरों को हम फ़िलहाल पूरी तरह सोख भी नहीं पाये हैं और ये तस्वीरे शब्दों से ज़्यादा खुद ही बोलती हैं।
नांगलोई की गलियों में बेहद ग़रीबी है। एक घर में ज़मीन पर एक स्त्री लेटी हुई थी जिसने पूछा कि क्या काम है और यह बताने पर कि हम कलाकार हैं और तस्वीर लेना चाहते हैं वह वैसे ही लेटी रही। उसके साथ लेटा बच्चा इस दौरान उत्सुक था, परन्तु वह इस सब से बेगानी थी। ऐसा प्रतीत हुआ कि वह हर चीज़ से दूर है। उसका वह भाव, उसका अपने आप से, अपने आसपास की हर चीज़ से अलगाव विचलित करता है। अधिकतर घरों में सड़ी हुई नाली के ऊपर ही खाना बनाने की मजबूरी और गन्दगी में बच्चों का खेलना यहाँ आम बात है। उसपर पहली बार में लोग शिकायत नहीं करते प्रतीत होते। परन्तु थोड़ा सा कुरेदते ही लोगों के अन्दर से सरकारों और अमीरों के प्रति ग़ुस्सा बह निकलता है।
बवाना में हमने बच्चों को कुछ चित्र बनाने के लिए दिये। बच्चों ने हमारे, सड़कों पर खड़े वाहनों के और स्कूल में सिखाये चित्रों को बनाया और हमने इस दौरान उन्हें देखने के तरीके बारे में बताया। बच्चे दुनिया को जिस नज़र से देखते हैं उसमें नयापन होता है।
सबसे ज़्यादा प्रभाव डालने वाला अनुभव मज़दूरों के बीच लगाई प्रदर्शनी के दिन मिला। लोग फोटोग्राफ़ में खुद को देख रहे थे। देर तक लोग जमे रहे और हम लागों से बात करते रहे। वे बहुत ख़ुश थे। उन तस्वीरों के सौन्दर्यबोध पर भी बातचीत हुई, हालाँकि उनके पास तकनीकी शब्द नहीं थे। फ़ोटो के रंगों और भावों पर लोग बात कर रहे थे। सबसे अधिक खुश बच्चे दिख रहे थे और पूरी प्रदर्शनी के दौरान दर्जनों बच्चे हमारे चारों ओर चहकते रहे। इस प्रदर्शनी ने हमारे मक़सद को सही साबित किया है। बेशक यह एक बहुत छोटी शुरुआत है, मगर एक शुरुआत तो है।
मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019
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