पूँजीवादी संकट गम्भीर होने के साथ ही दुनिया-भर में दक्षिणपंथ का उभार तेज़
शिशिर
फासीवाद कुछ व्यक्तियों या किसी पार्टी की सनक नहीं है। यह पूँजीवाद के लाइलाज रोग से पैदा होने वाला ऐसा कीड़ा है जिसे पूँजीवाद ख़ुद अपने संकट को टालने के लिए बढ़ावा देता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था अन्दर से सड़ चुकी है, और इसी सड़ाँध से पूरी दुनिया के पूँजीवादी समाजों में हिटलर-मुसोलिनी के वे वारिस पैदा हो रहे हैं, जिन्हें फासिस्ट कहा जाता है। फासिस्ट पूँजीवादी लोकतंत्र को भी नहीं मानते और उसे पूरी तरह रस्मी बना देते हैं और वास्तव में पूँजी की नंगी, खुली तानाशाही कायम कर देते हैं। फासिस्ट धर्म या नस्ल के आधार पर आम जनता को बाँट देते हैं, वे नक़ली राष्ट्रभक्ति के उन्मादी जुनून में हक़ की लड़ाई की हर आवाज़ को दबा देते हैं। वे धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर एक नक़ली लड़ाई खड़ी करके असली लड़ाई को पीछे कर देते हैं और पूरे देश में दंगों और ख़ून-खराबों का विनाशकारी खेल शुरू कर देते हैं। पूँजीपति वर्ग अपने संकटों से निजात पाने के लिए फासीवाद को बढ़ावा देता है और ज़ंजीर से बँधे शिकारी कुत्ते की तरह जनता को डराने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन जब-तब यह कुत्ता अपनी ज़ंजीर छुड़ा भी लेता है और तब समाज में भयंकर ख़ूनी उत्पात मचाता है।
नवउदारवाद के इस दौर में पूँजीवादी व्यवस्था का संकट जैसे-जैसे गम्भीर होता जा रहा है, वैसे-वैसे दुनियाभर में फासीवादी उभार का एक नया दौर दिखायी दे रहा है। पूरी दुनिया में पूँजीवादी व्यवस्था लम्बे समय से संकट में फँसी हुई और उबरने के तमाम उपाय करने के बावजूद इसका संकट पहले से भी ज़्यादा गम्भीर होता जा रहा है। ऐसे में अपने मुनाफ़े की दर को कम होते जाने से बचाने के लिए दुनियाभर के पूँजीपति अपने देश के मज़दूरों और आम जनता के शोषण को बढ़ाते जा रहे हैं। जिन देशों में आम लोगों को पहले से कुछ बेहतर सुविधाएँ मिली हुई थीं वहाँ भी अब वे सुविधाएँ छीनी जा रही हैं। इस बढ़ते शोषण के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। ऐसे में हर जगह के पूँजीपति अपने आख़िरी हथियार – फ़ासीवाद को निकालने पर मजबूर हो रहे हैं। कहीं यह एकदम नंगे रूप में सामने आ चुका है तो कहीं इसने अभी नग्न फ़ासीवाद की शक़्ल नहीं ली है मगर उग्र दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के रूप में सामने आया है।
नरेन्द्र मोदी का सत्ता में आना पूरी दुनिया में चल रहे सिलसिले की ही एक कड़ी है। ब्राज़ील में जैर बोल्सोनारो की ‘सोशल लिबरल पार्टी’, तुर्की में एर्दोगान की ‘जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी’ और फिलिप्पीन्स में दुतेर्ते की ‘पीडीपी-लबान’ जैसी अर्द्ध-फ़ासिस्ट पार्टियाँ सत्ता में हैं। ग्रीस, स्पेन, इटली, फ्रांस, उक्रेन, जैसे यूरोप के कई देशों में फासिस्ट किस्म की धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की ताक़त बढ़ रही है। नव-नाज़ी ग्रुपों का उत्पात इंग्लैण्ड, जर्मनी, नार्वे, डेनमार्क, स्वीडन, पोलैंड, हंगरी, बल्गारिया, फ़िनलैण्ड, ऑस्ट्रिया और स्विट्ज़रलैण्ड जैसे देशों में भी तेज़ हो रहा है। इंडोनेशिया जैसे देशों में पहले से निरंकुश सत्ताएँ क़ायम हैं जो पूँजीपतियों के हित में जनता का कठोरता से दमन कर रही हैं। अमेरिका में ट्रम्प के नेतृत्व में एक धुर दक्षिणपंथी सत्ता क़ायम है। हाल के वर्षों में कई जगह ऐसी ताकतें सीधे या फिर दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के साथ गठबन्धन में शामिल होकर सत्ता में आ चुकी हैं। जहाँ वे सत्ता में नहीं हैं, वहाँ भी बुर्जुआ जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखा धूमिल-सी पड़ती जा रही है और सड़कों पर फासीवादी उत्पात बढ़ता जा रहा है।
इटली के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी अन्तोनियो ग्राम्शी ने कहा था : “संकट ठीक इसी बात में निहित होता है कि पुराना मर रहा है, लेकिन नये का जन्म नहीं हो पा रहा है; इस अन्तराल में ढेरों प्रकार के रुग्ण लक्षण प्रकट होते हैं।” आज की दुनिया भी ठीक एक ऐसे ही दौर से गुज़र रही है। मरणासन्न पूँजीवाद अब इस दुनिया को कोई भी प्रगतिशील चीज़ नहीं दे सकता। एक समय था जब इतिहास की स्वाभाविक दिशा के अनुरूप विश्व-पटल पर पूँजीवाद के आविर्भाव के साथ ही सैकड़ों सालों तक चले मध्ययुगीन अँधेरे का ख़ात्मा हुआ। चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई और हज़ारों-हज़ार लोगों को लील जाने वाली बहुत-सी बीमारियाँ इतिहास के कूड़ेदान में चली गयीं। ज़बरदस्त औद्योगिक विकास हुआ। यातायात और संचार के साधनों का क्रान्तिकारी रूपान्तरण हुआ। जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी ग़रीबी में जीवनयापन करने को मजबूर था, पर यह ग़रीबी भी सामन्तवादी दौर की बर्बर व्यवस्था में जीने से कहीं बेहतर थी।
राजनीतिक-सांस्कृतिक स्तर पर स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के विचारों का विचारधारात्मक प्रभुत्व स्थापित हुआ। परलोक केन्द्रित समाज की बजाय इहलोक केन्द्रित समाज बना। आम जनता को संवैधानिक अधिकार मिले। लेकिन, यहाँ पर ग़ौर करने वाली बात है कि ये सारी चीज़ें मुख्यतः और मूलतः इतिहास की स्वाभाविक गति का परिणाम थीं, न कि उभरते हुए शासक वर्ग यानी बुर्जुआजी ने इन्हें अपनी भलमनसाहत से दे दिया था। बल्कि, बुर्जुआ वर्ग ने ख़ुद को सत्ता में स्थापित करने के लिए और पूँजीवादी विकास की पैरों की बेड़ियाँ बन चुके सामन्तवाद को निर्णायक रूप से पराजित करने के लिए, पहले तो सर्वहारा वर्ग की मदद ली। लेकिन, सत्ता में आने के बाद उसने सर्वहारा वर्गों के साथ ग़द्दारी करने में ज़रा भी देर नहीं की। चाहे वह पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति के क्लासिकीय रास्ते से आने वाले पूँजीवाद की बात हो, या उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष की – हर बार बुर्जुआ वर्ग ने सर्वहारा वर्ग को धोखा दिया। और ऐसा ही होना भी था। पूँजीवाद में पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग दो सबसे ज़्यादा ध्रुवीकृत वर्ग होते हैं। इन दोनों के हित समान नहीं हो सकते, क्योंकि मज़दूरों का शोषण किये बिना मालिक वर्ग का मुनाफ़ा मुमकिन ही नहीं है।
1970 के दशक का अन्त होते-होते पूरी दुनिया के शासक वर्ग को समझ में आ गया था कि पूँजीवाद की उम्र लम्बी करने के लिए कीन्सियाई तौर-तरीक़े अब नाकाफ़ी हो चुके थे। इसके उपाय में शासक वर्गों ने जो नीतियाँ अपनायीं उन्हें उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के रूप में जाना जाता है। इसके तहत, उत्पादन के अधिक से अधिक कामों को निजीकृत करना, कल्याणकारी कार्यों के लिए सरकारी ख़र्चों में कटौती करना, अविनियमन, मुक्त बाज़ार इत्यादि की नीतियाँ अपनायी गयीं। कुल जमाजोड़ यह कि ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ों को निजी क्षेत्र के लिए मुनाफ़े का स्रोत बनाया जाये। साम्राज्यवादी देशों के प्रतिनिधि विश्व व्यापार संगठन ने वित्तीय दबाव बनाकर थोड़े समय में ही पूरी दुनिया को विदेशी निवेशी के लिए अपनी सीमाएँ खोलने को मजबूर कर दिया। निजी पूँजी के समाज के पोर-पोर में पहुँचने का नतीजा यह हुआ कि एक ओर तो इसने अल्पसंख्या में मध्यम-वर्ग के रूप में पूँजीवाद के समर्थक पैदा किये। दूसरी ओर, बड़े पैमाने पर लोगों को ग़रीबी में झोंका। अमीर-ग़रीब की खाई में बेइन्तहाँ इज़ाफ़ा हुआ। इस साल आयी ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के मुताबिक़, दुनिया के 26 सबसे अमीर लोग दुनिया की 50% सम्पत्ति के मालिक हैं। शिक्षा और अस्पताल जैसी चीज़ें ख़रीद-फ़रोख़्त की चीज़ें बन गयीं। बड़े पैमाने पर टटपुँजिया उत्पादन को तबाह कर पेटी-बुर्जुआ के एक बड़े हिस्से को सर्वहारा की कतारों में भेजा। भारत में कृषि में इसका प्रभाव ख़ास तौर पर दिखा और सीमान्त और छोटे किसान लगातार बर्बाद होने लगे। पेंशन और बीमा जैसी सामाजिक सुरक्षाओं से राज्य पीछे हट गया और उसे निजी हाथों में दे दिया गया। पर इतना सबकुछ करने के बाद भी पूँजीवाद 1970 के दशक के अन्त में शुरू हुए संकट से आज तक नहीं उबर पाया है। पूरी दुनिया के स्तर पर, सालों से विनिर्माण के क्षेत्र में वृद्धि लगभग ठप चल रही है और अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा वित्तीय सट्टेबाज़ी पर आधारित हो गया है। बीमा बेचने, लोन देने, शेयर की ख़रीद-फ़रोख़्त इत्यादि पर आधारित वित्तीय अर्थव्यवस्था एक अनुत्पादक अर्थव्यवस्था है जिसमें स्वाभाविक ही रोज़गार के अवसर बहुत कम होते हैं। ऐसे में, जगह-जगह सत्ता में मौजूद उदारवादी या सामाजिक-जनवादी ताक़तें बेनकाब होने लगीं और जनता में उनके प्रति रोष बढ़ता गया। भारतीय कांग्रेस पार्टी के प्रति लोगों का ग़ुस्सा इसी की एक बानगी है।
क्रान्तिकारी विकल्पहीनता के चलते, जनता के इस ग़ुस्से को भुनाया धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों ने। हालाँकि, अलग-अलग देशों के इतिहास की अलग-अलग विशेषताओं की वजह से हर जगह दक्षिणपंथ के उभार की कई स्थानीय वजहें भी हैं। पर कुछ चीज़ें एक जैसी हैं। ये सभी पार्टियाँ अपने शब्दाडम्बरों में नव-उदारवादी नीतियों का विरोध करती हैं, कल्याणकारी कार्यों से सम्बन्धित तमाम लोकरंजकतावादी जुमले फेंकती हैं और ये जनता के ही किसी एक हिस्से को दूसरे हिस्से का दुश्मन बताती हैं और इस तरह नस्ली/मज़हबी/जातीय/राष्ट्रीय आधार पर नफ़रत फैलाती हैं। बर्बादी की कगार पर खड़े टटपुँजिया वर्ग को ये बातें सबसे ज़्यादा लुभाती हैं और यही वर्ग इन पार्टियों का सबसे मुख्य आधार होता है। दूसरी ओर, सुषुप्त वर्ग-चेतना के चलते मज़दूरों का एक हिस्सा भी इनके प्रभाव में आ जाता है। सत्ता में आने पर ये पार्टियाँ दिखाने के लिए एक-दो लोकरंजकतावादी कामों को अंज़ाम देती हैं और उनकी आड़ में घोर मज़दूर-विरोधी नीतियाँ लागू करती हैं और किसी भी तरह के विरोध को – ख़ासकर मज़दूर आन्दोलनों को बेरहमी से कुचलने का काम करती हैं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पार्टी आरएसएस और भाजपा का सत्ता में आना। भाजपा कश्मीरियों, मुसलमानों, ईसाइयों, बांग्लादेशियों, प्रवासियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाकर सत्ता में आती हैं, सत्ता में होने पर घोर वेतन संहिता अधिनियम 2019 जैसे मज़दूर-विरोधी क़ानून बनाती हैं और पूँजीपतियों की जमकर चाकरी करती हैं। पूँजीपतियों को ऐसी ही पार्टी चाहिए जो आम जनता की क़ीमत पर वित्तीय क्षेत्र को फ़ायदा पहुँचाने और जनता का पैसा पूँजीपतियों के हाथों में डालने के लिए नोटबन्दी जैसे काले कारनामों को अंज़ाम दे सके। इसके अलावा, अमेरिका में 2016 में राष्ट्रपति चुनाव जीतने वाले डॉनल्ड ट्रम्प के पीछे कोई कैडर आधारित पार्टी तो नहीं काम करती, लेकिन, ख़ुद ट्रम्प में कई फ़ासीवादी रुझान मौजूद हैं। ट्रम्प भी बेरोज़गारी के लिए मेक्सिको और अन्य देशों से आकर अमेरिका में काम करने वाले लोगों को ज़िम्मेदार ठहराता है, आतंकवाद के लिए मुसलामानों को ज़िम्मेदार ठहराता है और अमेरिका में अल्पसंख्या में मौजूद अफ़्रीकी मूल के लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाता है। धुर-दक्षिणपंथी विक्टर ओर्बन 2010 से ही हंगरी का प्रधानमंत्री रहा है। जर्मनी में सितंबर 2017 के आम चुनावों में नव-नाज़ीवाद से जोड़ी जाने वाली पार्टी ‘अल्टरनेट फ़ॉर जर्मनी’ ने 630 में से 94 सीटें जीत लीं। इटली में धुर-दक्षिणपंथी पार्टी फाइव-स्टार मूवमेण्ट इस समय सत्ता की भागीदार है। फ़्रांस में नेशनल फ्रण्ट पार्टी बेहद लोकप्रिय हो चुकी है।
कहा जा सकता है, पूरी दुनिया में उदारवादी बुर्जुआ लोकतंत्र से स्वाभाविक ही लोगों का भरोसा ख़त्म हो रहा है। उदारवादी पूँजीवाद ने दिखा दिया है कि वह जनता को बदहाली और झूठी दलीलों के अलावा और कुछ नहीं दे सकता। ऐसे में पूँजीपति वर्ग के पास धुर-दक्षिणपंथी या फ़ासिस्ट ताक़तों को अपनी मैनेजमेण्ट कमेटी के रूप में चुनने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है, क्योंकि दक्षिणपंथी या फ़ासिस्ट ताक़तों के सामाजिक आधार के चलते उनके लिए दमनकारी होना आसान हो जाता है। पर एक सच्चाई यह भी है कि ये दक्षिणपंथी ताक़तें जनता के असली मुद्दों को कभी नहीं हल कर सकतीं और इसलिए ऐसी पार्टियों के नेता भी कभी चैन से साँस नहीं ले पाते।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2019
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