मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल : पर्यावरण विनाशक नीतियों के निरंकुश विस्तार और उसके भयावह परिणामों के लिए तैयार रहें

पावेल पराशर

कुछ महीने पहले वैश्विक पर्यावरण सूचकांक की एक रिपोर्ट आयी जिसके अनुसार दुनिया के 180 देशों में पर्यावरण के क्षेत्र में किये गये प्रदर्शन के आधार पर भारत को 177वाँ पायदान दिया गया। इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट ने विश्व के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 15 भारतीय शहरों को रखा। ‘हेल्थ इफे़क्ट्स इंस्टिट्यूट’ के एक अध्ययन के अनुसार साल 2017 में भारत में 12 लाख मौतें वायु प्रदूषण के प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष कारणों की वजह से हुईं। ये तो हुई वायु प्रदूषण की बात, इसके अलावा जल संकट और भूजल स्तर में तेज़ी से आती गिरावट से जुड़े कुछ हालिया आँकड़े भी एक भयावह दृश्य की ओर इशारा करते हैं। भारत सरकार के ‘नीति आयोग’ का यह अनुमान है कि वर्ष 2020 तक ही दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नयी और हैदराबाद सहित देश के 21 शहरों में रहने वाली 10 करोड़ आबादी को भूजल स्तर में भारी कमी का सामना करना पड़ेगा। जल संकट इसी गति से बढ़ता रहा तो 2030 तक देश की 40% आबादी को पेयजल तक मयस्सर नहीं होगा। ये सभी तथ्य व आँकड़े यह बात बिल्कुल साफ़ कर देते हैं कि पर्यावरण का संकट जो पूरे विश्व के सामने आज मुँहबाए खड़ा है, वह भारत में और भी दैत्याकार रूप लेकर एक आपातकालीन संकट का स्वरूप ले चुका है। ऐसे में कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इस आपातकालीन संकट से जूझने के लिए प्रशासनिक स्तर पर कई गम्भीर और कड़े नीतिगत फ़ैसले लेने की ज़रूरत है।

ऐसे में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का प्रदर्शन और दूसरे कार्यकाल में इस मोर्चे पर उसकी सम्भावित भूमिका और नीतियों पर बात करना ज़रूरी हो जाता है। ‘अच्छे दिनों’ का वादा करके 2014 में सत्तासीन हुई इस सरकार ने जिन धन्ना सेठों को अच्छे दिनों की सौगात दी, उसकी भारी क़ीमत पर्यावरण, जलवायु और आम जनता की स्वास्थ्य की बर्बादी ने चुकायी है। ‘ग्लोबल फॉरेस्ट वाच’ के अनुसार साल 2014 से 2018 के बीच भारत का 1,20,000 हेक्टेयर के जंगलों का भूभाग साफ़ हो गया। यह 2009 से 2013 के बीच हुई जंगलों की सफ़ाई से 40% अधिक है। देश के कुछ सबसे घने वन क्षेत्रों की बात करें तो कोंकण और महाराष्ट्र के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में फैले सावंतवाड़ी डोडामार्ग वाइल्डलाइफ़ कॉरिडोर के 1600 एकड़ का वन क्षेत्रफल 2014 के बाद से 4 सालों में ही साफ़ कर दिया गया है। और सबसे चौंकाने वाली बात, कि ये तब हुआ है जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने 2013 में भीमागढ़ और राधानगरी वन कॉरिडोर के बीच के इस विशाल हिस्से पर पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने का आदेश दे रखा था। शुरू में इस इलाक़े में खनन व अन्य औद्योगिक व व्यावसायिक गतिविधियों को नियन्त्रित रखने का वायदा किया गया, लेकिन बाद में अडानी व वेदान्ता जैसे कॉर्पोरेट दैत्यों को खुल्ली छूट दे दी गयी और देश का यह सबसे घना वन क्षेत्रफल अब तबाही की कगार पर खड़ा है। सरकार की अतिमहत्वाकांक्षी “बुलेट ट्रेन” प्रोजेक्ट के लिए पश्चिमी घाट के घने जंगलों का 438 हेक्टेयर वन क्षेत्रफल साफ़ करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी गयी है, जिसमें से 131 हेक्टेयर क्षेत्रफल ‘मैन्ग्रोव’ वन का हिस्सा है। ‘मैन्ग्रोव’ वन आज के दौर में जलवायु और पर्यावरण के दृष्टिकोण से एक बेशक़ीमती सम्पदा है। मैन्ग्रोव वनों में सूर्य की तीव्र किरणों तथा पराबैंगनी-बी किरणों से बचाव की क्षमता होती है। मैन्ग्रोव वन, प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) द्वारा वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को घटाते हैं। वे समुद्री क्षेत्रों में पाये जाने वाले पादप प्लवकों की अपेक्षा अधिक कार्बन डाइऑक्साइड (प्रति इकाई क्षेत्र पर) को सोखते हैं। ये बड़ी मात्रा में मिट्टी में कार्बन का संचय भी करते हैं और इस प्रकार हरित गृह प्रभाव (greenhouse effect) को कम करते हैं। इन इलाक़ों से मैन्ग्रोव वनों का विध्वंस न सिर्फ़ यहाँ के पर्यावरण और जलवायु के मोर्चे पर विनाशकारी प्रभाव छोड़ेगा, साथ ही इन तटीय इलाक़ों के मछली उद्योग को भी तबाह कर देगा। इसके अलावा देश के सबसे विशाल क्षेत्रफल में फैले तीव्र घनत्व वाले जंगल, छत्तीसगढ़ स्थित हसदेव अरण्ड वन में मोदी सरकार के सबसे करीबी कॉर्पोरेट घराने, ‘अडानी ग्रुप’ को कोयले की ओपन कास्ट माइनिंग की मंज़ूरी मिल गयी है। हसदेव क्षेत्र लगभग 170,000 हेक्टेयर में फैले मध्य भारत के बहुत घने जंगलों में से एक है जो इस फ़ैसले के बाद तबाही के रास्ते जाने को तैयार है। इलाक़े के गाँव वालों का कहना है कि ओपन कास्ट कोल माइनिंग के नाम पर हसदेव के जंगलों को तबाह करने के लिए ग्रामसभाओं से सहमति भी नहीं ली गयी, और अब ये जंगल, जो पर्यावरण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण होने के साथ ही आसपास के गाँवों की जीविका के स्रोत भी हैं, उनके छिन जाने से इलाक़े की विशाल आबादी के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जायेगा।

7 मार्च 2019 को सरकार ने 1927 के भारतीय वन क़ानून में कुछ ऐसे संशोधन प्रस्तावित किये हैं जो न सिर्फ़ सरकार की ख़तरनाक कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के रास्ते आने वाली तमाम क़ानूनी बाधाओं को दूर कर देंगे, साथ ही इन जंगलों पर पूरी तरह से निर्भर लाखों ग्रामीण आदिवासियों का अस्तित्व ही संकट में डाल देंगे और उनकी जबरन बेदख़ली का रास्ता भी खोल देंगे। प्रस्तावित संशोधनों में से एक प्रमुख संशोधन है वन संरक्षण, वृक्षारोपण की ज़िम्मेदारी से सरकार द्वारा पल्ला झाड़ लेना और इस ज़िम्मेदारी को उन कॉर्पोरेट घरानों के ही सुपुर्द कर देना जो उन इलाक़ों में व्यावसायिक गतिविधियों में लगे हैं अथवा लगने वाले हैं। यह एक तरह से वन संरक्षण के मौजूदा प्रयासों को स्थाई रूप से तिलांजलि देने वाला फ़ैसला सिद्ध होगा। पूरे विश्व भर के अनेक देशों में अपने मुनाफ़े की अन्धी हवस में पर्यावरण की तबाही के लिए बदनाम वेदान्ता, अडानी, पोस्को जैसी कम्पनियों को ही इन जंगलों का कोतवाल बना दिया जायेगा। इसके अलावा इस क़ानून में एक प्रस्तावित संशोधन ग्राम सभा/ग्राम पंचायतों से जंगल के इन इलाक़ों के अधिग्रहण व व्यावसायिक गतिविधियों के लिए दोहन से पहले ली जाने वाली सहमति की अनिवार्यता भी ख़त्म कर देगा। साथ ही इन नीतियों का विरोध करने वाले स्थानीय लोगों के क्रूर दमन को भी क़ानूनी जमा पहनाने का पूरा इन्तज़ाम सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन में मौजूद है। वन अपराधों को रोकने के नाम पर पुलिस और वन अधिकारियों को असीमित अधिकार दिये जाने का भी प्रस्ताव है जिसके तहत इन इलाक़ों में रहने वाले ग्रामीण आदिवासियों के राजकीय दमन का स्वरूप और भी हिंसक व क्रूर हो जायेगा।

कुल मिलाकर सरकार ने अपने इरादे साफ़ कर दिये हैं। “इज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस” के नाम पर जनता के अधिकारों और मेहनत की लूट-खसोट के साथ ही पर्यावरण के निरंकुश दोहन की नीतियाँ बनाना और उन्हें डण्डे, बन्दूक़, पुलिस, सेना के बल पर लागू करना, यही रास्ता अब उसे आगे के लिए दिख रहा है। सरकार का पहला कार्यकाल जो सरकार के करीबी धन्ना सेठों, पूँजीपतियों और देसी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों के मुनाफ़े की अन्धी हवस के लिए पर्यावरण के निरंकुश दोहन और विध्वंस का कार्यकाल रहा, वह अब अपने दूसरे चरण में और भी नंगी लूट-खसोट और विनाश का साक्षी रहने वाला है। जिस तेज़ी से विश्व पूँजीवाद हमारे पर्यावरण और प्रकृति का सर्वनाश करने की दिशा में बढ़ रहा है, और जिस तरह इस विनाश की रफ़्तार के मामले में भारत दुनिया भर के देशों को पीछे छोड़ते हुए आने वाले दिनों में अस्तित्व के भयावह संकट की तरफ़ तेज़ी से अग्रसर है, ऐसे में हाथ पर हाथ धरे बैठने का अर्थ है, प्रलय और विध्वंस का इन्तज़ार करना। अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में सरकार की इन नीतियों का सड़कों पर संगठित प्रतिरोध करने के अलावा जनता के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा।


 

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