कार्यस्थल पर मज़दूरों की मौतें : औद्योगिक दुर्घटनाएँ या मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था के हाथों क्रूर हत्याएँ
वृषाली
हाल-फ़िलहाल देश में कई औद्योगिक हादसे सामने आये हैं। इन हादसों ने दिखा दिया है कि मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के लिए मज़दूरों की जान की क़ीमत क्या हो सकती है। सबसे ताज़ा उदाहरण है इस साल की 3 जनवरी को मोती नगर, दिल्ली के एक पंखा बनाने वाले कारख़ाने में कम्प्रेसर फटने से 7 मज़दूरों की मौत। मोती नगर के उसी इलाक़े में पहले भी कई हादसे हो चुके हैं, लेकिन न तो मज़दूरों की सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम है और न ही सरकार के कानों पर कोई जूँ ही रेंगी है। मेघालय के कोयला खदान में फँसे 15 मज़दूरों की 13 दिसम्बर से अब तक कोई ख़बर तक नहीं है। जिस खदान में ये मज़दूर फँसे हैं वह ग़ैर-क़ानूनी है और बचाव दल को बुलाने में काफ़ी देर की गयी है। ज़ाहिर है, इस बार भी इसका ख़ामियाज़ा मज़दूर अपनी जान गँवाकर ही भुगतेंगे, जिसकी कि सम्भावना है। खदानों में 2015 से 2017 के बीच मरने वाले मज़दूरों की संख्या 377 है, औसतन 128 प्रति वर्ष। पिछले साल 10 अक्टूबर को लुधियाना के कलियान गंज में 4 मज़दूर फ़ैक्टरी में आग लगने से जान गँवा बैठे। मालिक ने फ़ैक्टरी के दोनों दरवाज़ों पर बाहर से ताला लगा रखा था। 8 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के भिलाई प्लाण्ट में आग लगने से 11 मज़दूरों की मौत हो गयी और 12 घायल हो गये। 20 जनवरी को बवाना, दिल्ली में ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से चल रहे कारख़ाने में आग लगने की वजह से 17 मज़दूरों की जान चली गयी। कारख़ाने को ग़लत तरीक़े से बाहर से बन्द किया गया था, जिसके कारण मज़दूर अन्दर ही फँसे रह गये। ये चन्द घटनाएँ कोई औद्योगिक दुर्घटना नहीं वरन मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा बेहद निर्मम और ठण्डे तरीक़े से की गयी हत्याएँ हैं। जिस देश के हुक्मरानों के माथे पर भोपास गैस काण्ड का दाग़ हो, जिसमें हज़ारों लोग मारे गये और कई पीढ़ियों की ज़िन्दगी नरक हो गयी और जिन्हें आज तक न्याय नहीं मिला, उन हुक्मरानों से हम क्या ही उम्मीद करें?
सभी प्रमुख अख़बारों मंें छपी ब्रिटिश सुरक्षा परिषद की हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में हर वर्ष तक़रीबन 48,000 मज़दूरों की कार्यस्थल पर मौत हो जाती है। इनमें सबसे ज़्यादा हादसे 24.20% भवन निर्माण सेक्टर में होते हैं। इस सेक्टर में औसतन रोज़ाना 38 दुर्घटनाएँ होती हैं। दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण ऊँचाई से गिरना है, जबकि बिजली का झटका लगना या मलबे के नीचे दब जाना अन्य कारण हैं। ज़ाहिर है कार्यस्थल पर सुरक्षा के कोई पुख्ता इन्तज़ाम नहीं होते और श्रम विभाग तो जैसे कारख़ाना मालिकों के लिए ही खोला गया है! निर्माण क्षेत्र में काम के दौरान मज़दूरों को आवश्यकतानुसार ‘सेफ़्टी नेट’, ‘बेल्ट’ इत्यादि चीज़ें मुहैया करवायी जानी चाहिए, किन्तु ये चीज़ें उपलब्ध नहीं करवायी जाती हैं। 2017 में आयी एनडीटीवी की एक रिपोर्ट देश भर में ऊँची-ऊँची इमारतों के नीचे दबी मज़दूरों की इन लाशों की कहानियाँ बख़ूबी उजागर करती है। 16 मार्च, 2015 में लोकसभा में दिये गये एक जवाब के अनुसार 2012 से 2015 के बीच भवन निर्माण क्षेत्र में कुल 77 मौतें दर्ज की गयी हैं। हालाँकि एक आरटीआई के अनुसार 2013-2016 के बीच 17 राज्यों के 24 शहरों में मज़दूरों की मौतों की संख्या 452 और ज़ख़्मियों की संख्या 212 बतायी गयी। लेकिन उसी दौरान कुछ बड़े शहरों में पुलिस के पास ऐसी ही घटनाओं की दर्ज संख्या में 1092 की मौत होना और 377 का घायल होना पाया गया। मतलब असल स्थिति कितनी भयावह हो सकती है क्योंकि बहुत सारे मामले तो पहले ही रफ़ा-दफ़ा कर दिये जाते हैं! सफ़ाई कर्मचारियों की 2010 से 2017 तक 356 मौतें दर्ज की गयी हैं, औसतन 44 प्रति वर्ष। 2017 में अकेले सितम्बर तक 90 सफ़ाई कर्मचारी अपनी जान गँवा चुके थे। पुराने तरीक़ों से गटर में उतरकर उनकी सफ़ाई करने वाले इन कर्मचारियों को ‘स्किल इण्डिया’ और ‘विकास’ से कोसों दूर रखा गया है। लगभग 90 फ़ीसदी कर्मचारी बिना किसी सुरक्षा इन्तज़ाम के ज़हरीली गैसों और गन्दगी में उतरकर सफ़ाई करने के लिए मजबूर हैं। इस्पात उद्योगों में हर साल 50 मौतें दर्ज की जाती हैं। पिछले साल के लोकसभा सत्र में दिये गये जवाब के अनुसार इस्पात उद्योग के 14 सरकारी कारख़ानों में 2017 में 16 बड़ी और 42 छोटी दुर्घटनाएँ दर्ज की गयीं। दिल्ली के वज़ीरपुर और मायापुरी जैसे इसी क्षेत्र के असंगठित और ग़ैर क़ानूनी छोटे-बड़े कारख़ानों में हुई दुर्घटनाओं को जोड़ दिया जाये तो संख्या न जाने कितनी हो जायेगी। इण्डियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली की चमकती-दमकती मेट्रो के निर्माण के दौरान 2002-2017 के बीच 156 मौतें हुई हैं और 103 ज़ख़्मी हुए हैं। हर क्षेत्र के अगर हम आँकड़े गिनेंगे तो पन्ने कम पड़ जायेंगे! देश भर में दर्ज औद्योगिक और मशीनी दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा केन्द्र है ‘गुजरात मॉडल’। 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में ऐसे कुल 797 मामले दर्ज किये गये थे जिनमें गुजरात 97 मौतों के साथ शीर्ष पर था और उसके बाद 84 की संख्या के साथ राजस्थान, 82 की संख्या के साथ मध्य प्रदेश और 73 की संख्या के साथ महाराष्ट्र। कहना नहीं होगा कि मज़दूरों के लिए यह देश एक बड़े क़ब्रगाह में तब्दील हो चुका है!
अब अगर औद्योगिक दुर्घटनाओं से जुड़े क़ानूनों पर नज़र डाली जाये तो साफ़ पता चलता है कि दोषी मालिकों को कोई ख़ास जुर्माना नहीं भरना पड़ता है। और श्रम विभाग के दफ़्तरों में पसरा शमशानी सन्नाटा इस बात का गवाह है कि इसमें कार्यरत ज़्यादातर कर्मचारियों-अधिकारियों के लिए मज़दूरों की मौत महज़ एक तथ्य भर है। ज़्यादातर मामलों में पुलिस द्वारा धारा 287 के तहत मामला दर्ज किया जाता है, जिसमें 6 महीने की जेल अथवा 1000 रुपये का दण्ड या दोनों का प्रावधान है। ज़्यादा से ज़्यादा धारा 304(ए) के तहत दोषी व्यक्ति को 2 साल की जेल हो सकती है। इसके तहत भी जमानत दिये जाने योग्य अपराध दर्ज होते हैं। पिछले साल फ़रवरी की इण्डियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के अनुसार अकेले मुम्बई में 8,142 मसले लेबर कोर्ट में आज तक अटके हुए हैं, इनमें से 122 मसले पिछले 10 सालों से चल रहे हैं।
ऊपर दिये गये आँकड़े तो वे हैं जो दर्ज किये गये हैं। देश की 85 फ़ीसदी कामगार आबादी तो असंगठित क्षेत्र में काम करती है। उस 85 फ़ीसदी आबादी के लिए न कोई श्रम-क़ानून है और न ही उनकी ‘हत्या’ के कि़स्से इस मुनाफ़ाखोर समाज के काले इतिहास में दर्ज ही होते हैं। दिल्ली के वज़ीरपुर और मायापुरी जैसे इलाक़ों में आये दिन मज़दूर अपनी उँगलियों से लेकर जान तक गँवाते हैं। हर क्षेत्र में मज़दूरों की जान की क़ीमत उतनी ही कम है। ज़्यादातर मसलों में दुर्घटना के बाद मालिक मज़दूर को साँठ-गाँठ करके किसी निजी अस्पताल या चिकित्सक के पास ले जाता है, ताकि मामला दर्ज ही न हो! किसी भी क्षेत्र में सबसे ख़तरनाक काम प्रवासी मज़दूरों के हिस्से आता है। प्रवासी, ग़रीब और दलित मज़दूर ही सबसे ज़्यादा अरक्षित होते हैं। उन्हें चोट लगने या मौत होने तक की स्थिति में मालिक पक्ष को बचने में ज़्यादा आसानी होती है। क्षेत्रफल और फ़ैक्टरियों की संख्या के हिसाब से श्रम विभाग में लेबर इंस्पेक्टरों की संख्या हमेशा कम होती है और रिश्वत का पूरा बोलबाला चलता है।
इतनी खराब स्थिति के पहले से ही मौजूद होने के बावजूद मौजूदा भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘लेबर कोड’ इस स्थिति की भयंकरता को और ज़्यादा गहराने वाला है। 2014 से ही भाजपा सरकार ने 40 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को 4 बड़े ‘कोड’ में तब्दील करने के लिए लोकसभा में एक बिल प्रस्तावित किया हुआ है। लेकिन इस प्रस्तावित बिल में भारत में कामगारों की कुल 47 करोड़ आबादी के 85 फ़ीसदी असंगठित मज़दूरों के लिए कोई जगह नहीं है। इस प्रस्तावित बिल पर सवाल किये जाने पर एक पूर्व लेबर सचिव, शंकर अग्रवाल बेशर्मी से यह फ़रमाते हैं कि मज़दूरों की सुरक्षा की महत्ता तो गौण है और भारत को ठेकेदारी व्यवस्था अपनाने में हिचकना नहीं चाहिए। प्रस्तावित बिल के हिसाब से 500 से कम कामगारों वाले किसी कारख़ाने में सुरक्षा इन्तज़ाम का निरीक्षण करना ग़ैर-ज़रूरी बना दिया जायेगा! ‘देश’ और ‘औद्योगिक’ विकास के लिए कुछ मज़दूरों की जान ही तो माँगी जा रही है!
मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था और इसके ताबेदारों के लिए मज़दूरों की जान की क्या क़ीमत है – यह उपरोक्त विवरण से साफ़ पता चल जाता है। हर दिन कई दुर्घटनाएँ होती हैं, ज़्यादातर दबा दी ज़ाती हैं और सामने नहीं आ पाती हैं। जो सामने आ पाती हैं, वे श्रम विभाग के रहमोकरम के भरोसे रहती हैं और श्रम विभाग का पट्टा किसके हाथ में है – यह सभी लोग जानते हैं। आज मज़दूरों पर पूँजी की मार बदस्तूर जारी है। सैकड़ों मज़दूरों की कुर्बानियों ने ही आज के मौजूदा श्रम क़ानून दिये जो भले ही काग़ज़ी हैं या लगातार और भी काग़ज़ी होते चले गये। आज हमारे सामने न केवल श्रम क़ानूनों के अधिकारों को हासिल करने, उन्हें लागू करवाने का सवाल उपस्थित है, बल्कि मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ात्मे का सवाल भी हमसे रूबरू है। मज़दूरों की नयी पीढ़ियाँ ज़रूर एकजुट होकर अपने पुरखों की सुनियोजित हत्याओं का बदला लेंगी और यह बदला तभी मुक़म्मिल होगा, जब शोषण के किसी भी रूप को प्रश्रय देने वाली व्यवस्था का ही सुनियोजित और योजनाबद्ध तरीक़े से ध्वंस कर दिया जायेगा।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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