अमीरों के पैदा किये प्रदूषण से मरती ग़रीब अाबादी
श्रवण यादव
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार साल 2016 में प्रदूषण और ज़हरीली हवा की वजह से भारत में एक लाख बच्चों की मौत हुई, और दुनिया में छह लाख बच्चे मौत के मुँह में चले गये। कहने की ज़रूरत नहीं कि इनमें से ज़्यादातर ग़रीबों के बच्चे थे।
मुम्बई, बैंगलोर, चेन्नई, कानपुर, त्रावणकोर, तूतीकोरिन, सहित तमाम ऐसे शहर हैं, जहाँ खतरनाक गैसों, अम्लों व धुएँ का उत्सर्जन करते प्लांट्स, फैक्ट्रीयाँ, बायोमेडिकल वेस्ट प्लांट, रिफाइनरी आदि को तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रखते हुए ठीक गरीब मेहनतकश मज़दूर बस्तियों में लगाया जाता है। आज तमाम ज़हरीले गैसों, अम्लों, धुएँ आदि के उत्सर्जन को रोकने अथवा उन्हें हानिरहित पदार्थों में बदलने, एसिड को बेअसर करने, कणिका तत्वों को माइक्रो फ़िल्टर से छानने जैसी तमाम तकनीकें विज्ञान के पास मौजूद हैं, लेकिन मुनाफे की अन्धी हवस में कम्पनियाँ न सिर्फ पर्यावरण नियमों का नंगा उल्लंघन करती हैं, बल्कि सरकारों, अधिकारियों को अपनी जेब में रखकर मनमाने ढंग से पर्यावरण नियमों को कमज़ोर करवाती हैं।
हाल ही में महाराष्ट्र, गुजरात, उ.प्र. में अडानी के पॉवर व अन्य प्रोजेक्ट्स के लिए वन कानूनों को तोड़-मरोड़ कर विशाल स्तर पर जंगल सौंपे गये, उत्तरांचल में पतंजलि के लिए पर्यावरण नियमों की धज्जियाँ उड़ायी गयीं, नियामगिरि, तूतीकोरिन, बस्तर, दंतेवाड़ा में वेदांता के लिए वहाँ की जनता को मयस्सर आबोहवा में ज़हर घोला गया, वह सब जगजाहिर है।
ऐसे में एक साल में एक लाख बच्चों का वायु प्रदूषण की वजह से दम तोड़ देना कोई आश्चर्य की बात नहीं, आक्रोश की बात जरूर है। जबतक उत्पादन का उद्देश्य जनता की ज़रूरत न होकर मुनाफा होगा, जबतक जनता के हाथ में उत्पादन के हर साधन का नियंत्रण नहीं आएगा, तबतक इसी तरह लाखों बच्चे मरते रहेंगे। आप सरकारें बदल लीजिए, कभी फेंकू को तो कभी पप्पू को लाते रहिए, कोई फर्क नहीं पड़ने वाला
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2018
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